आत्मनियमन को लेकर अपनी ईमानदारी का सबूत देने के लिए चैनलों के संपादकों ने मिल-जुलकर ‘तीसरी कसम’ के हीरामन की तर्ज पर तीन नहीं, दस कसमें खाई हैं. इनका लब्बोलुआब यह है कि चैनल जानी-मानी अभिनेत्री ऐश्वर्या राय के बच्चे के जन्म की रिपोर्टिंग करते हुए बावले नहीं होंगे.
वैसे कहते हैं कि कसमें तोड़ने के लिए ही होती हैं. देखें, इस कसम पर चैनल कितने दिन टिकते हैं और सबसे पहले इसे कौन तोड़ता है? नहीं-नहीं, संपादकों और उनकी कसम की ईमानदारी पर मुझे कोई शक नहीं है. उनकी बेचैनी भी कुछ हद तक समझ में आती है. उनमें से कई थक गए हैं, कुछ पूरी ईमानदारी से उस अंधी दौड़ से बाहर निकलना चाहते हैं जिसके कारण चैनलों के न्यूजरूम में अधिकतर फैसले संपादकीय विवेक से कम और इस डर से अधिक लिए जाते हैं कि अगर हमने इसे तुरंत नहीं दिखाया तो हमारा प्रतिस्पर्धी चैनल इसे पहले दिखा देगा.
लेकिन क्या इस अंधी दौड़ से बाहर निकलना इतना आसान है? शायद नहीं. असल में, सिर्फ संपादकों के हाथ में कंटेंट की बागडोर होती है. उन पर कोई बाहरी दबाव मतलब टीआरपी का दबाव नहीं होता तो शायद इतनी मुश्किल नहीं होती. लेकिन कमान उनके हाथ में नहीं है. वह बाजार के हाथ में है. बाजार टीआरपी से चलता है. इसलिए चैनलों के लिए कंटेंट के मामले में नीचे गिरने की इस अंधी दौड़ से बाहर निकलना न सिर्फ मुश्किल बल्कि नामुमकिन दिखने लगा है. वजह साफ है. जहां टीआरपी के लिए ऐसी गलाकाट होड़ हो, संपादकीय फैसले प्रतिस्पर्धी चैनलों को देखकर लिए जाते हों और सभी भेड़ की तरह एक-दूसरे के पीछे गड्ढे में गिरने को तैयार हों, वहां इस अंधी दौड़ का सबसे पहला शिकार आत्मानुशासन और आत्मनियमन ही होता है.
यह संभव है कि इस बार ऐश्वर्या राय के मामले में न्यूज चैनल अपनी कसम निभा ले जाएं. लेकिन इस कसम की असल परीक्षा यह नहीं है कि ऐश्वर्या राय के मामले में चैनलों ने अपनी कसम कितनी ईमानदारी से निभाई. असल सवाल यह है कि क्या चैनलों को ऐसे हर मामले पर संयम बरतने के लिए सामूहिक कसम खानी पड़ेगी. क्या चैनलों का अपना संपादकीय विवेक इतना कमजोर हो चुका है कि वे खुद यह फैसला करने में अक्षम हो गए हैं कि क्या दिखाया जाना चाहिए और क्या नहीं? क्या यह इस बात का सबूत नहीं है कि चैनल बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के आत्म- नियंत्रण करने में सक्षम नहीं रह गए हैं? सवाल है कि जिन मामलों में चैनलों ने सामूहिक कसम नहीं खाई होगी मतलब बीईए ने निर्देश नहीं जारी किए होंगे, क्या उन चैनलों को खुला खेल फर्रुखाबादी की छूट होगी? हैरानी की बात नहीं है कि जिन दिनों ऐश्वर्या राय के मामले में बीईए के निर्देशों को आत्म-नियमन के मेडल की तरह दिखाया जा रहा था, उन्हीं दिनों दो हिंदी न्यूज चैनलों ने खुलकर और कुछ ने दबे-छुपे राजस्थान के भंवरी देवी हत्याकांड में भंवरी और आरोपित कांग्रेसी नेताओं की सेक्स सीडी दिखाई. सवाल है कि इस सेक्स सीडी को दिखाने के पीछे उद्देश्य क्या था? इसमें कौन सा जनहित शामिल था? क्या यह ‘अच्छे टेस्ट’ में था? आश्चर्य नहीं कि केंद्र सरकार ने इस मामले में दोनों चैनलों को नोटिस भेजने में देर नहीं लगाई. सवाल है कि सरकार को अपनी नाक घुसेड़ने का मौका किसने दिया.
दूसरी ओर, एक गंभीर अंग्रेजी चैनल में आत्मनियमन का हाल यह है कि उसके एक प्राइम टाइम लाइव शो में आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर का घंटों पहले किया गया इंटरव्यू ऐसे दिखाया गया मानो वे उस चर्चा में लाइव शामिल हों. साफ तौर पर यह धोखाधड़ी थी. कार्यक्रम के अतिथि रविशंकर के साथ भी और दर्शकों के साथ भी. इसके लिए चैनल की खूब लानत-मलामत हुई है. शुरुआती ना-नुकुर और तकनीकी बहानों के बाद चैनल ने अपनी गलती को ‘अनजाने में हुई गलती’ बताते हुए माफी मांग ली है. लेकिन क्या यह अनजाने में हुई गलती थी या समझ-बूझकर की गई थी? इसी चैनल पर कुछ महीने पहले प्राइम टाइम में फर्जी ट्विटर संदेश दिखाने का आरोप लगा था. न सिर्फ ये ट्विटर संदेश फर्जी और न्यूजरूम में लिखे गए थे बल्कि उनमें बहस में एक खास पक्ष लिया गया था. चैनल ने उसे भी ‘अनजाने में हुई गलती’ बताकर माफी मांग ली थी. इन दोनों प्रकरणों से एक बात पक्की है कि चैनल के संपादक ‘जाने में’ मतलब सोच-समझकर काम नहीं कर रहे हैं.
ऐसे में, यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि इस हालत में कितने चैनलों को मौके पर उन कसमों-निर्देशों की याद आएगी और कितने अनजाने में उन्हें भूल जाएंगे. देखते रहिए. (तहलका से साभार)
आनंद प्रधान : भारतीय जनसंचार संस्थान में अध्यापक. तहलका और कथादेश में नियमित स्तंभ. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में पीएचडी. शोध का विषय - प्रिंट मीडिया और आतंकवाद. संपर्क :apradhan28@gmail.com , ब्लॉग : http://teesraraasta.blogspot.com
No comments:
Post a Comment
अगर आपको किसी खबर या कमेन्ट से शिकायत है तो हमको ज़रूर लिखें !