Tuesday 21 February 2017

टीपू सुल्तान ओर शिवाजी को बदनाम करते हैं जाने क्यूं...?

एस एम फ़रीद भारतीय 

बिना स्वतंत्र शोध किये हुए महामहोपाध्याय डाक्टर हरप्रसाद शास्त्री ने अपनी इतिहास की पोथी में लिख दिया कि तीन हज़ार ब्राह्म्णों ने इसलिए आत्महत्या कर ली चूँकि टीपू सुल्तान उन्हें बलपूर्वक मुसलमान बनाना चाहता था, प्रो. श्रीकांतिया ने अपने शोधपूर्ण गवेषणा से यह सिद्ध किया है कि टीपू सुल्तान पर यह एक झूठा और बेबुनियाद आरोप था, उन्होनें 156 मन्दिरों की तालिका दी है जिन्हें टीपू सुल्तान ने जागीर दी थी, टीपू अंग्रेजी हुकुमत का परम शत्रु था, अंग्रेजों से वीरतापूर्वक लडते हुए उसे वीरगति प्राप्त हुई, कहीं टीपू का जीवन दूसरे स्वतंत्र्ताप्रेमियों के लिए आदर्श ना बन जाए इसलिए फर्ज़ी एतिहासिक ग्रंथों की रचना कर उसे धर्मान्ध घोषित किया गया.

शिवाजी         
औसत दर्जे के पढे लिखे लोगों का यह आम विचार है कि शिवाजी इस्लाम का दुश्मन था, और वह मुसलमानों का नामोनिशान मिटाकर भारत में शुध्द हिन्दू साम्राज्य कायम करना चाहता था, शिवाजी में मज़हबी तरफदारी बिलकुल नहीं थी, उसका साम्राज्य शुध्द भारतीय साम्राज्य था, उसमें हिन्दू, मुसलमान दोनों को यक़्साँ अधिकार थे, उसका साम्राज्य मराठा साम्राज्य था, जिसके संरक्षण में सब धर्म वाले अमन और मुहब्बत से रहते थे और जिसमें हिन्दू मुसलमान का कोई फर्क नहीं था.       

शिवाजी के निजी सेक्रेटरी मुल्ला हैदर थे, शिवाजी के सारे खुफिया दस्तावेज़ उसी के क़ब्ज़े में रहते थे, शिवाजी की सारी खत-किताबत उसी के सुपूर्द थी, शिवाजी की मृत्यु तक उसने वफादारी के साथ शिवाजी की नौकरी की, मगर शिवाजी के बेटे सम्भाजी की बद्सुलूकी से मुल्ला हैदर दिल्ली चला गये,
वहाँ मुगल दरबार ने उसे सदर क़ाज़ी के ओहदे पर बिठाया, एक मुसलमान फर्राश मदारी शिवाजी के साथ आगरा गया और उसी की मदद से शिवाजी आगरे के क़िले से बच कर निकल सके, शिवाजी के अफ्सरों और कमांडरों में बहुत से मुसलमान थे.          
कुछ मराठा इतिहासकारों ने यह साबित करने की कोशिश की है कि शिवाजी का मक़सद हिन्दू-पद-पादशाही कायम करना था। लेकिन “पूना-मज़हर” जिसमें शिवाजी के दरबार की कारवाइयाँ दर्ज हैं, उसमें सन 1657 में शिवाजी के अफसरों और जजों को मुकर्रर किया उनमें क़ाजी और नायब क़ाजियों को मुकर्रर का भी ज़िक्र है, जब मुस्लिम रियाया के मुकदमें पेश होते तो शिवाजी मुस्लिम काजियों के मशवरे से फैसले देते थे.
शिवाजी के मशहूर नेवल कमान्डरों में दौलत खां और दरिया खां सहरंग थे, जिस वक़्त वे लोग पदम दुर्ग की हिफाज़त में लगे हुए थे उस वक़्त सिद्दि की फौज ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया, शिवाजी ने अपने सूबेदार जिवाजी विनायक को उन्हें रसद और रुपया भेजने की हिदायत दी, जिसे उसने वक़्त पर नहीं भेजा, इसपर शिवाजी ने उसे बरखास्तगी और क़ैद का हुक़्म देते हुए लिखा कि- “तुम समझते हो कि तुम ब्राहम्ण हो इसलिए मैं तुम्हें तुम्हारी इस दगाबाजी के लिए माफ कर दूँगा, तुम ब्राह्मण होकर भी दगाबाज़ निकले और तुमने सिद्दी से रिश्वत ले ली, लेकिन मेरे नेवल कमाँडर कितने वफादार निकले कि अपनी जान पर खेलकर एक मुसलमान सुल्तान के खिलाफ उन्होंने मेरे लिए बहादुराना लडाई लडी.
“ खुद औरंगज़ेब के शिवाजी के नाम लिखे हुए पाँच पत्र अभी तक मौजूद हैं और सतारा के अजायबघर में पारसनीय के संग्रह में सुरक्षित हैं। इनमें से कई पत्र अफजल खाँ के वध के बाद लिखे गए थे और इन सब पत्रों में औरंगज़ेब ने शिवाजी को “मतीउल इस्लाम” अर्थात “इस्लाम का आज्ञाकारी” लिखा है। इन सब प्रमाणों के रहते हुए क्या कोई भी समझदार आदमी इस नतीजे पर पहुँच सकता है कि शिवाजी मुसलमानों से घृणा करते थे, उनका नामोंनिशान मिटा देना चाहते थे और भारत में शुध्द हिन्दू राज की स्थापना करना चाहते थे?    

बाह्य और आंतरिक सुरक्षा
खलजियों के उत्थान के लगभग 60 वर्ष पूर्व बर्बर मंगोल भारत की सरहद पर बवंडर की तरह मंडरा रहे थे। उन्होंने आमू दरिया और सीर दरिया के दोआब के इलाके अर्थात तुर्किस्तान, ईरान और अफगानिस्तान के समस्त समृद्ध शहरों को बरबाद कर दिया था। चंगेज़ खाँ और हुलाकू के बर्बर आक्रमणों से एशिया और यूरोप के देश थर्रा रहे थे। वह जहाँ जाते थे, पुरूषों को क़त्ल करते थे और औरतों को दासी बना लेते थे। क़त्ले आम से उन्हें खुशी मिलती थी। जो गिरोह मंगोलों के इस तूफान को रोक देता वही समस्त भारत के धन्यवाद का पात्र होता। हिन्दूओं की सरदारी राजपूतों के हाथ में थी। किंतू उनमें आपस में इतनी फूट थी और ग्रहयुद्ध से उन्हें इतना प्रेम था कि वह न तो मंगोलों से भारत की रक्षा के लिए लोगों को इकट्ठा कर सकते थे और न भीतरी प्रबन्ध का ही भार ले सकते थे.
        
वह राजपूत नहीं, मुसलमान थे जिन्होनें मंगोलों के आक्रमण से भारत की रक्षा की। अलाउद्दीन खलजी के समय मुसलमानों ने पिछले अनुभव को काम मे लाकर मंगोलों के आक्रमणों को रोक दिया। उसके बाद यह स्वभाविक था कि अलाउद्दीन खलजी के नेतृत्व में भारत में केन्द्रीय सत्ता संगठित होती।“
     
दूसरा महत्वपूर्ण कदम जो अलाउद्दीन ने उठाया वह देश के आंतरिक़ सुशासन का था। शहाबुद्दीन के हमले से सदियों पहले ग्राम पंचायतों का प्रबन्ध छिन्न-भिन्न हो चुका था। कानून और रिवाज की जगह स्वेच्छाचारिता ने ले ली थी। ऐसे व्यापक कुशासन के ज़माने में मुखिया लोग, यह देखकर कि कोई बडी शक्ती उनको दबाने वाली नहीं है, गाँव में खुदमुख्तार बन बैठे थे और गरीब रियाया को सताना शुरू कर दिया था। इन जातियों में उँची जाति के हिन्दू प्रमूख थे.

ऐसे हालात में एक बलवान हुकूमत ही गरीब क़ाश्तकारों को मुखियों के पंजों से छुडा सकती थी। भारतीय जनता को इन मुखियों से छुडाने का श्रेय श्री अलाउद्दीन खलजी को है। उसने इन उच्च जातिय मुखिया सामंतों के अधिकार छीनकर उनकी स्वेच्छाचारिता का अंत कर दिया और इस तरह देश के आंतरिक प्रशासन को दृढ करके आंतरिक सुरक्षा को भी मजबूत किया. 

जज़िया
एक नाम मात्र की रक़म जो जज़िया कहलाती थी, हुकूमत को देकर गैर मुसलमान इस्लामी हुकूमत के संरक्षण में अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा कायम रख सकते थे। हर मुसलमान अनिवार्य फौजी खिदमत के लिए मजबूर था, गैर मुसलमान जज़िया देकर फौजी सेवा से मुक्त हो सकता था, गैर मुसलमानों में भी पुजारी, विध्यार्थी, बेकार, असमर्थ, भिक्षु, अपाहिज, लँगडे, लूले, अन्धे स्त्री और बच्चे जज़िया कर से मुक्त थे जिनकी सम्पत्ती 200 दिरहम से कम होती थी वो भी जज़िया कर से मुक्त था। जो गैर-मुसलमान फौजी सेवा के लिए राज़ी हो जाते थे वह भी जज़िया कर से मुक्त थे. 

     अल्लामा शिबली ने अपनी किताब में मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच इस तरह की बहुत सी सन्धियों की नकलें दी हैं, जिनमें मुसलमानों की इस अनिवार्य फौजी सेवा और उसके बदले में उनके जज़िया वसूल करने का हक़, इन दोनों का ज़िक्र है। सन 12 हिजरी में खालिद बिन वलीद ने गैर-मुसलमानों के साथ जो सन्धि की उसमें यह शब्द आते हैं “सलूबा बिन नस्तोमा” और आपके क़बीले वालों के साथ मैनें जज़िया लेने और आपकी हिफाजत करने का अहदनामा किया है। इसलिए आपकी हिफाजत करना और आपके जान माल की सलामती हमारा फर्ज़ है। जब तक हम अपने इस फर्ज़ को पूरा करेंगें तब तक ही हमें जज़िया लेने का हक़ है। जब हम इस फर्ज़ को पूरा न कर सकेगें तो हमें जज़िया लेने का कोई हक़ नहीं होगा. 

अल्लामा शिबली के अनुसार, जज़िया से जो कुछ रूपया वसूल होता था वह फौज के लिए सामान खरीदने में, सरहदों की सुरक्षा में और किलेबन्दी करने में खर्च होता था। जज़िया की दर ढाई फ्रैंक सालाना से 30 फ्रैंक सालाना तक होती थी. 

जो मुसलमान फौजी खिदमत करने में लाचारी प्रकट करते थे उनसे भी उसी तरह जज़िया वसूल किया जाता था जिस तरह गैर-मुसलमानों से। मिसाल के तौर पर, मिस्र में वहाँ के मुसलमानों ने फौजी खिदमत से बरी किये जाने की दरख्वास्त की तो उनसे बजाए फौजी खिदमत के जज़िया वसूल किया जाने लगा. 

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