Friday 23 November 2018

दावते दीन क्या है क्या दीन की तब्लीग देना जायज है...?

एस एम फ़रीद भारतीय
अल्लाह ( ﺳﺒﺤﺎﻧﻪ ﻭﺗﻌﺎﻟﻰ ) फ़रमाते हैं :
﴿ ﻭَﻣَﻦْ ﺃَﺣْﺴَﻦُ ﻗَﻮْﻻً ﻣِّﻤَّﻦ ﺩَﻋَﺎ ﺇِﻟَﻰ ﺍﻟﻠَّﻪِ ﻭَﻋَﻤِﻞَ ﺻَﺎﻟِﺤﺎً ﻭَﻗَﺎﻝَ ﺇِﻧَّﻨِﻲ ﻣِﻦَ ﺍﻟْﻤُﺴْﻠِﻤِﻴﻦَ﴾
“और उस शख़्स से बेहतर किसका कलाम हो सकता है कि जो अल्लाह की तरफ़ दावत दे और नेक आमाल करे और कहे कि मैं मोमिनों में से हो” (सूरह फ़ुस्सलात: 41)
और अल्लाह ( ﺭﺏّ ﺍﻟﻌﺰّﺕ ) फ़रमाते हैं :
﴿ﻓَﻠِﺬَﻟِﻚَ ﻓَﺎﺩْﻉُ ﻭَﺍﺳْﺘَﻘِﻢْ ﻛَﻤَﺎ ﺃُﻣِﺮْﺕَ﴾
“इस दीन की तरफ़ दावत दो (ऐ मुहम्मद
ﺻﻠﻰ ﺍﻟﻠﻪ ﻋﻠﻴﻪ ﻭﺳﻠﻢ ) और इस्तिक़ामत के साथ जमे रहो जैसा कि तुम्हें हुक्म है” (सूरह-शूरा:51)
इस्लाम में अल्लाह की तरफ़ दावत एक फ़रीज़ा है और वो इबादत है जिसके ज़रीया दाअी अल्लाह ( ﺳﺒﺤﺎﻧﻪ ﻭﺗﻌﺎﻟﻰ ) का क़ुर्व तलाश करता है और उसे दावत के अज़ीम मर्तबे का एहसास होता है जिसके ज़रीये अल्लाह ( ﺭﺏّ ﺍﻟﻌﺰّﺕ ) इस दुनिया में और आख़िरत में दाअी के दरजात को बुलंद करते हैं । अल्लाह की तरफ़ दावत दर-हक़ीक़त नबियों का मिशन हुआ करता था जिसे अन्बिया ने सरअंजाम दिया और दावत ही के ज़रीये अल्लाह के दीन को दुनिया में क़ायम और नाफ़िज़ किया। अल्लाह ( ﺳﺒﺤﺎﻧﻪ ﻭﺗﻌﺎﻟﻰ) फ़रमाते हैं :
﴿ﻭَﻟَﻘَﺪْ ﺑَﻌَﺜْﻨَﺎ ﻓِﻲ ﻛُﻞِّ ﺃُﻣَّﺔٍ ﺭَّﺳُﻮﻻً ﺃَﻥِ ﺍﻋْﺒُﺪُﻭﺍْ ﺍﻟﻠّﻪَ ﻭَﺍﺟْﺘَﻨِﺒُﻮﺍْ ﺍﻟﻄَّﺎﻏُﻮﺕَ
“और यक़ीनन हमने हर एक उम्मत में रसूल भेजा है (जो जतलाए): तन्हा अल्लाह की इबादत करो और ताग़ूत (झूठे ख़ुदाओं ) से इजतिनाब करो” (सूरह नहल:63)
और अल्लाह ( ﺳﺒﺤﺎﻧﻪ ﻭﺗﻌﺎﻟﻰ ) फ़रमाते हैं :
﴿ﻳَﺎ ﺃَﻳُّﻬَﺎ ﺍﻟﻨَّﺒِﻲُّ ﺇِﻧَّﺎ ﺃَﺭْﺳَﻠْﻨَﺎﻙَ ﺷَﺎﻫِﺪﺍً ﻭَﻣُﺒَﺸِّﺮﺍً ﻭَﻧَﺬِﻳﺮﺍً
! ﻭَﺩَﺍﻋِﻴﺎً ﺇِﻟَﻰ ﺍﻟﻠَّﻪِ ﺑِﺈِﺫْﻧِﻪِ ﻭَﺳِﺮَﺍﺟﺎً ﻣُّﻨِﻴﺮﺍً﴾
“ए नबी! यक़ीनन हमने आप को गवाह बनाकर भेजा है बशारत देने और ख़बरदार करने वाला, और वो जो अल्लाह के इज़न से अल्लाह की तरफ़ दावत देता है, नूर फैलाता हुआ चिराग़ बना कर भेजा है” (सूरह अहज़ाब:45-46)

इसी तरह हमारे नबी करीम ( ﺻﻠﻰ ﺍﻟﻠﻪ ﻋﻠﻴﻪ ﻭﺳﻠﻢ ) ने इस्लाम लोगों तक पहुंचाया और उम्मत को ख़बरदार किया। वो इस ख़ातिर लोगों पर गवाह मुक़र्रर किए गए थे जिसके बारे में लोगों को उन्होंने दुनिया में दावत दी लिहाज़ा उन्होंने लोगों को बुलाकर इस (दावत) के लिए गवाही देने का मुतालिबा किया और फिर इस पर अल्लाह से मुख़ातिब होकर अल्लाह को इसके लिए गवाह बनाया। ये वो बात थी जो उन्होंने हज्जतुल-विदा के मौक़े पर फ़रमाई :
...)) ﺃﻻ ﻫﻞ ﺑﻠﻐﺖ؟ ﺍﻟﻠﻬﻢ ﻓﺎﺷﻬﺪ ((
‘क्या मैंने पहुंचा दिया? ऐ मेरे रब गवाह रहना’ (रिवाया: अल बुख़ारी)

इस तरह दावत नबी ( ﺻﻠﻰ ﺍﻟﻠﻪ ﻋﻠﻴﻪ ﻭﺳﻠﻢ ) की मीरास हुई जो इस अज़ीम उम्मत तक पहुंची है चुनांचे अगर हमें इस्लाम हमारे बीच महफ़ूज़ रखना है तो हमें हर हाल में दावत को महफ़ूज़ रखना होगा। क्योंकि कोई ये तसव्वुर नहीं कर सकता कि इस्लाम को वजूद में लाने की दावत दिए बगै़र इस्लाम दुनिया में सक्रिय हो जाए और मुसलमानों और इंसानों की दुनियावी ज़िंदगी में अल्लाह का दीन स्थापित हो जाए और उनकी ज़िंदगीयां इस दीन के मुताबिक़ गुज़रने लगीं, ये भी कोई तसव्वुर नहीं कर सकता कि इस्लाम की दावत के बगै़र इस्लाम वज़ाहत के साथ और मुफस्सिल अंदाज़ में उसके मानने वालों के ज़हनों में भी बाक़ी बच सके क्योंकि ये दावत ही है जो दरअसल ज़हनों को गुमराह अफ़्क़ार और उसकी स्याह कारीयों से शुद्ध करती है और ज़िंदगी के हर पहलू में इस्लाम के तरीके-कार की नुमायां अंदाज़ में वज़ाहत करती है और उन्हें मंज़रे आम पर सामने लाती है और ये भी कोई तसव्वुर नहीं कर सकता कि इस्लाम को क़ायम करने की दावत दिए बगै़र भी उसे कभी क़ायम किया जा सकता है और ये भी कोई तसव्वुर नहीं कर सकता कि इस्लाम को फैलाने की दावत के बगै़र इस्लाम पुख़्तगी के साथ फैल भी सकता है,
अगर इस्लाम की दावत ना होती तो दीने इस्लाम ना इतना मज़बूत हो पाता और ना इस क़दर फैल पाता और ना ही उसकी हिफ़ाज़त भी हो पाती, इसके अलावा सबसे अहम अल्लाह ( ﺳﺒﺤﺎﻧﻪ ﻭﺗﻌﺎﻟﻰ ) की हुज्जत अल्लाह ( ﺳﺒﺤﺎﻧﻪ ﻭﺗﻌﺎﻟﻰ ) की मख़लूक़ के ख़िलाफ़ क़ायम ना हो पाती.
चुनांचे दीने इस्लाम, इस्लाम की तरफ़ दावत के ही ज़रीये अपने रोशन माज़ी और एक मज़बूत और ताक़तवर वजूद को हासिल कर सकता है जिसकी आज हमें अज़ जल्द ब अशद ज़रूरत है चुनांचे इस्लाम को इस्लाम की तरफ़ दावत के ज़रीये ही लोगों के बीच फैलाया जा सकता है और इस तरह दीन ख़ालिस अल्लाह के लिए हो सकेगा यानी तमाम इंसानों के लिए दीन सिर्फ़ और सिर्फ़ ही बाक़ी और नाफ़िज़ हो सकेगा दूसरे शब्दों में अल्लाह ( ﺳﺒﺤﺎﻧﻪ ﻭﺗﻌﺎﻟﻰ ) का दीन तमाम अदयान (दीनों) पर ग़ालिब हो सकेगा और दुनिया को इस्लाम के निफ़ाज़ की और इस दावत की ज़रूरत इस दौर से पहले इतनी कभी नहीं थी ।
ये इस्लामी दावत ही है जिसके नतीजा में मुस्लिम की दलील खुल कर मंज़रे आम पर आती है, इस्लाम के बरहक़ होने की सच्चाई खुल कर आम होती है जिसके नतीजे में काफ़िर की दलील कमज़ोर होकर बिलआख़िर बिखर जाती है चुनांचे इस्लाम की दलालत स्पष्ट होने के बाद काफ़िरों को इस्लाम से दस्तबरदार होने के लिए माफ़ी नहीं मिल सकेगी इस तरह उनके ख़िलाफ़ अल्लाह की हुज्जत क़ायम हो जाती है.

चुनांचे अल्लाह ( ﺳﺒﺤﺎﻧﻪ ﻭﺗﻌﺎﻟﻰ ) इरशाद फ़रमाते हैं :
﴿ﺭُّﺳُﻼً ﻣُّﺒَﺸِّﺮِﻳﻦَ ﻭَﻣُﻨﺬِﺭِﻳﻦَ ﻟِﺌَﻼَّ ﻳَﻜُﻮﻥَ ﻟِﻠﻨَّﺎﺱِ ﻋَﻠَﻰ ﺍﻟﻠّﻪِ ﺣُﺠَّﺔٌ ﺑَﻌْﺪَ ﺍﻟﺮُّﺳُﻞِ ﻭَﻛَﺎﻥَ ﺍﻟﻠّﻪُ ﻋَﺰِﻳﺰﺍً ﺣَﻜِﻴﻤﺎً﴾
“पै दर पै बशारत देने वाले और ख़बरदार करने वाले रसूल भेजे ताकि उन रसूलों के आ जाने के बाद अल्लाह के बिलमुक़ाबिल इंसान कोई हुज्जत क़ायम ना कर सकें और अल्लाह बड़ा ही ताक़तवर और बड़ी ही हिक्मत वाला है” । (सूरह निसा:165)
इन कारणों के आधार पर इस्लाम की दावत मुसलमानों के नज़दीक इतनी ज़्यादा एहमीयत रखती है और उसकी इसी एहमीयत की बुनियाद पर क़ुरून ऊला के मुसलमानों ख़ास तौर से हुज़ूर ( ﺻﻠﻰ ﺍﻟﻠﻪ ﻋﻠﻴﻪ ﻭﺳﻠﻢ ) के साथ मिल कर सहाबा-ए-किराम ( ﺭﺿﯽ ﺍﻟﻠﮧ ﻋﻨﮭﻢ ) ने उसे अंजाम दिया और जितनी तवज्जोह उन्होंने दीन इस्लाम पर दी उतनी ही तवज्जोह उन्होंने उसकी दावत पर भी दी अगर इस्लामी दावत ना होती तो इस्लाम आज हम तक ना पहुंचा होता और लाखों लोगों ने इस्लाम क़बूल ना किया होता बल्कि दीने इस्लाम हुज़ूर अक़्दस ( ﺻﻠﻰ ﺍﻟﻠﻪ ﻋﻠﻴﻪ ﻭﺳﻠﻢ ) की ज़ाते मुबारक तक ही सीमित रहता और आगे ना फैला होता चुनांचे अल्लाह ( ﺟﻞ ﺷﺎﻧﮧ ) का पहला इरशाद ये था जो हुज़ूर पर नाज़िल हुआ
﴿ﺍﻗْﺮَﺃْ﴾
“पढ़ो” (सूरह अलक़:1)
अल्लाह ( ﺭﺏّ ﺍﻟﻌﺰّﺕ ) ने हुज़ूर ( ﺻﻠﻰ ﺍﻟﻠﻪ ﻋﻠﻴﻪ ﻭﺳﻠﻢ ) को हुक्म दिया कि वो ख़ुद पढ़ें और फिर लोगों तक इसे पढ़ कर सुनाएं । शुरुआत की इन अव्वलीन नाज़िल करदा आयतों में से एक आयत में अल्लाह ( ﺭﺏّ ﺍﻟﻌﺰّﺕ ) इरशाद फ़रमाते हैं:-
﴿ﻗُﻢْ ﻓَﺄَﻧﺬِﺭ﴾
“उठो और ख़बरदार करो” (मुदस्सिर:2)
रसूल ( ﺻﻠﻰ ﺍﻟﻠﻪ ﻋﻠﻴﻪ ﻭﺳﻠﻢ ) की दावत ने इस्लाम को उसके तमाम पहलूओं के साथ अवामुन्नास के सामने पेश किया और उस समाज में दावत के ज़रीये ऐसे अव्वलीन मुसलमान तामीर किए जो पैग़ंबर ( ﷺ ) के चले जाने के बाद भी इस ख़ैर यानी इस्लाम के पैग़ाम को पहुंचाने में बेहतरीन साबित हुए और फ़िर उन अव्वलीन मुसलमानों की दावत ने बाद में आने वालों तक इस्लाम को पहुंचाया। चुनांचे ये दावत आज के दौर में भी इसी तर्ज़ पर क़यामत तक जारी रहना ज़रूरी है.

क्योंकि इस्लाम और दावत का ताल्लुक़ वैसा ही है जैसा आब और बहाव (flow) का ताल्लुक़ है जिस तरह पानी सिंचाई के ज़रीये बंजर ज़मीन को ज़रख़ेर बनाता है और प्यास बुझाता है लोगों तक ख़ुशहाली व भलाई लाता है और जिस तरह पानी को खींचने के लिए किसी वसीले की, ज़रीए की ज़रूरत होती है बिलकुल इसी तरह इस्लाम जो एक दीनी हक़ और ज़िंदगी गुज़ारने का सही और मुकम्मल तरीक़ा है उसकी दावतो-इशाअतो-तब्लीग़ की ख़ातिर वसीला या ज़राए की ज़रूरत होती है उसकी ख़ैर व भलाई लोगों तक पहुंचाने के लिए, इस्लाम की तरसील के लिए ताकि लोग इस्लाम से सेराब हो सकें, उनकी प्यास बुझाई जा सके और ऐसे लोग जो रज़ाए इलाही की तलब रखते हो वो हिदायत पा सकें.
चुनांचे इस्लाम से इस्लाम की दावत का एक मज़बूत ताल्लुक़ ज़ाहिर होता है । इसी ताल्लुक़ के आधार पर दावत को इस्लाम में एक नुमायां एहमीयत और बुनियादी सतून की हैसियत हासिल है, इस्लाम को इस्लाम का असरो रसूख़ पैदा करने के लिए इस्लाम की दावत की ज़रूरत पड़ती है और इसके लिए ये भी ज़रूरी हो जाता है कि इस्लाम की ये दावत ख़ूब फैले । इस्लाम के इतिहास में शुरुआत ही से दावत का ज़माना इस्लाम का ज़माना साबित हुआ और दावत की ज़िंदगी ही दरहक़ीक़त इस्लाम की ज़िंदगी साबित हुई है और ये चीज़ क़यामत तक बरहक़ है यहाँ तक कि अल्लाह ज़मीन को लपेट कर रख देगा। चुनांचे मुसलमानों का उनकी ज़िंदगी में भी दावत को बदरजा एहमीयत दिया जाना लाज़िमी है। मुसलमानों का हमेशा दावत के लिए चिंतामग्न (preoccupied) रहना बेहद ज़रूरी है और इसमें वो अपनी तमाम तर मेहनत और वक़्त लगाऐं.

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