Tuesday 21 February 2017

जानते हैं भारत में मुस्लिम शासकों के बारे मैं...?

एस एम फ़रीद भारतीय 
धार्मिक मामलों में भारत के मुसलमान बादशाह सत्रह्वीं सदी के जर्मनी की तरह कभी इस उसूल पर नहीं चले कि राजा का मज़हब ही देश की जनता का मज़हब होना चाहिये। बकल अपनी “हिस्ट्री आफ सिविलिज़ेशन“ में लिखता है- “अपने शासनकाल के
अंत के दिनों में चार्ल्स पांचवाँ बडे घमंड के साथ कहा करता था कि मैनें अपने देश की अपेक्षा हमेशा अपने धर्म को प्राथमिकता दी है, मेरी सबसे पहली और सबसे बडी आकांक्षा यही रही कि ईसाई धर्म के हितों को सर्वोच्च वरीयता दी जाए.
“उस ज़माने के विशवस्त लेखकों के अनुसार, फिलिप के शासनकाल में नीदरलेन्ड्स के अन्दर पचास हज़ार से एक लाख व्यक्ति केवल अपने धार्मिक विशवासों के कारण मारे गए। 1520 के बीच उसने नए नए कानून इस उद्धेश्य से जारी किये कि जिन लोगों पर यह जुर्म साबित हो जाए कि वह बादशाह के धार्मिक सिद्धांतों को नहीं मानते उन्हें या तो क़त्ल कर दिया जाये या जिन्दा जला दिया जाये या ज़िन्दा दफन कर दिया जाये. 
       

डच लोग सुधारकों के सम्प्रदाय में शामिल होना चाहते थे। बहुत से डच शामिल भी हो गये। इस पर बादशाह फिलिप (1555-1598 ईसवी) ने उनके साथ बडे अत्याचार शुरू कर दिए। यह अत्याचार तीस वर्ष तक जारी रहा। उसने हुक्म दे दिया कि जो व्यक्ति नये सम्प्रदाय के उसूलों का खन्डन करने से इनकार करे उसे जिंदा जला दिया जाये. 
     

 एल्फिंस्टन ने अपनी “हिस्ट्री आफ इंडिया” में लिखा है:
“शेरशाह की फौज में हिन्दुओं को बडे-बडे ओहदे दिये जाते थे। शेरशाह की यह नीति उसके शुरू के दिनों से ही चली आ रही थी। उसके अच्छे से अच्छे सेनापतियों में से एक ब्रह्मजीत गौड था। चौसा और बिलग्राम की लडाई के बाद ब्रह्म्जीत गौड को हुमायूँ का पीछा करने भेजा गया।“
    

   आमतौर पर यह कहा जाता है कि औरंगज़ेब ने अपनी अनुदारता से अपनी हिन्दू रियाया को नाराज़ किया किंतु एल्फिंस्ट्न ने औरंगज़ेब के शासनकाल के सम्बन्ध में लिखा है:    ”यह पता नहीं चलता कि किसी एक हिन्दू को भी अपने मज़हब की वजह से मौत की सज़ा या कैद की सज़ा बर्दाश्त करनी पडी हो। या किसी एक व्यक्ति को भी कभी अपने पूर्वजों के मज़हब पर खुले अमल करने के लिए जवाब तलब किया गया हो. 
      

 एल्फिंस्ट्न ने मुस्लिम प्रशासन के सम्बन्ध में लिखा है कि हिन्दुओं को उनके धर्मपालन में किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचाई जाती थी। मन्दिरों और धर्मशालाओं की रक्षा की जाती थी। वृन्दावन, गोवर्धन और मथुरा के मन्दिरों को राजकीय सहायता दी जाती थी। शहंशाह अहमदशाह के एक दस्तखती फरमान से यह मालूम होता है कि मुसलमान शासकों की ओर से मन्दिर के खर्च के लिये रुपया भी मिलता था.
अकबराबाद सूबे के अछ्नेरा नामक क़स्बे के किसानों और जमींदारों के नाम शहंशाह अहमदशाह के 
फरमान के जरिए “17 बीघा जमीन बिला लगान (माफी) शीतलदास वैरागी (मन्दिर के पुजारी) के नाम धर्मादे में दी जाती है, जिससे वह देवता के भोग और ठाकुर जी के खर्च का बोझ सम्भाल सकें। अछनेरा बाजार के चौधरी को यह मालूम होना चाहिए कि हर एक गाडी अनाज पर पाव सेर ठाकुर जी के लिए रखा जाए और वैरागी जी को जरूर मिल जाए. 
     

“खुलासतुल तवारीख” के लेखक बटाला के सुजानराय ने थानेश्वर के सालाना हिन्दू मेले और नहान के सम्बन्ध में एक दिलचस्प घटना बयान की है:
       

जब सिकन्दर लोदी ने इस मेले को बन्द करने का इरादा जाहिर किया, तो दरबार के मशहूर मौलवी और आलिम फाजिल मियाँ अब्दुल्ला अजोधी ने इस बात का जोरदार विरोध करते हुए कहा कि मन्दिरों का गिरवाना और नदी और तालाब किनारे पुराने ज़माने से होने वाले नहान को बन्द करना क़ुरान और शरीअत के खिलाफ है.
सिकन्दर लोदी गुस्से से लाल होकर एक नंगी तलवार लेकर उसपे झपट पडा कि “तू बुतपरस्तों की तरफदारी करता है?” उस आलिम ने हिम्मत के साथ जवाब दिया “मैं बादशाह सलामत को शरीअत का हुक़्म बता रहा था। अब आपकी मरज़ी है, चाहे मानें या न मानें।“ बादशाह के उपर इस बात का बडा असर हुआ। उसका गुस्सा शांत हुआ और फिर कभी उसने हिन्दू मेले को बन्द करने का इरादा न किया।“
      

मुस्लिम शासनकाल में हिन्दुओं और मुसलमानों, सभी को नागरिकता के पूरे अधिकार प्राप्त थे। लोगों के मालिकाना हक़ की कद्र की जाती थी। यदि कोई जमीन ली जाती थी तो मुआविज़ा दिया जाता था, जैसे ताज के लिए ली गई जमीन का मुआविज़ा दिया गया। इंसाफ के मामले में हिन्दू और मुसलमानों में कोई फर्क़ नहीं था। जहांगीर के शासनकाल में एक हिन्दू दुकानदार और एक सय्यद मुसलमान में किसी सामान के दाम या किसी मजदूर की मजदूरी के बारे में झगडा हो गया। थोडी देर में इस आपसी झगडे ने आपसी बलवे की शक्ल ले ली.
कुछ लोग मारे गए जिनमें गिरधर कछ्वाह नामक एक सरदार भी थे। बारहा के सय्यद कबीर पर मुल्जिम होने का शक़ किया गया। तुरंत कैद करके वह जैल भेज दिया गया और जाँच पडताल के बाद 1018 हिजरी में उसको फाँसी दे दी गयी।“ औरंगज़ेब भी किसी को बलात मुसलमान बनाना पसन्द नहीं करता था.
“मासरये आलमगीर” में उसकी हुकूमत में मुसलमान बनाए गये लोगों की फेहरिस्त है। इसे देखकर ऐसे सब बयान, कि औरंगज़ेब तलवार के बल पर मुसलमान बनाता था, झूठे और बेबुनियाद साबित होते हैं. 
         

जलालुद्दीन खलजी ने कहा-“ हमेशा से हिन्दू पूजा करते आ रहे हैं। वह अपना मज़हबी काम आजादी से करते हैं। मैं उन्हें हमेशा अपने महल के पास ही जमुना के किनारे गाते-बजाते सुनता हूँ।“
सुलतान जलालुद्दीन ने हिन्दुओं की तरफ से अपने नरम रूख को बदलने से साफ इंकार कर दिया। बरनी ने लिखा है कि गद्दी पर बैठने से पहले एक हिन्दू (मन्दहार) ने जलालुद्दीन खलजी पर वार करके उसे चोंट पहुँचाई पर उसने उससे कोई बदला नहीं लिया और गद्दी पर बैठने के बाद जलालुद्दीन ने अपने उपर हमला करने वाले इस हिन्दू को मलिक खुर्रम के मातहत एक लाख जीतल तंख्वाह पर वकीलदार मुकर्रर किया. 
   

 “तारीख-ए-फिरोजशाही,” “फत्वा-ए-जहांगीरी,” “रिहला” और “मसालिकुल अबसार” आदि ग्रंथों को गौर से पढने से यह मालूम होता है कि यह इतिहास की द्रृष्टि से बिलकुल गलत है कि मुसलमानी हुकूमत में हिन्दुओं की हालत लकडहारों और पानी भरने वालों की सी थी। रिहला ने इसे बिलकुल गलत साबित किया है। इब्ने बतूता ने लिखा है कि एक हिन्दू सरदार ने काज़ी की अदालत में सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक़ के खिलाफ मुक़दमा दायर किया। मुहम्मद बिन तुगलक़ बुलाया गया और बक़ायदा मुक़दमे की सुनवाई के बाद हिन्दू के पक्ष में फैसला हुआ और सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक़ ने फैसले के मुताबिक़ वादी को संतुष्ट किया। इससे यह साबित होता है कि मुसलमानी हुकूमत में हिन्दू अपनी शिकायतों को दूर करा सकते थे। इब्ने बतूता के ज़रिये हमें मालूम होता है कि क़ायदे क़ानून को मानने वाले हिन्दुओं और मुसलमानों में अच्छा रिशता था.
 लहौर के मुसलमान नवाब अमीर हुलाजन की गुलचन्द नाम के एक हिन्दू से दोस्ती थी। मुहम्मद बिन तुगलक़ ने एक हिन्दू रतन को सिन्ध का सूबेदार मुक़र्रर किया था। सुल्तान ने बहुत से हिन्दुओं को इसी तरह मदद दी थी। फरिश्ता ने लिखा है कि गुलबर्गा किले के रक्षक मीरन राय शाही फौज के बहुत विशवासपात्र अफ्सर थे। बरनी से मालूम होता है कि हिन्दू सरदार मुसलमान अमीरों के कन्धे से कन्धा भिडाकर चलते थे। हिन्दू सरदारों के पास घोडे थे, वह शानदार मकानों मे रहते थे, भडकीले कपडे पहनते थे और गुलाम रखते थे। राजधानी में भी हिन्दू सम्मान और इज़्ज़त से देखे जाते थे और उन्हें “राय” “ठाकुर” “महंत” और “पंडित” आदि कहकर आदर से पुकारा जाता था। उन्हें अपने धार्मिक ग्रंथों और संस्कृत पढने की पूरी आजादी थी. 
        

फिरोजशाह तुगलक़ के समकालीन अफीक़ नामक इतिहासकार ने उसकी हुकूमत में रैयत की खुशहाली का बयान करते हुए लिखा है- “उनकी औरतें आमतौर से सोने और चाँदी के गहने पहनती थीं। हर रैयत के यहाँ साफ सुथरी फुलवाडी और अच्छे पलंग होते थे। “कट्टर से कट्टर इतिहासकार इस बात को मानेगा कि फीरोजशाह तुगलक़ की हुकूमत में हिन्दुओं और मुसलमानों, दोनों को समान लाभ था.
मुर्शिद कुली खाँ ने, जिस ज़माने में वह बंगाल के अन्दर औरंगज़ेब का वायसराय था, अपने माल के सब अफ्सर और वज़ीर विशवस्त हिन्दू ही मुकर्रर किए। वह सब बातों में अपने इन हिन्दू सलाहकारों की राय से ही काम किया करता था। ब्रेड्ले बर्ट ने लिखा है कि मुरशिद कुली खाँ का वज़ीर जसवंत राय बहुत बुद्धिमान शासक था और माल और खज़ाने के मोहकमों का बहुत बडा जानकार था और देश की तिजारत को बढाने की उसने शक्तिभर कोशिश की। मुर्शिद कुली खाँ ने उँचे से उँचे फौजी ओहदे भी हिन्दुओं को दे रखे थे। लाहोरीमल और दलीप सिंह उसके मशहूर सेनापति थे। जमींदारों में से रामजीवन, दयाराम और रघुराम समय समय पर बहुत जिम्मेवारी के सैनिक पदों पर रह चुके थे।इतिहास से साफ पता चलता है कि 13 वीं सदी से लेकर प्लासी की लडाई तक मुस्लिम शासनकाल में बंगाल के हिन्दुओं को कभी भी यह महसूस करने का मौका नहीं मिला कि उनके उपर किसी विदेशी की हुकूमत है.

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