एस एम फ़रीद भारतीय
ईद मिलादुल नबी की छुट्टी सरकार की तरफ़ से मुस्लिमों के लिए झुनझुना है, जो फ़िज़ूल ख़र्ची के सिवा, देश के लिए बोझ है, सोचो ज़रा दुनियां ओर इंसानियत के महबूब पैगम्बर सलल्ललाहो अलेयहि वस्सल्लम की शान ऐसी ही थी क्या...? कौनसी सुन्नत को अदा कर रहे हैं हम...? क्या नबी ए पाक सलल्ललाहो अलेयहि वस्सल्लम ने किसी ख़लीफ़ा या सहाबा कराम के साथ अपनी ज़िंदगी मैं कभी अपना जन्मदिन मनाया, कौन रोकता सिवा अल्लाह के ओर आज तमाम दुनियां एक साथ मना रही होती...?
आज जहां देश को आपके नाम पर करोड़ों रूपये का चूना लगाया जा रहा है वहीं आपका जन्म दिन मनाने मैं करोड़ों रूपया फ़िज़ूल ख़र्च करने के साथ भीड़ के तौर पर लोगों को परेशान किया जा रहा है, जबकि आप सलल्ललाहु अलेयहि वसल्लम एक एक पैसे की फ़िक्र ज़रूरतमंदो के लिए किया करते थे.
एक मुसलमान की ज़िन्दगी क्या होती है देखनी है तो अल्लाह के आखरी पैगम्बर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की जीवनी (ज़िन्दगी) से अच्छी मिसाल दुनिया में कोई नही है, आज हम आपके जीवन का एक संक्षिप्त परिचय पेश करेंगे...?
आपका हसब-नसब (वंश) {पिता की तरफ़ से}:
मुह्म्मदुर्रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम बिन, अब्दुल्लाह बिन, अब्दुल मुत्तलिब बिन, हाशम बिन, अब्दे मुनाफ़ बिन, कुसय्य बिन, किलाब बिन, मुर्रा बिन, क-अब बिन, लुवय्य बिन, गालिब बिन, फ़हर बिन, मालिक बिन, नज़्र बिन, कनाना बिन, खुज़ैमा बिन, मुदरिका बिन, इलयास बिन, मु-ज़र बिन, नज़ार बिन, मअद बिन, अदनान, शीस बिन,आदम अलैहिस्सल्लाम. { यहां “बिन” का मतलब “सुपुत्र” या “Son Of” से है } अदनान से आगे के शजरा (हिस्से) में बडा इख्तिलाफ़ (मतभेद) हैं. नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अपने आपको “अदनान” ही तक मन्सूब फ़रमाते थे.
आपका हसब-नसब (वंश) {मां की तरफ़ से}:
मुह्म्मदुर्रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम बिन, आमिना बिन्त, वहब बिन, हाशिम बिन, अब्दे मुनाफ़…………………।
आपकी वालिदा का नसब नामा तीसरी पुश्त पर आपके वालिद के नसब नामा से मिल जाता है.
आपके बुज़ुर्गों के कुछ नाम:
वालिद (पिता) का नाम अब्दुल्लाह और वालिदा (मां) आमिना, चाचा का नाम अबू तालिब और चची का हाला। दादा का नाम अब्दुल मुत्तलिब, दादी का फ़ातिमा, नाना का नाम वहब, और नानी का बर्रा, परदादा का नाम हाशिम और परदादी का नाम सलमा.
आपकी पैदाइश:
आप सल्लाहु अलैहि वसल्लम की पैदाइश की तारीख में कसीर इख्तेलाफ़ पाया जाता है ,.. जैसे ८, ९, १२ रबीउल अव्वल ,.. एक आमुल फ़ील (अब्रहा के खान-ए-काबा पर आक्रमण के एक वर्ष बाद) 22 अप्रैल 571 ईसवीं, पीर (सोमवार) को बहार के मौसम में सुबह सादिक (Dawn) के बाद और सूरज निकलने से पहले (Before Sunrise) हुई, (साहित्य की किताबों में पैदाइश की तिथि 12 रबीउल अव्वल लिखी है वह बिल्कुल गलत है, दुनिया भर में यही मशहूर है लेकिन उस तारीख के गलत होने में तनिक भर संदेह नही)
आपके मुबारक नाम:
आपके दादा अब्दुल मुत्तालिब पैदाइश ही के दिन आपको खान-ए-काबा ले गये और तवाफ़ करा कर बडी दुआऐं मांगी, सातंवे दिन ऊंट की कुर्बानी कर के कुरैश वालों की दावत की और “मुह्म्मद” नाम रखा, आपकी वालिदा ने सपने में फ़रिश्ते के बताने के मुताबिक “अहमद” नाम रखा, हर शख्स का असली नाम एक ही होता है, लेकिन यह आपकी खासियत है कि आपके दो अस्ली नाम हैं, “मुह्म्मद” नाम का सूर: फ़तह पारा: 26 की आखिरी आयत में ज़िक्र है और “अहमद” का ज़िक्र सूर: सफ़्फ़ पारा: 28 आयत न० 6 में है, सुबहानल्लाह क्या खूबी है.
आपके वालिद (पिता) का देहान्त :
जनाब अब्दुल्लाह निकाह के मुल्क शाम तिजारत (कारोबार) के लिये चले गये वहां से वापसी में खजूरों का सौदा करने के लिये मदीना शरीफ़ में अपनी दादी सलमा के खानदान में ठहर गये, और वही बीमार हो कर एक माह के बाद 26 वर्ष की उम्र में इन्तिकाल (देहान्त) कर गये। और मदीना ही में दफ़न किये गये, बहुत खुबसुरत जवान थे, जितने खूबसूरत थे उतने ही अच्छी सीरत भी थी, एक महिला आप पर आशिक हो गयी और वह इतनी प्रेम दीवानी हो गई कि खुद ही 100 ऊंट दे कर अपनी तरफ़ मायल (Attract) करना चाहा, लेकिन इन्होंने यह कह कर ठुकरा दिया कि “हराम कारी करने से मर जाना बेहतर है”, जब वालिद का इन्तिकाल हुआ तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मां के पेट में ही थे.
आपकी वालिदा (मां) का देहान्त:
वालिदा के इन्तिकाल की कहानी बडी अजीब है, जब अपने शौहर की जुदाई का गम सवार हुआ तो उनकी ज़ियारत के लिये मदीना चल पडीं और ज़ाहिर में लोगों से ये कहा कि मायके जा रही हूं, मायका मदीना के कबीला बनू नज्जार में था, अपनी नौकरानी उम्मे ऐमन और बेटे मुह्म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को लेकर मदीना में बनू नज्जार के दारुन्नाबिगा में ठहरी और शौहर की कब्र की ज़ियारत की, वापसी में शौहर की कब्र की ज़ियारत के बाद जुदाई का गम इतना घर कर गया कि अबवा के स्थान तक पहुचंते-पहुचंते वहीं दम तोड दिया, बाद में उम्मे ऐमन आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को लेकर मक्का आयीं.
आपके दादा-चाचा की परवरिश में:
वालिदा के इन्तिकाल के बाद 74 वर्ष के बूढें दादा ने पाला पोसा, जब आप आठ वर्ष के हुये तो दादा भी 82 वर्ष की उम्र में चल बसे, इसके बाद चचा “अबू तालिब” और चची “हाला” ने परवरिश का हक अदा कर दिया.
नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सबसे अधिक परवरिश (शादी होने तक) इन्ही दोनों ने की। यहां यह बात ज़िक्र के काबिल है कि मां “आमिना” और चची “हाला” दोनो परस्पर चची जात बहनें हैं, वहब और वहैब दो सगे भाई थे, वहब की लडकी आमिना और वहैब की हाला (चची) हैं, वहब के इन्तिकाल के बाद आमिना की परवरिश चचा वहैब ने की, वहैब ने जब आमिना का निकाह अब्दुल्लाह से किया तो साथ ही अपनी लड़की हाला का निकाह अबू तालिब से कर दिया, मायके में दोनों चचा ज़ात बहनें थी और ससुराल में देवरानी-जेठानीं हो गई, ज़ाहिर है हाला, उम्र में बडी थीं तो मायके में आमिना को संभाला और ससुराल में भी जेठानी की हैसियत से तालीम दी, फ़िर आमिना के देहान्त के बाद इन के लड़के मुह्म्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को पाला पोसा, आप अनुमान लगा सकते हैं कि चचा और विशेषकर चची ने आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की परवरिश किस आन-बान और शान से की होगी एक तो बहन का बेटा समझ कर, दूसरे देवरानी का बेटा मानकर….।
आपका बचपन:
आपने अपना बचपन और बच्चों से भिन्न गुज़ारा, आप बचपन ही से बहुत शर्मीले थे, आप में आम बच्चों वाली आदतें बिल्कुल ही नही थीं, शर्म और हया आपके अन्दर कूट-कूट कर भरी हुयी थी, काबा शरीफ़ की मरम्मत के ज़माने में आप भी दौड़-दौड़ कर पत्थर लाते थे जिससे आपका कन्धा छिल गया, आपके चचा हज़रत अब्बास ने ज़बरदस्ती आपका तहबन्द खोलकर आपके कन्धे पर डाल दिया तो आप मारे शर्म के बेहोश हो गये.
दायी हलीमा के बच्चों के साथ खूब घुल-मिल कर खेलते थे, लेकिन कभी लडाई-झगडा नही किया, उनैसा नाम की बच्ची की अच्छी जमती थी, उसके साथ अधिक खेलते थे, दाई हलीमा की लड़की शैमा हुनैन की लडाई में बन्दी बनाकर आपके पास लाई गई, तो उन्होने अपने कन्धे पर दांत के निशान दिखाये, जो आपने बचपन में किसी बात पर गुस्से में आकर काट लिया था.
आपकी तिजारत का आरंभ :
12 साल की उम्र में आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपना पहला तिजारती सफ़र (बिज़नेस टूर) आरंभ किया जब चचा अबू तालिब अपने साथ शाम के तिजारती सफ़र पर ले गये, इसके बाद आपने स्वंय यह सिलसिला जारी रखा, हज़रत खदीजा का माल बेचने के लिये शाम ले गये तो बहुत ज़्यादा लाभ हुआ, आस-पास के बाज़ारों में भी माल खरीदने और बेचने जाते थे.
आपका खदीजा (र.अ.) से निकाह:
एक बार हज़रत खदीजा ने आपको माल देकर मुल्क शाम (Syria Country) भेजा और साथ में अपने गुलाम मैसरा को भी लगा दिया, अल्लाह के फ़ज़्ल से तिजारत में खूब मुनाफ़ा हुआ, मैसरा ने भी आपकी ईमानदारी और अच्छे अखलाक की बडी प्रशंसा की, इससे प्रभावित होकर ह्ज़रत खदीजा ने खुद ही निकाह का पैगाम भेजा,
आपने चचा अबू तालिब से ज़िक्र किया तो उन्होने अनुमति दे दी, आपके चचा हज़रत हम्ज़ा ने खदीजा के चचा अमर बिन सअद से रसुल’अल्लाह के वली (बडे) की हैसियत से बातचीत की और 20 ऊंटनी महर (निकाह के वक्त औरत या पत्नी को दी जाने वाली राशि या जो आपकी हैसियत में हो) पर चचा अबू तालिब ने निकाह पढा.
– हज़रते खदीजा(र.अ.) का यह तीसरा निकाह था, पहला निकाह अतीक नामी शख्स से हुआ था जिनसे 3 बच्चे हुये। उनके इन्तिकाल (देहान्त) के बाद अबू हाला से हुआ था, फिर उनका भी इन्तेकाल हुआ, आखिर में हज़रते खदीजा (र.अ) का निकाह आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से हुआ और आपको उम्माहतुल मोमिनीन यानी उम्मत की मां का शर्फ़ हासिल हुआ, निकाह के समय आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की आयु 25 वर्ष और खदीजा की उम्र 40 वर्ष थी.
आपकी गारे-हिरा में इबादत:
हज़रत खदीजा से शादी के बाद आप घरेलू मामलों से बेफ़िक्र हो गये, पानी और सत्तू साथ ले जाते और हिरा पहाडी के गार (गुफ़ा) में दिन-रात इबादत में लगे रहते, मक्का शहर से लगभग तीन मील की दूरी पर यह पहाडी पर स्थित है और आज भी मौजुद है, हज़रत खदीजा बहुत मालदार थी इसलिये आपकी गोशा-नशीनी (काम/इबादत/ज़िन्दगी) में कभी दखल नही दिया और न ही तिजारत का कारोबार देखने पर मजबूर किया बल्कि ज़ादे-राह (रास्ते के लिये खाना) तय्यार करके उनको सहूलियत फ़रमाती थीं.
आपकी समाज-सुधार कमेटी:
हिरा के गार में इबादत के ज़माने में बअसर लोगों की कमेटी बनाने का मशवरा आपही ने दिया था और आप ही की कोशिशों से यह कमेटी अमल में लायी गयी थी, इस कमेटी का मकसद यह था कि मुल्क से फ़ितना व फ़साद खत्म करेंगे, यात्रियों की सुरक्षा करेंगे और गरीबों की मदद करेंगे.
आपका सादिक-अमीन का खिताब:
जब आप की उम्र 35 वर्ष की हुयी तो “खान-ए-काबा” के निर्माण के बाद “हज-ए-अस्वद” के रखने को लेकर कबीलों के दर्मियान परस्पर झगडां होने लगा। मक्का के लोग आप को शुरु ही से “अमीन” और “सादिक” जानते-मानते थे, चुनान्चे आप ही के हाथों इस झगडें का समापन कराया और आप ने हिकमत और दुर-अन्देशी से काम लेकर मक्का वालों को एक बहुत बढे अज़ाब से निजात दिलाई.
आपकी नबुव्वत-रिसालत:
– चांद के साल के हिसाब से चालीस साल एक दिन की आयु में नौ रबीउल अव्वल सन मीलादी दोशंबा के दिन आप पर पहली वही (सन्देंश) उतरी, उस समय आप गारे-हिरा में थे, नबुव्वत की सूचना मिलते ही सबसे पहले ईमान लाने वालों खदीजा (बीवी) अली (भाई) अबू बक्र (मित्र) ज़ैद बिन हारिसा (गुलाम) शामिल हैं.
» दावत-तब्लीग :- तीन वर्ष तक चुपके-चुपके लोगों को इस्लाम की दावत दी, बाद में खुल्लम-खुल्ला दावत देने लगे, जहां कोई खडा-बैठा मिल जाता, या कोई भीड नज़र आती, वहीं जाकर तब्लीग करने लगे.
» कुंबे में तब्लीग: – एक रोज़ सब रिश्ते-दारों को खाने पर जमा किया। सब ही बनी हाशिम कबीले के थे, उनकी तादाद चालीस के लग-भग थी, उनके सामने आपने तकरीर फ़रमाई, हज़रत अली इतने प्रभावित हुए कि तुरन्त ईमान ले आये और आपका साथ देने का वादा किया.
» आम तब्लीग: – आपने खुलेआम तब्लीग करते हुये “सफ़ा” की पहाडी पर चढकर सब लोगों को इकट्ठा किया और नसीहत फ़रमाते हुये लोगों को आखिरत की याद दिलाई और बुरे कामों से रोका, लोग आपकी तब्लीग में रोडें डालने लगे और धीरे-धीरे ज़ुल्म व सितम इन्तहा को पहुंच गये, इस पर आपने हबश की तरफ़ हिजरत करने का हुक्म दे दिया.
» हिज़रत-हबश: चुनान्चे (इसलिये) आपकी इजाज़त से नबुव्वत के पांचवे वर्ष रजब के महीने में 12 मर्द और औरतों ने हबश की ओर हिजरत की, इस काफ़िले में आपके दामाद हज़रत उस्मान और बेटी रुकय्या भी थीं, इनके पीछे 83 मर्द और 18 औरतों ने भी हिजरत की, इनमें हज़रत अली के सगे भाई जाफ़र तय्यार भी थे जिन्होने बादशाह नजाशी के दरबार में तकरीर की थी । नबुव्वत के छ्ठें साल में हज़रत हम्ज़ा और इनके तीन दिन बाद हज़रत उमर इस्लाम लाये, इसके बाद से मुस्लमान काबा में जाकर नमाज़े पढने लगे.
» घाटी में कैद: मक्का वालों ने ज़ुल्म-ज़्यादती का सिलसिला और बढाते हुये बाई-काट का ऎलान कर दिया, यह नबुव्वत के सांतवे साल का किस्सा है, लोगों ने बात-चीत, लेन-देन बन्द कर दिया, बाज़ारों में चलने फ़िरने पर पाबंदी लगा दी.
» चचा का इन्तिकाल (देहान्त): – नबुव्वत के दसवें वर्ष आपके सबसे बडे सहारा अबू तालिब का इन्तिकाल हो गया, इनके इन्तिकाल से आपको बहुत सदमा पहुंचा.
» बीवी का इन्तिकाल (देहान्त): – अबू तालिब के इन्तिकाल के ३ दिन पश्चात आपकी प्यारी बीवी हज़रत खदीजा रजी० भी वफ़ात कर गयीं, इन दोनों साथियों के इन्तिकाल के बाद मुशरिकों की हिम्मत और बढ गई, सर पर कीचड और उंट की ओझडी (आंते तथा उसके पेट से निकलने वाला बाकी सब पेटा वगैरह) नमाज़ की हालत में गले में डालने लगे.
आपका ताइफ़ का सफ़र:
– नबुव्वत के दसवें वर्ष दावत व तब्लीग के लिये ताइफ़ का सफ़र किया, जब आप वहा तब्लीग के लिये खडें होते तो सुनने के बजाए लोग पत्थर बरसाते, आप खून से तरबतर हो जाते, खून बहकर जूतों में जम जाता और वज़ु के लिये पांव से जुता निकालना मुश्किल हो जाता, गालियां देते, तालियां बजाते, एक दिन तो इतना मारा कि आप बेहोश हो गये.
आपकी मुख्तलिफ़ स्थानों पर तब्लीग:
– नबुव्वत के ग्यारवें वर्ष में आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम रास्तों पर जाकर खडें हो जाते और आने-जाने वालों तब्लीग (इस्लाम की दावत) करते, इसी वर्ष कबीला कन्दा, बनू अब्दुल्लाह, बनू आमिर, बनू हनीफ़ा का दौरा किया और लोगों को दीन इस्लाम की तब्लीग की, सुवैद बिन सामित और अयास बिन मआज़ इन्ही दिनों ईमान लाये.
आपका इस्रा और मेराज का वाकिया :
नबुव्वत के 12 वें वर्ष 27 रजब को 51 वर्ष 5 माह की उम्र में आपको मेराज हुआ और पांच वक्की नमाज़े फ़र्ज़ हुयीं । इससे पूर्व दो नमाज़े फ़ज्र और अस्र ही की पढी जाती थी, इन्ही दिनों तुफ़ैल बिन अमर दौसी और अबू ज़र गिफ़ारी ईमान लाये, इस तारीख में उम्मत में बोहोत इख्तेलाफ़ है .. (अल्लाहु आलम)
» घाटी की पहली बैअत: नबुव्वत के ग्यारवें वर्ष हज के मौसम में रात की तारीकी में छ: आदमियों से मुलाकात की और अक्बा के स्थान पर इन लोगों ने इस्लाम कुबुल किया, हर्र और मिना के दर्मियान एक स्थान का नाम “अकबा” (घाटी) है, इन लोगों ने मदीना वापस जाकर लोगों को इस्लाम की दावत दी, बारहवें नबुव्वत को वहां से 12 आदमी और आये और इस्लाम कुबूल किया.
» घाटी की दुसरी बैअत: 13 नबुव्वत को 73 मर्द और दो महिलाओं ने मक्का आकर इस्लाम कुबुल किया, ईमान उसी घाटी पर लाये थे, चूंकि यह दुसरा समुह था इसलिये इसको घाटी की दुसरी बैअत कहते हैं.
आपकी हिजरत (migration) :
27 सफ़र, 13 नबुव्वत, जुमेरात (12 सितंबर 622 ईसंवीं) के रोज़ काफ़िरों की आखों में खाक मारते हुये घर से निकले । मक्का से पांच मील की दुरी पर “सौर” नाम के एक गार में 3 दिन ठहरे । वहां से मदीना के लिये रवाना हुये । राह में उम्मे मअबद के खेमें में बकरी का दुध पिया.
» कुबा पहुंचना: 8 रबीउल अव्वल 13 नबुव्वत, पीर (सोमवार) के दिन (23 सितंबर सन 622 ईंसवीं) को आप कुबा पहुंचें, आप यहां 3 दिन तक ठहरे और एक मस्ज़िद की बुनियाद रखी, इसी साल बद्र की लडाई हुई, यह लडाई 17 रमज़ान जुमा के दिन हुई, 3 हिजरी में ज़कात फ़र्ज़ हुई, 4 हिजरी में शराब हराम हुई, 5 हिजरी में औरतों को पर्दे का हुक्म हुआ.
» उहुद की लडाई: 7 शव्वाल 3 हिजरी को सनीचर (शनिवार) के दिन यह लडाई लडी गयी । इसी लडाई में रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के चन्द सहाबा ने नाफ़रमानी की, जिसकी वजह से कुछ दे के लिये पराजय का सामना करना पडा और आपके जिस्म पर ज़ख्म आये.
» सुलह हुदैबिय्या: 6 हिजरी में आप उमरा के लिये मदीना से मक्का आये, लेकिन काफ़िरों ने इजाज़त नही दी और चन्द शर्तों के साथ अगले वर्ष आने को कहा, आपने तमाम शर्तों को मान लिया और वापस लौट गये.
» बादशाहों को दावत: 6 हिजरी में ह्ब्शा, नजरान, अम्मान, ईरान, मिस्र, शाम, यमामा, और रुम के बादशाहों को दावती और तब्लीगी खत लिखे, हबश, नजरान, अम्मान के बादशाह ईमान ले आये.
» सात हिजरी: 7 हिजरी में नज्द का वाली सुमामा, गस्सान का वाली जबला वगैरह इस्लाम लाये, खैबर की लडाई भी इसी साल में हुई.
आपकी फ़तह – मक्का:
8 हिजरी में मक्का फ़तह हुआ, इसकी वजह 6 हिजरी मे सुल्ह हुदैबिय्या का मुआहिदा तोडना था, 20 रमज़ान को शहर मक्का के अन्दर दाखिल हुये और ऊंट पर अपने पीछे आज़ाद किये हुये गुलाम हज़रत ज़ैद के बेटे उसामा को बिठाये हुये थे, इस फ़तह में दो मुसलमान शहीद और 28 काफ़िर मारे गये, आप सल्लल्लाहुए अलैहि ने माफ़ी का एलान फ़रमाया.
» आठ हिजरी: 8 हिजरी में खालिद बिन वलीद, उस्मान बिन तल्हा, अमर बिन आस, अबू जेहल का बेटा ईकरमा वगैरह इस्लाम लाये और खूब इस्लाम लाये.
» हुनैन की जंग: मक्का की हार का बदला लेने और काफ़िरों को खुश रखने के लिये शव्वाल 8 हिजरी में चार हज़ार का लश्कर लेकर हुनैन की वादी में जमा हुए, मुस्लमान लश्कर की तादाद बारह हज़ार थी लेकिन बहुत से सहाबा ने रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की नाफ़रमानी की, जिसकी वजह से पराजय का मुंह देखना पड़ा, बाद में अल्लाह की मदद से हालत सुधर गई.
» नौ हिजरी: इस साल हज फ़र्ज़ हुआ. चुनांन्चे इस साल हज़रत सिद्दीक रज़ि० की कियादत (इमामत में, इमाम, यानि नमाज़ पढाने वाला) 300 सहाबा ने हज किया । फ़िर हज ही के मौके पर हज़रत अली ने सूर : तौबा पढ कर सुनाई.
आपका आखिरी हज :
10 हिजरी में आपने हज अदा किया, आपके इस अन्तिम हज में एक लाख चौबीस हज़ार मुस्लमान शरीक हुए, इस हज का खुत्बा (बयान या तकरीर) आपका आखिरी वाज़ (धार्मिक बयान) था, आपने अपने खुत्बे में जुदाई की तरह भी इशारा कर दिया था, इसके लिये इस हज का नाम “हज्जे विदाअ” भी कहा जाने लगा.
आपकी वफ़ात (देहान्त):
11 हिजरी में 29 सफ़र को पीर के दिन एक जनाज़े की नमाज़ से वापस आ रहे थे की रास्ते में ही सर में दर्द होने लगा, बहुत तेज़ बुखार आ गया, इन्तिकाल से पांच दिन पहले पूर्व सात कुओं के सात मश्क पानी से गुस्ल (स्नान) किया, यह बुध का दिन था, जुमेरात को तीन अहम वसिय्यतें फ़रमायीं, एक दिन कब्ल अपने चालीस गुलामों को आज़ाद किया, सारी नकदी खैरात (दान) कर दी.
अन्तिम दिन पीर (सोमवार) का था, इसी दिन 12 रबीउल अव्वल 11 हिजरी चाश्त के समय आप इस दुनिया से रुख्सत कर गये, चांद की तारीख के हिसाब से आपकी उम्र 63 साल 4 दिन की थी.
यह बात खास तौर पर ध्यान में रहे की आपकी नमाजे-जनाज़ा किसी ने नही पढाई, बारी-बारी, चार-चार, छ्ह:-छ्ह: लोग आइशा रजि० के घर (हुजरे) में जाते थे और अपने तौर पर पढकर वापस आ जाते थे, यह तरीका हज़रत अबू बक्र (र.अ.) ने सुझाया था और हज़रत उमर (र.अ.) ने इसकी ताईद (मन्ज़ुरी) की और सबने अमल किया, इन्तिकाल के बाद हज़रत आइशा रज़ि० के कमरे में जहां इन्तिकाल फ़रमाया था दफ़न किये गये, मुह्म्मदुर्र रसूलिल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)
अब सोचना हम क्या कर रहे हैं क्यूं कर रहे हैं...?
अल्लाह हमको अमल की तौफ़ीक दे ओर लिखने मैं अगर कोताही हुई है तो अपने महबूब के सदक़े मैं मांफ़ फरमाऐ आमीन.
No comments:
Post a Comment
अगर आपको किसी खबर या कमेन्ट से शिकायत है तो हमको ज़रूर लिखें !