शत्रुघ्न शर्मा, अहमदाबाद। कमजोर सुबूतों के बावजूद सीबीआई ने इशरत जहां केस में भले ही आरोपपत्र दाखिल कर दिया हो, लेकिन गुजरात में तैनात रहे आरोपी पुलिस वालों के खिलाफ अदालत में आरोपों को साबित करना आसान नहीं होगा। कारण साफ है सीबीआई की चार्जशीट परिस्थितिजन्य साक्ष्यों और एक गवाह पर आधारित है। उनमें भी फारेंसिक रिपोर्ट जैसे कई सुबूतों पर सवालिया निशान लग चुका है। यही नहीं, उस समय मामले
से जुड़े तीन वरिष्ठ अधिकारी जांच में सीबीआई और तत्कालीन सरकार की मंशा पर सवाल उठा चुके हैं।
गौरतलब है कि सीबीआई ने इशरत जहां मुठभेड़ मामले में पूर्व डीआइजी डीजी बंजारा, आइपीएस जीएल सिंघल, एडीजी पीपी पांडे, एसपी एनके अमीन सहित सात पुलिस अफसरों के खिलाफ तीन जुलाई 2013 को अहमदाबाद की स्पेशल कोर्ट में आरोप पत्र दाखिल किया था। लेकिन ढाई साल बीतने के बाद भी आरोपियों के खिलाफ ट्रायल शुरू नहीं हो पाया है। सभी आरोपी अधिकारी जमानत पर रिहा हो चुके हैं। शुरू में सीबीआई आइबी के विशेष निदेशक राजेंद्र कुमार सहित चार अफसरों के खिलाफ पूरक चार्जशीट के लिए केंद्र सरकार की अनुमति के इंतजार में रही। लेकिन फरवरी 2014 में तैयार इस चार्जशीट के आधार को न तो संप्रग और न ही राजग सरकार ने स्वीकार किया। बाद में राजग सरकार ने कमजोर सुबूतों के आधार पर आइबी के अफसरों के खिलाफ आरोपपत्र दाखिल करने की अनुमति देने से इन्कार कर दिया।
समस्या यह है कि सीबीआई ने अपने पहले आरोपपत्र में इशरत जहां के एनकाउंटर को गुजरात पुलिस और आइबी का संयुक्त ऑपरेशन बताया था और इसके लिए 11 अफसरों को जिम्मेदार ठहराया था। इनमें आइबी के सभी अधिकारी बेदाग बच गए। ऐसे में सिर्फ गुजरात पुलिस के सात अधिकारियों को अकेले फर्जी एनकाउंटर के लिए कैसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। वैसे भी सीबीआई की पूरी चार्जशीट आइपीएस जीएल सिंघल के बयान तथा कुछ परिस्थितिजन्य सुबूतों पर ही आधारित है।
गृहमंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी आरवीएस मणि ने आरोप लगाया कि सीबीआई के ये सुबूत गढ़े हुए हैं। सीबीआई ने अपनी चार्जशीट में इशरत जहां को भी निर्दोष बताया था। लेकिन ताजा खुलासे से सीबीआई के इस दावे की धज्जियां उड़ चुकी हैं।
साभार- शत्रुघ्न शर्मा
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