Sunday, 29 October 2017

गद्दार भी पैदा होते रहे हैं, वफ़ादार भी ?

एस एम फ़रीद भारतीय
मोहम्मद उमर, सोलहवीं शताब्दी के खत्म होते होते अंग्रेज़, सौदागर बनके हिन्दुस्तान में पहुंच चुके थे जिसमे पश्चिम बंगाल को ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना हेडक्वॉर्टर बनाया और धीरे धीरे भारतीय व्यापार को अपने कब्ज़े में कर राजा, रजवाड़ो और नवाबों की हुकूमत के निज़ाम पर अपनी दखल अंदाज़ी शुरू कर दी.

सन् 1757 में नवाब सिराजुद्दौला के खिलाफ पलासी की जंग में अंग्रेज़ी सेना खुल्लमखुल्ला मैदान में उतर आयी और अपना असली मुखौटा उतार फैका, फिर 1764 में अंग्रेजों के खिलाफ नवाब शुजाउद्दौला को बक्सर में पराजय मिली और बिहार व बंगाल अंग्रेजो के चपेट में चला गया व इसी तरह 1792 में टीपू सुल्तान की शहादत के बाद अंग्रेजों ने मैसूर पर भी अपना कब्जा कर अंग्रेजी हुकूमत का झंडा बुलंद कर दिया.

1849 में पंजाब और इस तरह सिंध, आसाम, बर्मा, रोहैलखन्ड, दक्षिणी भाग, अलीगढ़, उत्तरी भाग, मद्रास, पांडिचेरी, वगैरह अंग्रेजों के अधीन होता गया और फिर वह वक्त भी आ गया जब दिल्ली पर भी कंपनी की हुकूमत कायम हो गई तथा पूरा भारत गुलामी की ज़जीरों में जकड़ता चला गया.

1757 से अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ बढ़ता हुआ टकराव 1857 तक एक बड़े विद्रोह में बदल गया और इसी जंगे-आज़ादी मे एक नाम शामिल हुआ “मौलाना सैय्यद किफ़ायत अली काफ़ी” जो मुरादाबाद के एक रसूखदार घर से ताल्लुक़ रखते थे लेकिन वतन की मोहब्बत ने आज़ादी का मुजाहिद बनाकर अंग्रेजों के विरोध मे खड़ा कर दिया साथ ही इंकलाब की ऐसी लौ जलाई जिसने गुलामी के अंधेरे को मिटाने का काम किया.

इतिहासकार लिखते है कि मौलाना किफायत साहब कलम के सिपाही भी थे उनकी लिखावट मे एक कला थी जो पढंने वाले में जोश भर देती थी फिर चाहे वह इस्लाम पर लिखे उनके आलेख हो या मुल्क की आज़ादी पर लिखी उनकी क्रान्तिकारी सोच हो.

मौलाना इस्लामिक तालीम के माहिर के साथ ही वह एक विद्वान व्यक्ति, लेखक व कवि भी थे, जिससे उनके द्वारा कई किताबें लिखी, जैसे तारजुमा-ए-शैमिल-ए-त्रिमीज़ी, मजूमूआ-ए-चहल हदीस, व्याख्यात्मक नोट्स के साथ, खय़बान-ए-फ़िरदौस, बहार-ए-खुल्ड, नसीम-ए-जन्नत, मौलुद -ए-बहार, जज्बा-ए-इश्क, दीवान-ए-इश्क आदि के अलावा पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब पर कई नात भी मौलाना किफायत अली साहब द्वारा बनाई गई! मौलाना ने शेख़ अबू सईद मुजादेदी रामपुरी से हदीस की शिक्षा ली और प्रसिद्ध कवि जकी मुरादाबाद की कविता सीखी.

कहते है कि जंगे आज़ादी की तहरीक (आंदोलन) चलाने में जिन उल्मा-ऐ-किराम का नाम आता है उनमे सबसे पहला नाम हजरते अल्लामा फजले हक खैराबादी साहब का आता है, उसके बाद हजरत सैयद किफायत अली काफी साहब का है जिन्होंने खुद को वतन पर कुर्बान कर आज़ादी की नींव को मज़बूत रखा जिससे एक आज़ाद भारत की बुंलद इमारत तैयार हो जिसके लिए उन्होने 1857 में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ एक फतवा जारी कर मुसलमानों को जेहाद के लिए खड़ा किया जिसकी मंज़िल सिर्फ आज़ाद भारत थी!

मौलाना लोगों में आज़ादी का अलख जलाने के लिए चलते रहे, आप जनरल बख्त खान रोहिल्ला की फौज में शामिल होकर दिल्ली आये व बाद में बरेली और इलाहाबाद तक गुलामी से लड़ते रहे.

मुरादाबाद, अंग्रेजो से आज़ाद कराने के बाद मौलाना किफायत साहब ने वहा के नवाब मजूद्दीन खान के नेतृत्व मे अपनी सरकार बनाई जिसमे आपको सदरे-शरीयत बनाया गया व नवाब साहब को हाक़िम मुकर्रर किया तथा इनके साथ अब्बास अली खान को तोपखाने की ज़िम्मेदारी दी और इस तरह आज़ाद मुरादाबाद में हर जुमे की नमाज़ के बाद अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ तकरीरे चलती जिसमे पूरे भारत की आज़ादी के लिए क्रान्तिकारी सोच को बढ़ावा दिया जाता.

डिस्ट्रिक गजेटियर (मुरादाबाद) में लिखा है कि मुसलमानों ने जिले भर मे ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ खुलकर अपनी आवाज़ बुलंद की.

उधर अंग्रेज़ हार चुके मुरादाबाद पर अपनी जीत हासिल करने के लिए रणनीति तैयार करने मे लगे थे क्योंकि जिस तरह मुरादाबाद में आज़ाद भारत की तस्वीर बुलंद की जा रही थी वो ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फैकने के लिए काफी थी इस बात से बाखबर हो अंग्रेज़ अफसर जनरल मोरिस ने अपनी फौज के साथ मुरादाबाद पर 21 अप्रैल 1858 को हमला किया, मुजाहिद लड़ाकों ने वतन की ख़ातिर अपनी जाने अड़ा दी उधर नवाब मजुद्दीन ने आखिरी वक्त तक अंग्रेजो से योध्दा बनकर लड़ते रहे और आखिरकार गोली खाकर शहादत पाई.

अचानक हुए इस हमले से, शिकस्त के बाद तमाम इंकलाबी रहनुमा बिखर से गये और जो अंग्रेजी हुकूमत द्वारा पकड़ लिए गये वो अधिकतर फांसी पर चढ़ा दिये गये लेकिन अंग्रेजो के लिए मौलाना किफ़ायत अली साहब को पकड़ना प्रमुख था क्योंकि ब्रिटिश हुकूमत के लिए मौलाना सनकी विद्रोही के रुप मे थे जो मुल्क की ख़ातिर स्वयं को न्योछावर करने का इंकलाबी जज़्बा रखते थे, और आखिरकार एक गद्दार की मुखबरी पर 30 अप्रैल को मौलाना किफायत अली काफ़ी को गिरफ्तार कर लिया गया फिर उन पर जो जुल्मो सितम की जो सज़ाए शुरु हुई उसकी ग्वाह जेल की चारदीवारी और वो वक्त है.

मौलाना की गिरफ्तारी के बाद अंग्रेजी हुकूमत ने पूरी तरह मुरादाबाद पर अपना नियंत्रण समझा और आनन फानन में एक आयोग का गठन किया गया जिसमे मौलाना की हुकूमत के खिलाफ विद्रोही तेवरो पर फैसला सुनाना था, आयोग के मजिस्ट्रेट श्री जॉन इंग्लसन ने अपने फैसले की घोषणा करते हुए कहा कि चूंकि अभियुक्त आरोपी ने अंग्रेजी सरकार के खिलाफ विद्रोह किया है,व जनता को संवैधानिक सरकार के खिलाफ उकसाकर बग़ावत की जिससे अभियुक्त का यह कार्य अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ खुला विद्रोह है, जिसके लिए वह गंभीर सजा का हकदार है। और इस आदेश के आधार पर मौलाना को फांसी की सज़ा का ऐलान कर दिया गया लेकिन सज़ा के ऐलान क बाद भी इस इकंलाबी मुजाहिद के चेहरे पर ना कोई शिकन थी और ना कोई डर था.

अंतत: मौत की वो घड़ी भी आ गई जिसमे उन्हें फांसी के तख्त तक ले जाया गया, इतिहास कार लिखते हैं कि उस समय उनके चेहरे पर एक नूर था और चेहरे पर मुस्कुराहट व होंठों पर अल्लाह और उसके नबी का ज़िक्र करते करते वह इंकलाबी 6 मई 1858 को वतन के लिए शहीद हो गया.

कहते हैं ना कि ग़द्दार भी पैदा होते रहे हैं ओर वफ़ादार भी, यह वही मुल्क के वीर योद्धा है जो आज़ादी की नींव मे मज़बूत पत्थर की तरह चुने गये लेकिन अफसोस आज़ाद भारत के इतिहास मे इनको ना कोई नाम मिला और ना ही इनको आज कोई याद करने वाला है.

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