सम्पादक की कलम से
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आज जब शादी ब्याह का सीजन चल रहा है तब देखने को मिल रहा कि लोग एक दूसरे से आगे निकलने के चक्कर मैं सब कुछ भूलते जा रहे हैं दहेज के लेन देन ओर दिखावे के साथ खाने की नुमाईश ने ग़रीब बहन बेटी वालों का जीना हराम कर दिया है, आज एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ लगी है क्या ये सही है, इसे सही कहा जा सकता है, क्या करना चाहिए ये सब रोकने के लिए, क्या ज़रूरत है ये सब रोकने की, ऐसे ही बहुत से सवालों के साथ हाज़िर है ये पोस्ट ?
मेरा कहना वैसे से हर हिन्दोस्तानी से है लेकिन मैं सबसे पहले इसकी पहल अपने सैफ़ी समाज से करना चाहता हुँ क्यूंकि ना जाने इस सबका ज़िम्मेदार मैं अपने समाज को मानता हुँ, बात कडवी है लेकिन सच है.
आज मैं देखता हुँ मेरे समाज के बीच सबसे ज़्यादा शादी ब्याह के खाने ओर दहेज को लेकर एक अजीब सी हलचल है हर बेटी वाला जिसको थोड़ी सी भी दौलत मिल गई है वो अपने लोगों के बीच सबसे ऊपर उठने की कोशिश करता है यहां किसी एक का नाम लेना सही नहीं होगा क्यूंकि इसकी फ़ेहरिस्त बहुत लम्बी है ख़ासकर यूपी वेस्ट मैं ?
मैं देख रहा हुँ शादी ब्याह मैं दावत के नाम पर खाने की बर्बादी की जा रही है जो खाना लाखों करोड़ों ज़रूरत मंदों को नसीब नहीं होता वो खाना हम इंसानों की बदइंतज़ामी ओर बदअख़लाकी की वजह से कुत्ते ओर जंगली जानवर खा रहे हैं, क्यूं भाई क्या हम अपनी जायज़ कमाई को इस तरहां लुटा सकते हैं या फिर हम ऐसी लुटती कमाई को जायज़ कमाई का नाम दे सकते हैं ?
शायद नहीं,
तब इसके लिए हमको अपने ओर अपने समाज के लोगों को बदलना होगा सोचना होगा कि हम अपनी कमाई को किस तरहां झूंठी शान की ख़ातिर बर्बाद होने से बचायें तब मैं सैफ़ी समाज के ज़िम्मेदार लोगों से कहना चाहुंगा कि उनकी पहचान दिखावे से नहीं है, पहचान तो वो बना चुके फिर ये दिखावा क्यूं ?
तब क्यूं ना ऐसे लोग अपनी सोच को बदलकर अपने ग़रीब अहबाब का कुछ ख़्याल करें, मेरी इस पोस्ट से बहुत लोगों को तक़लीफ़ तो होगी ओर होनी भी चाहिए क्यूंकि जब दर्द होता है दवा भी तभी ली जाती है, अब तक ऐसे लोग जिनमें शायद मैं भी एक हूं अपनों को दर्द देते रहे हैं, ना जाने कितनी मासूम ग़रीब बहन बेटियां इस दिखावे की ख़ातिर घरों मैं बैठी हैं अब हमको उनका ख़्याल करना होगा, अब ये देखना है कितने साथ आते हैं कितने मुझको बुरा कहते हैं.
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