1) इतना महत्वपूर्ण फ़ैसला लेते वक़्त संसद को अंधेरे में नहीं रखा जा सकता. संसद लोकतंत्र का केंद्र है. इस फ़ैसले को नोटिफ़िकेशन से लागू करने की बजाय संसद के साथ चर्चा करके क़ानून बनाकर लागू करना चाहिए था.
2) जो दस्तावेज़ सबमिट किए गए हैं, उसमें आरबीआई ने कई जगह लिखा है – “जैसा कि केंद्र सरकार चाहती है”…इसका मतलब आरबीआई ने स्वतंत्र रूप से कुछ नहीं किया है. पूरी एक्सरसाइज़ 24 घंटे में कर ली गई.
3) ये प्रस्ताव केंद्र सरकार की ओर से आया था, उस पर आरबीआई की राय मांगी गई. आरबीआई एक्ट के मुताबिक इसे आरबीआई का सुझाव नहीं माना जा सकता. आरबीआई की राय नतीजों को ध्यान में रखते हुए स्वतंत्र और सपाट होनी चाहिए.
4) इस फ़ैसले के बाद जो मुश्किलें आई, ये सोचने वाली बात है कि क्या आरबीआई को इसका अंदाज़ा नहीं था.
5) ये फ़ैसला गैर-क़ानूनी है, लेकिन इस पर काम हो चुका है, तो इसे अब बदला नहीं जा सकता. इसलिए अब क्या रिलीफ़ दिया जाए?
6) 98 फ़ीसद नोट बदले गए. ये बताता है कि ये कदम प्रभावी नहीं रहा जिसकी उम्मीद की गई थी. लेकिन कोर्ट इस आधार पर फ़ैसला नहीं दे सकता.
7) ये कदम अच्छी नीयत से लिया गया था, सोच-समझ कर लिया गया था. इसे आतंकवाद, काले-धन, नकली करेंसी से निपटने के लिए सोचा गया था. ये कदम सिर्फ़ क़ानून के आधार पर गैर-क़ानूनी ठहरा रही हूं, ना कि उद्देश्य के आधार पर.
जस्टिस बीवी नागरत्ना
फ़ैसले मैं बाकी 4 जजों ने क्या कहा...?
1) इस कदम से क्या हासिल हुआ या नहीं, इस आधार पर इसके कानूनी रूप से सही होने या ना होने का कोई संबंध नहीं है. जो ज़रूरी है वो ये कि एक उद्देश्य होना चाहिए, जो वाजिब काम के लिए तय किया गया हो, और कदम और उद्देश्य का संबंध तार्किक हो.
2) हम समझते हैं कि तीन उद्देश्य – आतंकवाद की फंडिंग, काला-धन, नकली नोट वाजिब उद्देश्य हैं. हमें लगता है कि इन उद्देश्यों के लिए इस कदम का तार्किक संबंध है. हमें लगता है कि इन उद्देश्यों को पूरा करने के लिए नोटबंदी के अलावा कोई और कदम नहीं उठाया जा सकता था. इन उद्देश्यों की महता और संवैधानिक अधिकारों को सीमित करने के बीच वाजिब संबंध भी है. इसलिए इस कदम पर ‘Doctrine of proportionality’ लागू नही होता.
(Doctrine of proportionality- किसी उद्देश्य को हासिल करने के लिए ज़रूरत से बड़ा एक्शन ना लिया जाए. जैसे कि चिड़िया को मारने के लिए तोप का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए.)
3) आरबीआई एक्ट के मुताबिक केंद्र सरकार को एक सीरीज़ या सभी सीरीज़ के नोट बंद करने का अधिकार है. इससे पिछली दो बार सभी नोट की बजाय कुछ नोट बंद किए गए थे तो इसका मतलब से न निकाला जाए कि केंद्र सरकार को बस इतना करने का अधिकार है.
4) फ़ैसला लेने की प्रकिया में कोई गलती नहीं है.
5) नोट बदलने के लिए जितना वक़्त दिया गया वो अतार्किक नहीं है.
कोर्ट उस पर ही फ़ैसला देता है जितना उससे पूछा जाता है यानी जो भी अपील की गई होती है. पांचों जज मानते हैं कि सही नीयत से लिया गया फ़ैसला है. लेकिन ये कोई नहीं कहता कि इसका उद्देश्य पूरा हुआ. कोर्ट उन ही दस्तावेज़ों पर बोलेगा जो उसे दिखाए गए होंगे. ये ध्यान रहे कि आरबीआई अपने आप को कोर्ट में डिफ़ेंड कर रहा था. नोटबंदी के लिए सलाह लेते वक़्त आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन थे. फ़ैसला लागू करते वक़्त उर्जित पटेल गवर्नर थे. रघुराम राजन तो पहले ही नोटबंदी के बारे में अपने विचार ज़ाहिर कर चुके हैं कि वे और उनके कार्यकाल में आरबीआई नोटबंदी नहीं चाहते थे. उर्जित पटेल अपना कार्यकाल ख़त्म होने से पहले ही 2018 में इस्तीफ़ा देकर जा चुके हैं. बाकी दो डिप्टी गवर्नर भी 2017 में रिटायर हो चुके हैं.
(Sarvapriya Sangwan ने फैसले में जजों के मूल दृष्टिकोण को यहां रखा है)
#TheTelegraph
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