Thursday 16 September 2021

राजा महेंद्र प्रताप सिंह पर सियासत, मोदी जी देर हुई या जल्दबाज़ी...?

"एस एम फ़रीद भारतीय"
ये लेख थोड़ा बड़ा है मगर अच्छी तरहां समझने के लिए ये सब लिखना ज़रूरी था, पूरा पढ़ें और अपनी कीमती रॉय ज़रूर दें, राजा महेंद्र प्रताप सिंह बहुत पुराना और मशहूर नाम हिंदू मुस्लिम ही नहीं जाति एकता की मिसाल है ये नाम, आप जाट बिरादरी से ज़रूर थे मगर सभी बिरादर और छुआछूत से नफ़रत करते थे, संघ ने राजा महेंद्र प्रताप सिंह जी पर राजनीति की बुनियाद 2014 मैं ही रख दी थी, शायद पहले ही ये मालूम था कि आने वाले कृषि कानूनों का विरोध जाट नेता करेंगे, राजा मांफ़ी वीर नहीं बल्कि एक खुले मिजाज़ के दिलेर इंसान थे, चलिए जानते हैं चुनावी राजनीति मैं इस्तेमाल होने वाले इन महान इंसान की इंसानियत भरी दास्तान, जिनके बारे बीजेपी ने या तो जल्दबाज़ी कर दी या फिर बहुत देर हो गई...?



जब संघ के नेताओं की चाल को नाकाम कर दिया गया, मामला 2014 का है, जब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के सिटी स्कूल के समीप स्थित तिकोना मैदान में स्वतंत्रता सेनानी राजा महेंद्र प्रताप सिंह का जन्म दिवस नहीं मनाया जाना था, छात्रों के भारी आक्रोश को देखते हुए एएमयू प्रशासन ने अपना हाथ पीछे खींच लिया है और 1 दिसंबर 2014 का कार्यक्रम रद कर दिया गया था, छात्र संघ के पदाधिकारियों ने कुलपति से पल्ला झाड़कर उन पर धोखे में रखकर आरएसएस नेताओं से बात कराने का आरोप लगाया था.

कुलपति जमीरउद्दीन शाह, छात्र संघ के तीनों प्रमुख पदाधिकारी एवं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेताओं के बीच वीसी लॉज में बातचीत हुई थी, इसकी मध्यस्थता अखिल भारतीय पूर्व सैनिक सेवा परिषद द्वारा की गयी थी, इसी मीटिंग में आए सुझाव के बाद एएमयू प्रशासन ने सिटी स्कूल के समीप स्थित तिकोना मैदान में राजा महेंद्र प्रताप सिंह का जन्म दिवस मनाने की घोषणा की थी, इसका संचालन एएमयू छात्र संघ को करना था.


मगर जब अगले दिन एएमयू छात्रों को पता चला कि वीसी लॉज में आरएसएस के नेता आए थे और उसमें एएमयू छात्र संघ के पदाधिकारी भी शामिल हुए थे तो आक्रोश बढ़ने लगा, आरएसएस एवं बीजेपी को किसी भी कीमत पर एएमयू छात्र पचाने की स्थिति में नहीं है, यूनियन से अलग कुछ छात्र नेताओं ने बैठक कर वीसी लॉज में आरएसएस नेताओं को बुलाने एवं बातचीत करने का विरोध करने लगे, यह भी ऐलान कर दिया कि जुमे की नमाज के बाद कुलपति एवं यूनियन के खिलाफ जामा मस्जिद से बाबे सैयद तक विरोध मार्च निकालने का ऐलान भी किया.

राजा महेंद्र प्रताप का एएमयू में गहरा सम्मान आज भी है और यहां शतवार्षिकी समारोह हुआ तो उन्हें ही मुख्य अतिथि बनाया गया, राजा साहब के ख़ुद वामपंथी होने के बावजूद उनको कांग्रेस के हिंदूवादी नेता बाल गंगाधर तिलक और बिपिन चंद्र पाल पसंद आते थे, हमको ये भी नहीं भूलना चाहिए कि महेंद्र प्रताप अटल बिहारी वाजपेयी को हराकर सांसद बने थे, हम आपको बता दें कि राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने 1957 के लोकसभा चुनाव में तब जनसंघ के कद्दावर नेता रहे अटल बिहारी वाजपेयी जी की जमानत तक जब्त करवा दी थी, इसके बावजूद पीएम मोदी ने उनके नाम पर यूनिवर्सिटी की नींव रखने की बात की है तब साफ़ तौर पर ज़ाहिर है कि इस वक़्त आने वाले राज्यों के चुनावों मैं भाजपा की हालात खराब है, जिसको सुधारने के लिए ये राजनीति खेली जा रही है, वहीं सवाल ये पैदा होता है कि जब संघ ने 2014 मैं राजा जी पर सियासत को गर्माना चाहा था तब से अब तक सरकार चुप क्यूं थी...?


राजा महेंद्र प्रताप सिंह के पड़पोते चरत प्रताप सिंह ने एक निजी न्यूज चैनल से बातचीत के दौरान दावा किया था कि उनके पड़दादा एक छात्र की समस्या की सूचना मिलने पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ चल रही मीटिंग से उठ गए, उन्होंने बताया, 'प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ महत्वपूर्ण मीटिंग कर रहे थे, तभी उनको प्रेम माह विद्यालय से एक स्टूडेंट की कॉल आई, छात्र ने उन्हें प्रिंसिपल के साथ अपनी समस्या बताई, वो मीटिंग छोड़कर अपनी गाड़ी में आ बैठे और कॉलेज चले गए, वहां छात्र से मिले और उसकी समस्या सुलझाई.

पड़पोते चरण प्रताप ने आगे बताया कि महेंद्र प्रताप सिंह के पड़दादा दयारामजी हाथरस के राजा थे, उन्होंने कहा, मेरे पड़दादा राजा महेंद्र प्रताप सिंह देश के पहले राजा थे जिन्होंने 1918 में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की थी, उससे पहले, उन्होंने 1915 में देश की पहली अंतरिम सरकार बनाई थी, हालांकि, चरण प्रताप ने यह क्षोभ भी प्रकट किया कि उनके पड़दादा को देश ने वो सम्मान नहीं दिया जिनके वो हकदार थे, उन्होंने कहा, इतिहास ने उनको वह हक नहीं दिया, जिनके वो हकदार हैं.


राजा महेंद्र सिंह के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि उनके पड़दादा ने अफगानिस्तान में 'प्रेम धर्म' की स्थापना की, उन्होंने कहा कि राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने संसार संघ (World Federation) की स्थापना की थी, जिसके लिए उन्हें 1932 में शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया गया था, उन्होंने कहा, 'वही संसार संघ बाद में संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) की नींव का पत्थर बना, भारत का पहला पॉलिटेक्निक कॉलेज बनाया.

राजा महेंद्र प्रताप सिंह (1 दिसम्बर 1886 – 29 अप्रैल 1979) भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, पत्रकार, लेखक, क्रांतिकारी, समाज सुधारक और महान दानवीर थे, वे 'आर्यन पेशवा' के नाम से प्रसिद्ध थे और भारत की अनंतिम सरकार के अध्यक्ष थे, यह सरकार प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान बनी थी और भारत के बाहर से संचालित हुई थी, उन्होने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 1940 में जापान में 'भारतीय कार्यकारी बोर्ड (Executive Board of India) की स्थापना की थी, अपने कॉलेज के साथियों के साथ मिलकर उन्होने सन 1911 में बाल्कन युद्ध में भी भाग लिया, उनकी सेवाओं को याद करते हुए भारत सरकार ने उनकी स्मृति में एक डाक टिकट 1979 मैं जारी किया था.


महेन्द्र प्रताप का जन्म 1 दिसम्बर 1886 को एक जाट परिवार में हुआ था जो मुरसान रियासत के शासक थे, यह रियासत वर्तमान उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले में थी, वे राजा घनश्याम सिंह के तृतीय पुत्र थे, जब वे 3 वर्ष के थे तब हाथरस के राजा हरनारायण सिंह ने उन्हें पुत्र के रूप में गोद ले लिया, 1902 में उनका विवाह बलवीर कौर से हुआ था जो जिन्द रियासत के सिद्धू जाट परिवार की थीं, विवाह के समय वे कॉलेज की शिक्षा ले रहे थे.
हाथरस के जाट राजा दयाराम ने 1817 में अंग्रेजों से भीषण युद्ध किया, मुरसान के जाट राजा ने भी युद्ध में जमकर साथ दिया, अंग्रेजों ने दयाराम को बंदी बना लिया। 1841 में दयाराम का देहान्त हो गया, उनके पुत्र गोविन्दसिंह गद्दी पर बैठे, 1857 में गोविन्दसिंह ने अंग्रेजों का साथ दिया फिर भी अंग्रेजों ने गोविन्द सिंह का राज्य लौटाया नहीं - कुछ गाँव, 50 हजार रुपये नकद और राजा की पदवी देकर हाथरस राज्य पर पूरा अधिकार छीन लिया, राजा गोविन्द सिंह की 1861 में मृत्यु हुई, संतान न होने पर अपनी पत्नी को पुत्र गोद लेने का अधिकार दे गये, अत: रानी साहब कुँवरि ने जटोई के ठाकुर रूपसिंह के पुत्र हरनारायण सिंह को गोद ले लिया, अपने दत्तक पुत्र के साथ रानी अपने महल वृन्दावन में रहने लगी, राजा हरनारायन को कोई पुत्र नहीं था, अत: उन्होंने मुरसान के राजा घनश्यामसिंह के तीसरे पुत्र महेन्द्र प्रताप को गोद ले लिया, इस प्रकार महेन्द्र प्रताप मुरसान राज्य को छोड़कर हाथरस राज्य के राजा बने.


जिंद रियासत के राजा की राजकुमारी से संगरूर में विवाह हुआ, दो स्पेशल ट्रेन बारात लेकर गई, बड़ी धूमधाम से विवाह हुआ, विवाह के बाद जब कभी महेन्द्र प्रताप ससुराल जाते तो उन्हें 11 तोपों की सलामी दी जाती, स्टेशन पर सभी अफसर स्वागत करते, रात को दरबार गता और नृत्य-गान चलता जिसमें कभी-कभी रानी भी भाग लेती, उनके 1909 में पुत्री हुई-भक्ति, 1913 में पुत्र हुआ-प्रेम, देश-विदेश की खूब यात्राएँ कीं, 1906 में जिंद के महाराजा की इच्छा के विरुद्ध राजा महेन्द्र प्रताप ने कलकत्ता ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लिया और वहाँ से स्वदेशी के रंग में रंगकर लौटे.

1909 में वृन्दावन में प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की जो तकनीकी शिक्षा के लिए भारत में प्रथम केन्द्र था, मदनमोहन मालवीय इसके उद्धाटन समारोह में उपस्थित रहे, ट्रस्ट का निर्माण हुआ-अपने पांच गाँव, वृन्दावन का राजमहल और चल संपत्ति का दान दिया.

उनकी दृष्टि विशाल थी, वे जाति, वर्ग, रंग, देश आदि के द्वारा मानवता को विभक्त करना घोर अन्याय, पाप और अत्याचार मानते थे, ब्राह्मण-भंगी को भेद बुद्धि से देखने के पक्ष में नहीं थे, वृन्दावन में ही एक विशाल फलवाले उद्यान को जो 80 एकड़ में था, 1911 में आर्य प्रतिनिधि सभा उत्तर प्रदेश को दान में दे दिया, जिसमें आर्य समाज गुरुकुल है और राष्ट्रीय विश्वविद्यालय भी है.

प्रथम विश्वयुद्ध से लाभ उठाकर भारत को आजादी दिलवाने के पक्के इरादे से वे विदेश गये, इसके पहले 'निर्बल सेवक' समाचार-पत्र देहरादून से राजा साहेब निकालते थे, उसमें जर्मन के पक्ष में लिखे लेख के कारण उन पर 500 रुपये का दण्ड किया गया जिसे उन्होंने भर तो दिया लेकिन देश को आजाद कराने की उनकी इच्छा प्रबलतम हो गई, विदेश जाने के लिए पासपोर्ट नहीं मिला, मैसर्स थौमस कुक एण्ड संस के मालिक बिना पासपोर्ट के अपनी कम्पनी के पी. एण्ड ओ स्टीमर द्वारा इंगलैण्ड राजा महेन्द्र प्रताप और स्वामी श्रद्धानंद के ज्येष्ठ पुत्र हरिचंद्र को ले गया, उसके बाद जर्मनी के शसक कैसर से भेंट की, उन्हें आजादी में हर संभव सहाय देने का वचन दिया, वहाँ से वह अफगानिस्तान गये. बुडापेस्ट, बल्गारिया, टर्की होकर हैरत पहुँचे, अफगान के बादशाह से मुलाकात की और वहीं से 1 दिसम्बर 1915 में काबुल से भारत के लिए अस्थाई सरकार की घोषणा की जिसके राष्ट्रपति स्वयं तथा प्रधानमंत्री मौलाना बरकतुल्ला खाँ बने, स्वर्ण-पट्टी पर लिखा सूचनापत्र रूस भेजा गया, अफगानिस्तान ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया तभी वे रूस गये और लेनिन से मिले, परंतु लेनिन ने कोई सहायता नहीं की, 1920 से 1946 विदेशों में भ्रमण करते रहे, विश्व मैत्री संघ की स्थापना की, 1946 में भारत लौटे। सरदार पटेल की बेटी मणिबेन उनको लेने कलकत्ता हवाई अड्डे गईं, वे संसद-सदस्य भी रहे.
राजा महेन्द्र प्रताप का जन्म मुरसान नरेश राजा बहादुर घनश्याम सिंह के यहाँ 1 दिसम्बर सन 1886 ई. को हुआ था, राजा घनश्याम सिंह जी के तीन पुत्र थे, दत्तप्रसाद सिंह, बल्देव सिंह और खड़गसिंह, जिनमें सबसे बड़े दत्तप्रसाद सिंह राजा घनश्याम सिंह के उपरान्त मुरसान की गद्दी पर बैठे और बल्देव सिंह बल्देवगढ़ की जागीर के मालिक बन गए, खड़गसिंह जो सबसे छोटे थे वही हमारे चरित नायक राजा महेन्द्र प्रताप जी हैं, मुरसान राज्य से हाथरस गोद आने पर उनका नाम खंड़गसिंह से महेन्द्र प्रताप सिंह हो गया था, मानो खड़ग उनके व्यक्तित्व में साकार प्रताप बनकर ही एकीभूत हो गई हो, कुँवर बलदेव सिंह का राजा साहब (महेन्द्र प्रताप जी से) बहुत घनिष्ठ स्नेह था और राजा साहब भी उन्हें सदा बड़े आदर की दृष्टि से देखते थे, उम्र में सबसे छोटे होने के कारण राजा साहब अपने बड़े भाई को 'बड़े दादाजी' और कुँवर बलदेवसिंह जी को 'छोटे दादाजी' कहकर संबोधित किया करते थे.

जब राजा साहब केवल तीन वर्ष के ही थे, तभी उन्हें हाथरस नरेश राजा हरिनारायण सिंह जी ने गोद ले लिया था, किन्तु राजा साहब 7-8 वर्ष की अवस्था तक मुरसान में ही रहे, इसका कारण यह था कि राजा घनश्यामसिंह को यह डर था कि कहीं राजा हरिनारायण सिंह की विशाल सम्पत्ति पर लालच की दृष्टि रखने वाले लोभियों द्वारा बालक का कोई अनिष्ट न हो जाए.

राजा साहब पहले कुछ दिन तक अलीगढ़ के गवर्नमेन्ट स्कूल में और फिर अलीगढ़ के एम.ए.ओ. कॉलेज में पढ़े, यही कॉलेज बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में विकसित हुआ, राजा साहब को अलीगढ़ में पढ़ने सर सैयद अहमद ख़ाँ के आग्रह पर भेजा गया था, क्यूंकि राजा साहब के पिताजी राजा घनश्याम सिंह की सैयद साहब से व्यक्तिगत मित्रता थी, इस संस्था की स्थापना के लिए राजा बहादुर ने यथेष्ट दान भी दिया था, उससे एक पक्का कमरा बनवाया गया, जिस पर आज भी राजा बहादुर घनश्याम सिंह का नाम लिखा हुआ है, राजा साहब स्वयं हिन्दू वातावरण में पले परन्तु एम.ए.ओ. कॉलेज में पढ़े, इसका एक सुखद परिणाम यह हुआ कि मुस्लिम धर्म और मुसलमान बन्धुओं का निकट सम्पर्क उन्हें मिला और एक विशिष्ट वर्ग के (राजकुमारों की श्रेणी के) व्यक्ति होने के कारण तब उनसे मिलना और उनके सम्पर्क में आना सभी हिन्दू मुस्लिम विद्यार्थी एक गौरव की बात मानते थे, इसका परिणाम यह हुआ कि राजा साहब का मुस्लिम वातावरण तथा मुसलमान धर्म की अच्छाइयों से सहज ही परिचय हो गया और धार्मिक संकीर्णता की भावना से वह सहज में ही ऊँचे उठ गए, बाद में जब राजा साहब देश को छोड़ कर विदेशों में स्वतंत्रता का अलख जगाने गये, तब मुसलमान बादशाहों से तथा मुस्लिम देशों की जनता से उनका हार्दिक भाईचारा हर जगह स्वयं बन गया, हमारी राय से राजा साहब के व्यक्तित्व की यह विशेषता उन्हें इस शिक्षा संस्थान की ही देन है.
अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में म्यूजिक क्लब के प्रोफे़सर जॉनी फ़ॉस्टर से बात की, उन्होंने राजा महेंद्र सिंह के साथ बिताए पलों का जिक्र किया, साथ ही 45 साल पहले उनके पिता को लिखा गए खत का इतिहास भी बताया, प्रोफेसर जॉनी फ़ॉस्टर के पिता फ़ादर जॉन फ़ॉस्टर देहरादून के चर्च में पादरी थे, उनकी मुलाकात देहरादून में ही राजा महेंद्र प्रताप सिंह से हुई थी, उन्होंने बताया कि राजा महेंद्र प्रताप के हाथों से लिखा गया ख़त आज भी महफ़ूज़ है, यह ख़त राजा महेंद्र ने उनके पिता की मौत पर लिखा था, जाट राजा कहे जाने वाले राजा महेंद्र प्रताप ने यह ख़त उर्दू में लिखा था, इस ख़त में उन्होंने अपने दोस्त की बीवी व प्रो. जॉनी फॉस्टर की मां को शोक व्यक्त करते हुए लिखा कि “अज़ीज़ बेग़म, फ़ॉस्टर साहिबा, दुआ, निहायत अफ़सोस हुआ कि मेरे अज़ीज़ दोस्त फ़ॉस्टर साहब इस दुनिया में नहीं रहे, ख़ालिक़ उनकी रूह को राहत बख़्शे, बहरकैफ़ हमको यही समझाना चाहिए, जिसमें उसकी रज़ा है, उसी में हमारी खु़शी है, - खै़र ख़्वाहा ए आलम”.

प्रोफ़ेसर जॉनी फ़ॉस्टर के मुताबिक राजा महेंद्र प्रताप का स्वभाव काफी मिलनसार और हंसमुख किस्म का था, वह हमेशा विश्व भाईचारा, आपसी प्रेम और सद्भाव का संदेश लोगों को दिया करते थे, जब वह उनके पिता के साथ होते थे और कोई शख्स उनका नाम पूछता था तो वह उसे अपना नाम 'पीटर पीर प्रताप सिंह' बताते थे, जिसका मतलब मेल मिलाप और भाईचारा होता था.

राजा साहब जब विद्यार्थी थे, उनमें जहाँ सब धर्मों के प्रति सहज अनुराग जगा वहाँ शिक्षा द्वारा जैसे-जैसे बुद्धि के कपाट खुले वैसे-वैसे ही अंग्रेज़ों की साम्राज्य लिप्सा के प्रति उनके मन में क्षोभ और विद्रोह भी भड़का, वृन्दावन के राज महल में प्रचलित ठाकुर दयाराम की वीरता के किस्से बड़े बूढ़ों से सुनकर जहाँ उनकी छाती फूलती थी, वहाँ जिस अन्याय और नीचता से गोरों ने उनका राज्य हड़प लिया था, उसे सुनकर उनका हृदय क्रोध और क्षोभ से भर जाता था और वह उनसे टक्कर लेने के मंसूबे बाँधा करते थे, जैसे-जैसे उनकी बुद्धि विकसित होती गई, वैसे अंग्रेज़ों के प्रति इनका विरोध भी मन ही मन तीव्र होता चला गया.

राजा साहब जब अलीगढ़ में विद्यार्थी थे, उनके छोटे भाई दादा (बीच के भाई) कुँवर बल्देव सिंह प्राय: उनसे मिलने अलीगढ़ आते रहते थे, एक दिन वह उन्हें अपने साथ अलीगढ़ के अंग्रेज़ पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट से मिलाने ले गए, उस समय राजा साहब 19 या 20 वर्ष के नवयुवक थे, जब पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट से मुलाकात हुई, तो कुँवर बल्देव सिंह ने उसे सलाम किया परन्तु राजा साहब ने ऐसा न करके उससे केवल हाथ मिलाया, बाद में जब बातचीत का सिलसिला चला तो राजा साहब ने पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट को किसी प्रसंग में यह भी हवाला दिया कि हमारे दादा अंग्रेज़ों से लड़े थे, यह सुनकर सुपरिन्टेन्डेन्ट कुछ समय के लिए सन्न रह गया और कुछ मिनटों तक विचार-मग्न रहा, जब बाद में बातचीत का प्रसंग बदला तब वह सामान्य स्थिति में आ सका, इस प्रकार निर्भीकतापूर्वक अपनी स्पष्ट बात कह देने की आदत राजा साहब में बचपन से ही रही.

26 अप्रैल 1979 में उनका देहान्त हो गया, मार्च 2021 में उत्तर प्रदेश सरकार ने उनके नाम पर अलीगढ़ में एक विश्वविद्यालय स्थापित करने की घोषणा की है.

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