Monday, 14 January 2019

मंदिर में बैठकर सियासत और रहनुमाई हो सकती है मगर मस्जिद में नहीं क्यूं...?

एस एम फ़रीद भारतीय
क्या आज जब मंदिर के नाम पर मंदिरों में राजनीति हो सकती है, तब मुस्लिम आलिमों को नहीं चाहिए कि वो क़ुरआन के हुकुम के मुताबिक मुस्लिमों को ये रास्ता दिखायें कि उनको मुस्लिम वोटों के बंटवारे से कैसे बचा जाये, ईमानदारी से ये तय करें.

इसके लिए आज मुस्लिमों में वोट की अहमियत को समझने के
लिए एक आलमी कमेटी बनानी होगी जो ये तय करेगी कि हमको अपने वोट को कैसे कामयाब करना है, आज तक होता क्या रहा है ये फ़ैसला लाखों मुस्लिमों के ऊपर छोड़ दिया जाता है कि वो किसी एक को अपना नेता बनाकर उसको वोट करें, जबकि होना ये चाहिए कि लाखों करोड़ों मुस्लिमों की रहनुमाई करने के साथ उनके हक़ की लड़ाई लड़ने वाले नेता या उम्मीदवार ख़ुद ये तय करें कि किसको चुनाव मैदान में आना चाहिए किसको रहनुमाई करनी चाहिए, एक सीट से दो या तीन चुनाव मैदान में उतर जाते हैं और नतीजा होता है संख्या में ज़्यादा होने के बावजूद सबकी हार...!
मुझे यक़ीन है क़ौम के दानिशवर इस बारे में ज़रूर सोचेंगे और ये ना तो ग़ैर कानूनी है और ना ही गुनाह है, रहबरी होनी चाहिए, राजनीति की अहमियत हमको और हमारी अहमियत बेवकूफ़ बनाने वाले नेताओं और पार्टियों को तभी समझ में आयेगी...!
जय हिंद जय भारत

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