Wednesday 28 March 2018

कब कितना होना चाहिए वजन ?

एस एम फ़रीद भारतीय
उम्र के हिसाब से जानें कितना होना चाहिए लड़के और लड़की का वजन

जिस तरह हेल्दी रहने के लिए सही डाइट का पता होना जरूरी है, उसी तरह आपको अपना सही वजन
भी पता होना चाहिए, वजन कम या ज्यादा होने पर आपको कई हेल्थ प्रॉब्लम हो सकती है। इसलिए हर किसी को उम्र के हिसाब से अपना सही वजन रखना

Tuesday 27 March 2018

सैफ़ी नाम बड़ा ओर दर्शन छोटे ?

43 वाँ सैफ़ी डे नाम बड़े ओर दर्शन छोटे ? कहावत सुनी है तब आज समझ भी लें ??
दोस्तों ओर अज़ीज़ साथियों माज़रत के साथ कहना चाहता हुँ, ये रॉय ओर सोच मेरी अपनी रॉय ओर सोच है किसी को दुख पहुंचाना मेरा मक़सद नहीं है!
मुझे जब व्हाट्सऐप पर सैफ़ी नाम से ग्रुप बनाकर जोड़ा गया ओर

Saturday 24 March 2018

फ़ेसबुक डॉटा लीक मामला क्या ?

फेसबुक डाटा लीक मामला: कैंब्रिज एनालिटिका को कांग्रेस को हराने के लिए गुजरात के व्यापारी ने दिया था पैसा! सनसनीखेज खुलासे के बाद राहुल गांधी ने BJP पर लगाया ‘झूठ की फैक्ट्री’ चलाने का आरोप
ब्रिटिश कन्सल्टिंग कंपनी कैंब्रिज एनालिटिका द्वारा पांच करोड़ फेसबुक यूजर्स की जानकारी चुराने का मामला भारत में राजनीतिक रंग ले चुका है। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस आपस में भिड़ी हुईं हैं। बुधवार (21 मार्च) को दोनों पार्टियों

Wednesday 7 March 2018

क्या है तुर्की और उस्मानिया सलतनत ?

उस्मानी साम्राज्य मंगोलों का प्रभाव समाप्त होते ही आटोमन साम्राज्य की स्थापना हुई जिसका प्रथम सम्राट् उसमान था। इस समय टर्की की सीमाओं में बहुत विस्तार हुआ।
1516 और 1517 में क्रमश: सीरिया और मिस्र जीत लिया गया। सुलतान सुलेमान के शासनकाल में एशिया माइनर,
कुछ अरब प्रदेश, उत्तरी अफ्रीका , पूर्वी भूमध्यसागरीय द्वीप, बालकन, काकेशस और क्रीमिया में टर्की का प्रभुत्व था। 18वीं और 19वीं शताब्दियों में राष्ट्रीयता के उदय से टर्की की सीमाएँ संकुचित होती गईं और उसके द्वारा अधिकृत प्रदेश एक एक कर स्वतंत्र होते गए।
राजशाही का अन्त- सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में रूस से शत्रुता आरंभ हुई और १८५४ में क्रीमिया का युद्ध हुआ।
1839 में व्यापक सुधार आंदोलन आरंभ हुआ, जिससे सुलतान के अधिकर नियंत्रित कर दिए गए। इसी आशय का एक संविधान 1876 में पारित हुआ, किंतु एक वर्ष तक चलने के बाद वह स्थगित हो गया। तब वहाँ अनियंत्रित राजतंत्र पुन: स्थापित हो गया।
1908 में युवक क्रांति हुई, जिसके बाद 1876 का संविधान फिर लागू हुआ। 1913 में सुलतान मेहमत शासन का अध्यक्ष बना। प्रथम विश्वशुद्ध के समय टर्की के नेताओं ने जर्मनी का साथ दिया। इस युद्ध में टर्की पराजित हुए। युद्ध- विराम-संधि के होते ही अनबर पाशा और उसके सहयोगी अन्य शीर्षस्तरीय नेता टर्की छोड़कर भाग गए। एशिया माइगर आदि क्षेत्र ब्रिटेन, फ्राँस, ग्रीस और इटली में बटँ गए।
1919 में ग्रीस ने अनातोलिया पर आक्रमण किया, किंतु मुस्तफा कमाल अतातुर्क (कमाल अतातुर्क) के नेतृत्व में हुए संघर्ष में (1922) ग्रीस पराजित हुआ। सुलतान का प्रभाव क्षीण होने लगा और अंकारा में मुस्तफा कमाल के नेतृत्व में व्यापक मान्यताप्राप्त राष्ट्रीय सरकार की स्थापना हुई। 1923 की लासेन संधि के अनुसार टर्की का प्रभुत्व एशिया माइनर तथा थ्रेस के कुछ भाग पर मान लिया गया। 29 अक्टूबर 1923 को टर्की गणराज्य घोषित हुआ।
इसके पश्चात् टर्की में अतातुर्क सुधारों के नाम से अनेक सामाजिक राजनीतिक और विधिक सुधार हुए। गणतांत्रिक संविधान में धर्मनिरपेक्षता, धार्मिक संगठनों के उत्मूलन और स्त्रियों के उद्धार आदि की व्यवस्था हुई। अरबी लिपि के स्थान पर रोमन लिपि का प्रचलन घोषित हुआ। मुस्तफा कमाल की मृत्यु (1938) के पूर्व तक उसके नेतृत्व में रिपब्लिकन पीपुल्स पार्टी अत्यधिक प्रभावशाली और मुख्य राजनीतिक संगठन के रूप में रही।
युद्ध और उपरांत आधुनिक तुर्की के संस्थापक मुस्तफा कमाल पाशा प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की ने जर्मनी का साथ दिया। 1919 में मुस्तफ़ा कमाल पाशा (अतातुर्क) ने देश का आधुनिकीकरण आरंभ किया। उन्होंने शिक्षा, प्रशासन, धर्म इत्यादि के क्षेत्रों में पारम्परिकता छोड़ी और तुर्की को आधुनिक राष्ट्र के रूप में स्थापित किया।
द्वितीय विश्वयुद्ध में टर्की प्राय: तटस्थ रहा। 1945 में यह "संयुक्त राष्ट्रसंघ" (यू. एन. ओ.) का सदस्य बना। 1947 में संयुक्त राज्य अमरीका ने टर्की को रूस के विरुद्ध सैनिक सहायता देने का वचन दिया। वह सहायता अब भी जारी है। इस समय टर्की नाटो, सेंटो और बाल्कन पैक्ट का सदस्य है।
मुस्लिम-टर्की धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता का पूरा आश्वासन है। मुसलमानों में सुन्नी बहुसंख्यक हैं। तुर्की यहाँ प्राय: सार्वभौम भाषा है। इसमें वर्णों की रचना ध्वनि पर आधारित है। 1928 के भाषासुधार आंदोलन से अरबी लिपि के स्थान पर रोमन लिपि का प्रयोग होने लगा है।
1960 तक तत्कालीन प्रधान मंत्री मेंडरीज (Menderes) ने विधिक स्वातंत्र्य, भाषा, लेखन और प्रेस स्वातंत्र्य पर रोक लगा दी। इसके विरुद्ध प्रबल आंदोलन हुआ। 27 मई 1960 को प्रधान मंत्री मेंडरीज़ और राष्ट्रपति बायर (Bayar) "नेशनल यूनिटी कमिटी" (National unity committee) द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए। जनरल गुरसेल (Gursel) कार्यवाहक अध्यक्ष तथा प्रधान मंत्री के रूप में कार्य करने लगे। ग्रांड नेशनल असेंबली की स्थापना हुई और 1961 में जनरल गुरसेल राष्ट्रपति निर्वाचित हुए।
1961 के संविधान में टर्की पुन: प्रजातांत्रिक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य बना, जिसमें जनअधिकारों तथा विधिसम्मत न्याय की पूर्ण व्यवस्था है। राष्ट्र पर किसी एक व्यक्ति, समूह या वर्ग का अधिकार नहीं है।

टर्की की आधी राष्ट्रीय आय का स्रोत कृषि है। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् उद्योगीकरण की ओर राष्ट्र की प्रवृत्ति बढ़ी। कृषि के क्षेत्र में मशीनों के प्रयोग ने विशेष क्रांति को जन्म दिया। 1960 में सैनिक शासन स्थापित होने के समय टर्की की आर्थिक स्थिति संतोषजनक नहीं थी। विकास-योजनाओं को तेजी से बढ़ा देने के कारण टर्की ऋणग्रस्त हो गया। व्यापार में घाटे की स्थिति उत्पन्न हो गई। इसके बाद आर्थिक उन्नति के लिए व्ययों में कटौती, मूल्यनियंत्रण का उन्मूलन, करों में संशोधन आदि आवश्यक कदम उठाए गए।
टर्की में प्राकृतिक साधन तो प्रचुर मात्रा में हैं, किंतु अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए उसे मशीनी उद्योग में अधिक व्यय करना पड़ता है। इसके निमित्त उसे पाश्चात्य देशों से, विशेषकर अमरीका से, ऋण भी मिलता है। 1990 के दशक में देश में मुद्रास्फीति 70% तक बढ़ गई थी.

ख़िलाफते_उस्मानिया-
1258 ई0 में खिलाफते अब्बासिया का तातारियों के हाथों कत्लेआम के साथ खातमा हुआ और आखिरी अब्बासी खलीफा मुस्तअसिम बिल्लाह को जानवर की खाल में लपेट कर घोडे दौड़ा कर कुचल दिया गया !

है अयां युरिश ए तातार के अफसाने से.
पासबां मिल गए काबे को सनम खाने से !

बाद में यही तातारी कौम मुसलमान हो गई और तुर्क नस्ल के नाम से मशहूर हुई, इन्हीं तुर्को में फिर तीन शाही खानदान अलग-अलग इलाकों में हुकूमत पजीर हुए.
1. तुर्काने तैमूरी जिसकी नस्ल में बाबर पैदा हुआ और भारत में मुगल साम्राज्य की बुनियाद डाली।
2.तुर्काने सफवी जिसकी हुकूमत ईरान में क़ायम हुई
3. तुर्काने सलजूकी इस खानदान की बहुत मजबूत हुकूमत तुर्की के इलाके में इस्ताम्बूल (कुस्तुनतुनिया ) को छोड़कर आसपास क़ायम हुई !
वक्त के साथ साथ सलजूकी हुकूमत जब कमजोर होने लगी तो कई छोटी छोटी रियासतों में बंट गई, आसपास मौजूद छोटे सुल्तान सलजूकी सुल्तान पर हमले करने लगे और सन् 1300 ई0 तक सेल्जुकों का पतन हो गया था !
इन्ही रियासतों में मगरिबी अनातोलिया की छोटी सी रियासत में अल तुगरल बेग नाम का एक तुर्क सुल्तान था !
एक बार जब वो एशिया माइनर की तरफ़ कूच कर रहा था तो रास्ते में एक जगह पर दो छोटी फौजों को जंग करते हुए देखा, जिसमें से एक तरफ की फौज शिकस्त के करीब थी, उसने अपनी चार सौ घुड़सवारों की सेना को किस्मत की कसौटी पर आजमाया, उसने हारते हुए पक्ष का साथ दिया और लडाई जीत ली, उसने जिनका साथ दिया वे सल्जूक थे !
सल्जूक सुल्तान ने अल तुगरल बेग को तोहफा बतौर अपनी बेटी निकाह में दी, उसके बाद सल्जूकी सल्तनत का बाकी बचा हिस्सा भी तुगरल बेग की सुल्तानी में आ गया, यह सन 1288 का वाकया है !
तुगरल बेग के बाद उसका बेटा उसमान बेग सुल्तान बना और उसने 1299 में उस्मानी साम्राज्य की बुनियाद रखी, इसी को अंग्रेजी में ऑटोमन, Ottoman Empire कहा जाता है !
पन्द्रहवीं और सोलवी सदी में उस्मानी साम्राज्य का विस्तार हुआ, उस दौरान यूरोप और एशिया के बीच के तिजारती रास्तो पर कंट्रोल की वजह से यह सल्तनत और मजबूत होती गई !
1453 ई0 में उस्मानी सुल्तान मुहम्मद फातेह ने कुस्तुनतुनिया का मुहासरा किया और कुछ दिनों की लडाई के बाद कुस्तुनतुनिया ( इस्ताम्बूल ) फतह कर लिया जो कि बाजनतीनी सल्तनत का दारुल खिलाफा चला आ रहा था !
यहां एक बात क़ाबिले गौर है कि बाजनतीनी सल्तनत में रोमन कैथोलिक और ग्रीक ओर्थोडाक्स के फिरकों में बहुत सालों से फिरके वाराना लडाई होती आ रही थी, रोमन कैथोलिक, ग्रीक ओर्थोडाक्स पर हावी रहते थे, जब सुल्तान मुहम्मद फातेह ने बाजनतीनी सल्तनत पर हमला किया तो ग्रीक ओर्थोडाक्स ने मुसलमानों का साथ दिया था, इसलिए सुल्तान ने ग्रीक चर्च को मज़हबी मामलात में ओटोनोमी दी, बदले में चर्च ने उस्मानी सल्तनत की बरतरी कुबूल कर ली !
वक्त के साथ साथ यह सल्तनत और फैलती चली गई।

सुल्तान सलीम (1512 - 1520) ने मशरिकी और जनूबी मोर्चों पर चल्द्रान की लड़ाई में फारस के सफवी खानदान के शाह इस्माइल को हराया और इसके बाद उसने मिस्र में उस्मानी सल्तनत की तौसीअ की !
फिर वो वक्त भी आया जब उसमानी सल्तनत बढते हुए बगदाद और हिजाज तक फैल गयी, तब जाकर सन 1520 ई0 में उसमानी सल्तनत, खिलाफते उसमानिया में तब्दील हो गई !
जब सन 1453 में सुल्तान मुहम्मद फातेह ने कुस्तुनतुनिया फतेह किया तो ग्रीक ओर्थोडोक्स चर्च ने मुसलमानों का साथ दिया था इसलिए सुल्तान मुहम्मद ने चर्च को मजहबी मामलात में ओटोनोमी दे रखी थी, इसके अलावा भी उसमानी सल्तनत की तरफ से ईसाइयों को बहुत सी सहूलियतें दी गई, सुल्तान मुहम्मद ने जितनी भी मस्जिदें बनाई, हर मस्जिद के साथ एक चर्च भी सरकारी खर्च पर बनाये !
उसमानी सल्तनत ने कानून बनाया हुआ था कि ईसाई आबादियों से भी फौज की भर्ती अनिवार्य थी, जबकि इस्लामी उसूल से यह जरा हटकर पालिसी थी !
यूगोस्लाविया के इलाके से बड़ी तादाद में फौजी भर्ती की गई, जब ये फौजी मुसलमानों के साथ घुल मिल कर रहे तो इस्लामी तालीमात से भी वाकिफ़ होने लगे, नतीजा यह हुआ कि बोस्निया में एक साथ दस लाख की आबादी मुसलमान हो गई !
जैसे जैसे वक़्त गुज़रता रहा, इन बोस्नियाई मुस्लिम की आबादी भी बढती गई, इससे आसपास मौजूद रोमन कैथोलिक और रशियन ओर्थोडोक्स ईसाइयों में मुसलमानों की नफरत जोर पकड़ने लगी, जब तक उसमानी खिलाफत अपने उरूज पर रही, इन ईसाइयों की हिम्मत नहीं हुई किसी तरह का इकदाम करने की, मगर जब उसमानियों में कमजोरी आना शुरू हुई तो ये ईसाई, मुस्लिम आबादियों पर हमले करने लगे !
जब उसमानी खिलाफत उरूज के बाद, ढलान से गुजर रही थी तो रूसियों ने हमले करने शुरू कर दिए और सन 1853 में बाक़ायदा रूसियों से जंग का सिलसिला शुरू हो गया, उसमानी खिलाफत के इलाकों में मौजूद रशियन ओर्थोडोक्स ईसाइयों के दिल में मुसलमानों की शदीद नफ़रत घुसी हुई थी, ये भी रूसियों की मदद करते थे !
इसके नतीजे में सन 1911 की मशहूर बल्कान वार हुई, जिसमें उसमानियों की शिकस्त हुई और बोस्निया, क्रोएशिया वगैरह की रियासतें, रूस के कब्जे में चली गई, मगर इस जीत से भी रूसियों को तसल्ली नहीं हुई, उधर उसमानी अपने खोये हुए इलाके वापस चाहते थे !
फिर यूरोप की सियासत में ऐसा भूचाल आया कि 1914 में पहली आलमी जंग शुरू हो गई, इसमें उसमानी खिलाफत ने जर्मनी और इटली के साथ धुरी राष्ट्रों का मोर्चा बनाया !
बहरहाल इस जंग में धुरी राष्ट्रों की बुरी तरह शिकस्त हुई और सबसे ज्यादा नुकसान उसमानी खिलाफत को उठाना पड़ा, नतीजे में उसमानी खिलाफत के टुकड़े टुकड़े कर दिए गए, कुछ इलाके ब्रिटेन के कब्जे में गये, कुछ फ्रांस के कब्जे में गए, मगर सबसे ज्यादा रियासतें रूसियों के कब्जे में चली गई, जो कि अब सोवियत संघ बन चुका था !
ये तमाम रियासतें 1989 में सोवियत यूनियन के बिखरने के बाद रूसियों से आजाद हो पायी, बल्कि दागिस्तान और चेचनियां तो अभी भी रूसियों के कब्जे में है जो कि साबिका उसमानी खिलाफत का हिस्सा है !
सन् 1912 में रूस और फ्रांस में यह समझौता हुआ कि अगर बाल्कन के सवाल पर जर्मनी या ऑस्ट्रिया, रूस से जंग करेंगे तो फ्रांस रूस के साथ रहेगा, फ्रांस का एतमाद हासिल हो जाने पर बाल्कन में रूस बेरोक टोक दखलंदाजी करने लगा !
दूसरे रूस के उकसाने पर चार बाल्कन रियासतों ने मिलकर सन् 1912 में एक खूफिया समझौता किया, ये रियासतें थी, यूनान, बल्गेरिया, मांटीनीग्रो, सर्विया !
इस वक्त आटोमन एम्पायर जवाल पजीर थी और चारों तरफ इस्लाम दुश्मनों की साजिशें फैली हुई थी, बाल्कन रियासतों के समझौते का मकसद था कि तुर्की खिलाफत का यूरोप से खात्मा दें और इसके बाद जीते हुए इलाकों को आपस में बाँट लें !
यह समझौता हो जाने पर बाल्कन रियासतों ने एक बहाना लेकर तुर्की के खिलाफ 17 अक्टूबर 1912 को एलाने जंग कर दिया, इस जंग में तुर्की खिलाफत की बहुत बुरी तरह शिकस्त हुई और मजबूर होकर तुर्क सुल्तान ने सुलह की पेशकश की,
दोनों तरफ के नुमाइंदों ने रूमानिया की राजधानी बुखारेस्ट में 10 अगस्त 1913 को एक ट्रीटी की, इस बुखारेस्ट के समझोते के जरिये बाल्कन रियासतों में कुछ अरसे के लिए अमन क़ायम हो गया, बाल्कन वार के नतीजे में सर्बिया तथा यूनान सबसे ज्यादा फायदे में रहे क्योंकि खिलाफते उसमानिया के यूरोपीय इलाकों का सबसे बड़ा हिस्सा इन्हीं को मिला !

बाल्कन वार का एक नतीजा यह हुआ कि यूरोप में तुर्की खिलाफत का लगभग खात्मा हो गया और बाल्कन में ईसाई रियासतों की ताकत में इजाफा होना शुरू हो गया, इनमें आपस में कम्पटीशन होना भी शुरू हो गया जिसके नतीजे में पहली आलमी जंग की बुनियाद रखी गई !
बाल्कन रियासतों की बढती ताकत की वजह से जर्मनी और आस्ट्रिया को खतरे लाहक होने लगे, ये दोनों बुखारेस्ट की संधि का खात्मा करना चाहते थे, उनको केवल मौके की तलाश थी, जल्द ही उनको मौका फराहम हो गया जब आस्ट्रिया के राजकुमार फर्डिनेन्ड और उसकी पत्नी का कत्ल सरायेवो में दिन दहाड़े एक सर्ब के हाथों 28 जून 1914 को हो गया और पहली जंगे अजीम की शुरुआत हो गई !
इस कत्ल के वाकये के एक महीने के बाद ऑस्ट्रिया ने सर्बिया के खिलाफ एलाने जंग किया, रूस, फ्रांस और ब्रिटेन, सर्बिया की तरफ से और जर्मनी आस्ट्रिया की तरफ से जंग में कूदे, 1917 में अमेरिका भी ब्रिटेन फ्रांस व सर्बिया के साथ आ गया !
यहां आटोमन एम्पायर के सुल्तान को भी मौका मिला अपने खोये हुए इलाके वापस लेने का, लिहाजा कुछ अरसे बाद, जर्मनी और आस्ट्रिया की तरफ से तुर्की भी इस जंग की शामिल हो गया !

बहरहाल, इस जंगे अजीम में ब्रिटेन, फ्रांस और अमरीका के गठजोड़ ने फतह हासिल की और जर्मनी तुर्की आस्ट्रिया ( सेन्ट्रल पावर्स ) को बुरी तरह शिकस्त मिली, जर्मनी और आस्ट्रिया की दरख्वास्त पर 11 नवम्बर 1918 को जंग के खात्मे का ऐलान हुआ, इस जंग में सबसे ज्यादा नुकसान खिलाफते उसमानिया को हुआ और अजीम आटोमन एम्पायर के हिस्से बखरे करके यूरोपियन मुल्कों ने आपस में बांट लिया, बस ले देकर छोटा सा तुर्की ही बाकी रहा !
जैसा कि आपने पढ़ा था कि खिलाफते उसमानिया जैसी अज़ीम हुकूमत उन्नीसवीं सदी से ही ज़वाल पज़ीर हो चुकी थी और इसी सदी के आखिर में 1890 में फ्री मेसन्स जो कि यहूदी तहरीक ज़ायोनिज़्म का ही एक औज़ार है, इसने आटोमन एम्पायर में अपने पंजे गाड़ने शुरू कर दिए थे, फ्री मेसन्स ने नौजवान तुर्को को भड़का कर, इत्तेहाद व तरक्की कमेटी (İttihat ve Terakki Cemiyeti'') नाम से एक मूवमेंट शुरू की इसका मकसद खिलाफत को उखाड़कर जम्हूरियत को लागू करना था !
इसके नेताओं ने सुल्तान अब्दुल हमीद के खिलाफ बग़ावत करायी, सुल्तान अब्दुल हमीद ने इन लोगों के साथ सख्त बरताव किया, सारे नेता पकड़ लिए गए और उनमें से बहुतों को मुल्क बदर कर दिया गया, कुछ लोग तो डरकर खुद ही तुर्की छोड़कर भाग खड़े हुए, ये लोग भागकर जेनेवा पंहुचे और वहीं से सुलतान के खिलाफ तहरीक चलाने लगे, इन्ही हालात में तुर्की से भाग भाग कर बाग़ी आटोमन एम्पायर के बाहर पनाह लेने लगे और जेनेवा इन बागियों का मरकज़ बनता गया !
इन बाग़ियों में अहमद रिजा मुरादबे नाम का एक आदमी जो पेरिस या यूरोप के दूसरे शहरों में रहकर अखबरों व मैगज़ीनो के ज़रिए सुल्तान के खिलाफ प्रोपेगण्डा फैलाता था और बाद में यही शख्स इन बाग़ियों का नेता चुन लिया गया था !
सन 1902 ई. में ओटोमन एम्पायर के बाग़ियों का एक बहुत बड़ा सम्मेलन पेरिस में हुआ, इसकी खास बात यह रही कि इसमें, यूनानी, यहूदी, आरसीनियन और तुर्क बाग़ियों के अलावा, अरब इलाकों के कुछ मिलिटेंट नेता भी शरीक हुए जिनके ज़हनो में, तुर्को के लिए नफ़रत और गुस्सा भरा हुआ था, हालांकि इन अरबों की नाराज़गी की भी बड़ी माकूल वजूहात थी लेकिन वो एक अलग सब्जेक्ट है !
बहरहाल इस सम्मेलन में इन सबको मिलाकर एक यूनियन बनाने का अहद किया गया और उसी अहमद रिजा को इसका नेता बनाया गया, तुर्की में इसी यूनियन के हाथों बग़ावत करायी जानी थी, सबसे पहले तुर्की फौज में गद्दारी के बीज बोए गए, सुल्तान के खास फौजी अफसरों को फोड़ा गया, बग़ावत की शुरुआत इन्हीं फौजियों ने करनी थी !
1906 ई. में इन फौजियों ने कई व्रिदोह किए, लेकिन सुल्तान अब्दुल हमीद दरगुज़र से काम लेते रहे, वजह थी कि अवाम में भी फ्री मेसन्स ने अपना जाल बिछाया हुआ था और कहीं कहीं अवामी सतह पर भी बाग़ियों को सपोर्ट किया जा रहा था, इसी वजह से सुल्तान को नरमी से काम लेना पड़ा, होते होते बग़ावत की आग बड़े जोर से फैलने लगी!
1908 ई. के जुलाई में बाग़ी अफसरों ने यह ऐलान कर दिया कि थर्ड आर्मी की टुकड़ी इस्ताम्बूल पर हमला करेगी, लेकिन हालात के मद्देनज़र सुल्तान अब्दुल हमीद अब भी कोई सख्त इकदाम से परहेज़ कर रहे थे, बाग़ियों ने इससे पूरा फायदा उठाया और 23 जुलाई को बाग़ियों ने एक सरकार का गठन किया और तुर्की लिए एक संविधान का ऐलान कर दिया गया !
सुल्तान को अब जाकर अंदाज़ा हुआ कि नरमी बरतने का उल्टा नुकसान हो गया है लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी, फौज में में ही बग़ावत की वजह से अब फौज से भी किसी तरह की उम्मीद ना रही और बेहद लाचारी की कैफियत पैदा हो गई थी.
आखिर सुल्तान ने बिगड़े हुए हालात को संभालने की कोशिश की ओर 24 जुलाई, 1908 को एक सरकारी ऐलान किया गया, जिसमें सुल्तान ने जम्हूरियत संविधान को लागू करने का वादा किया और उसमें संसद के गठन की बात भी थी, साथ ही प्रेस पर से पाबन्दी भी हटा ली गई !
कुल मिलाकर अब सुल्तान अब्दुल हमीद, पूरी तरह से बाग़ियों के कब्जे में आ गये थे, यह इत्तेहाद व तरक्की कमेटी की सबसे बड़ी कामयाबी थी !
इस सारे मूवमेंट को "युवा तुर्क आंदोलन " के नाम से जाना जाता है, उसी वक़्त से पूरी दुनिया में जहां भी कोई राजनीतिक क्रांति जैसी कोई जद्दोजहद की जाती है... उसके लीडरों को युवा तुर्क का लक़ब दिया जाता है, भूत पूर्व प्रधान मंत्री चन्द्र शेखर को इसी वजह से युवा तुर्क कहा जाता था !

Sunday 4 March 2018

माणिक सरकार नहीं ईमानदारी हार गई ?

सच मैं माणिक ने साबित कर दिया कि वो अमूल्य हैं !
एस एम फ़रीद भारतीय
देश का सबसे गरीब मुख्यमंत्री आज हार गया लोग यही कहकर खुशियां मना रहे हैं, मनानी भी चाहिए, क्यूंकि आज ये हार माणिक सरकार की नहीं ईमानदारी की हार है।
माणिक जैसे लोग भी मुख्यमंत्री बन सकते हैं, जिनके पास आज तक अपना घर नहीं, कोई कार नहीं, कोई भी अचल संपत्ति नहीं, पांचाली भट्टाचार्या को साइकिल रिक्शा पर बैठकर बाजार जाते हुए देखना, त्रिपुरा के लोगों के लिए हमेशा एक आम सी बात रही.
माणिक सरकार की पत्री हैं पांचाली भट्टाचार्य, ये उस दौर का सच है जहां एक अदने से अधिकारी की बीबी भी करोड़ों की मालकिन

हिंदू ख़तरे मैं है कहने और कहकर डराने वालों से सवाल...?

दुनियां के मुस्लिम देश में रहने वाले हिंदुओं की संख्या (करीब करीब कुछ इस तरहां है)  इंडोनेशिया- 44,80,000 , मलेशिया- 20,40,000 ,...