Sunday, 11 December 2011

मीडिया के नए मापदंड

अपराध जगत की खबर देने वाला एक पत्रकार मारा गया। मारे गए पत्रकार को अपराध जगत की बिसात पर प्यादा भी एक दूसरे पत्रकार ने बनाया। सरकारी गवाह एक तीसरा पत्रकार ही बना। यानी अपराध जगत से जुड़ी खबरें तलाशते पत्रकार कब अपराध जगत के लिए काम करने लगे, यह पत्रकारों को पता ही नहीं चला। या फिर पत्रकारीय होड़ ही कुछ ऐसी बन चुकी है कि पत्रकार अगर खबर बनते लोगों का हिस्सा नहीं बनता तो उसकी विश्वसनीयता नहीं होती। यह सवाल ऐसे मौके पर सामने आया है, जब मीडिया की साख को लेकर सवाल और कोई नहीं, प्रेस परिषद उठा रही है।



जिग्ना की कलंकित कथा के बहाने 



जिग्ना वोरा
मीडिया अपराधियों के महिमा मंडन में लगा है। इसके लिए जिम्मेदार अपराध कवर करनेवाले हमारे मक्कार मित्रों के चालाक तर्कों या कुतर्कों का तो खैर कोई जवाब नहीं। लेकिन आपसे एक विनम्र सवाल है... दिल पर हाथ रखकर बिल्कुल ईमानदारी से जवाब दीजिएगा। सवाल यह है कि राजनीति कवर करते करते बहुत सारे पत्रकार नेता बन गए। फिल्में कवर करते करते कई पत्रकार फिल्मों में एक्टिंग करने के अलावा निर्माण और निर्देशन में लग गए। खेल कवर करते करते कई पत्रकार खेल बोर्ड के चेयरमेन, टीम मैनेजर और टूर्नामेंट के आयोजक बन गए। बिजनस कवर करते करते कई पत्रकार स्टॉक ब्रोकर और बिजनसमैन बन गए। तो अपराध की दुनिया की खबरों को जीनेवाले किसी पत्रकार का मुकाम क्या होगा ? अगर वह अपराधियों की गोलियों का शिकार बन जाए, या जेल चला जाए, तो किस मामले की हाय तौबा और किस बात की तकलीफ ?

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