दोस्तों आदाबो सलाम
"हक़ की बुलंद आवाज़" ये कोई जुमला नहीं है एक आवाज़ है उन लाखों करोड़ों मज़लूमों की जो अपने हक़ूक के लिए तरस रहे हैं, अपने हक़ों के लिए लड़ना चाहते हैं लेकिन कोई उनका साथ देने वाला नहीं है, यही सोच दिमाग़ मैं आते ही ये अल्फ़ाज़ दिमाग मैं घर कर गये तभी जुबान से निकला "हक़ की बुलंद आवाज़" एक दिन इन शा अल्लाह हम एक टीम बनाकर उठायेंगे, कोशिश भी की, जो सिर्फ आठ सप्ताह तक चल सकी ?
एक टीम बनाई थी टीम मैं एक से एक नायाब हीरे "हक़ की बुलंद आवाज़" को बुलंद करने के लिए खुले दिल से साथ आये ओर मेहनत भी की मगर अफ़सोस टीम का लीडर ही अपने मासूम चेहरे के पीछे एक ख़ौफ़नाक चेहरा छुपाये बैठा था, उसका मतलब समाज़ के साथ हमको भी या हमारे नाम से भी समाज को बेवकूफ बनाना था तब "हक़ की बुलंद आवाज़" की टीम ने फ़ैसला किया कि इस झूंठे दग़ाबाज़ से किनारा कर लिया जाये.
वही किया भी क्यूंकि कहते हैं ना चोर चोरी से जाये हेराफेरी से ना जाये तब हम क्यूं जानबूझकर ऐसे आदमी के साथ रहें ओर अपने इस टाईटिल को ऐसों को इस्तेमाल करने की खुली छूट दें ये टाईटिल समाज की निस्वार्थ ख़िदमत करने वालों के लिए है ना कि समाज को बेवकूफ बनाने वालों के लिए.
सुना है कुछ लोग मेरे इस टाईटल "हक़ की बुलंद आवाज़" का इस्तेमाल आज भी कर रहे हैं बता दूँ वो टाईटल का मान नहीं रख सकते उनके लिए "मासूमियत के साथ लूट" सही रहेगा, क्यूंकि वो चेहरे पर नक़ाब लगाये हैं मासूमियत का, लिहाज़ा मेरी गुजारिश है अपील है वो इससे बाज़ आयें वरना कानूनी कार्यवाही के लिए अपने को तैयार रखें मैं उनको सावधान करना चाहता हुँ.
एस एम फ़रीद भारतीय
लेखक, ब्लाॅगर, सम्पादक
मानवाधिकार कार्यकर्ता
"हक़ की बुलंद आवाज़"
ज़ुबान खोल बिंदास बोल
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