Friday, 8 November 2019

लेखक, सम्पादक और पत्रकार भी थे शेरे मैसूर टीपू सुल्तान...?

"एस एम फ़रीद भारतीय"
टीपू सुलतान का जन्म 20 नवम्बर 1750 को कर्नाटक के देवनाहल्ली (यूसुफ़ाबाद) (बंगलौर से लगभग 33 (21 मील) किमी उत्तर)मे हुआ था, उनका पूरा नाम सुल्तान फतेह अली खान शाहाब था, उनके पिता का नाम हैदर अली और माता का नाम फ़क़रुन्निसा था, उनके पिता हैदर
अली मैसूर साम्राज्य के सैनापति थे जो अपनी ताकत से 1761 में मैसूर साम्राज्य के शासक बने.

टीपू को मैसूर के शेर के रूप में जाना जाता है, इसीलिए उन्हें शेरे मैसूर भी कहा जाता है, एक योग्य शासक के अलावा टीपू एक विद्वान, कुशल़ योग्य सैनापति और कवि और नाजाने क्या क्या थे टीपू सुल्तान, चलिए जानते हैं शेरे मैसूर टीपू सुल्तान की कुछ खूबियां...?

शेरे मैसूर टीपू सुल्तान को एक तरह से दक्षिण भारत का अंबेडकर भी कहा जाता है क्योंकि उन्होंने अपने शासनकाल में दलितों, पिछड़ों को उनके सामाजिक अधिकार दिलाया तथा अगड़ो द्वारा हो रहे अत्याचार से मुक्त कराया तथा उन्हें जीने का एक मकसद दिया टीपू सुल्तान महिला सशक्तिकरण के पक्षधर थे उनके शासनकाल में महिलाओं का सम्मान स्थान था.

टीपू सुल्तान ने हिंदू मन्दिरों को तोहफ़े पेश किए, आज भी मेलकोट के मन्दिर में सोने और चांदी के बर्तन है, जिनके शिलालेख बताते हैं कि ये टीपू ने भेंट किए थे, उन्होने ने कलाले के लक्ष्मीकान्त मन्दिर को चार रजत कप भेंटस्वरूप दिए थे, 1782 और 1799 के बीच, टीपू सुल्तान ने अपनी जागीर के मन्दिरों को 34 दान के सनद जारी किए, इनमें से कई को चांदी और सोने की थाली के तोहफे पेश किए, ननजनगुड के श्रीकान्तेश्वर मन्दिर में टीपू का दिया हुअ एक रत्न-जड़ित कप है, ननजनगुड के ही ननजुनदेश्वर मन्दिर को टीपू ने एक हरा-सा शिवलिंग भेंट किया, श्रीरंगपट्टण के श्रीरंगम(रंगनाथ मन्दिर) को टीपू ने सात [चाँदी] के कप और एक रजत कपूर-ज्वालिक पेश किया.

18 वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में हैदर अली का देहावसान एवं टीपू सुल्तान का राज्यरोहन मैसूर कि एक प्रमुख घटना है टीपू सुल्तान के आगमन के साथ ही अंग्रेजों कि साम्राज्यवादी नीति पर जबरदस्त आधात पहुँचा जहाँ एक ओर कम्पनी सरकार अपने नवजात ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार के लिए प्रयत्नशील थी तो दूसरी ओर टीपू अपनी वीरता एवं कुटनीतिज्ञता के बल पर मैसूर कि सुरक्षा के लिए दृढ़ प्रतिज्ञा था वस्तुत:18 वी शताब्दी के उत्तरार्ध में टीपू एक ऐसा महान शासक था जिसने अंग्रेजों को भारत से निकालने का प्रयत्न किया, अपने पिता हैदर अली के पश्चात 1782 में टीपू सुल्तान मैसूर की गद्दी पर बैठे.

कुछ घटनाओं और दस्तावेजों के आधार पर कहा जा सकता है कि टीपू सुल्तान धर्मान्ध मुसलमान नही थे.

अंग्रेज़ों की टीपू सुल्तान को बदनाम करने की चाल, १९वीं सदी में ब्तानी सरकार के एक अधिकारी और लेखक विलियम लोगान ने अपनी किताब 'मालाबार मैनुअल' में लिखा है कि टीपू सुल्तान ने किस प्रकार अपने ३० हजार सैनिकों के दल के साथ कालीकट में तबाही मचाई थी, टीपू सुल्तान हाथी पर सवार था और उसके पीछे उसकी विशाल सेना चल रही थी, पुरुषों और महिलाओं को सरेआम फांसी दी गई, उनके बच्चों को उन्हीं के गले में बांध पर लटकाया गया, असल मे टीपू सुलतान ऐसे बिल्कुल नही थे, पर ये सब हुकूमत ने टिपू के डर के कारण लिखा था, जबकि इसी पुस्तक में विलियम यह भी लिखते हैं कि शहर के किसी भी मंदिर व चर्च को नुकसान ना पहुंचाने का आदेश टीपू सुल्तान द्वारा दिया गया, इस किताब से ही अंग्रेजों का झूंठ सामने आता है.

असल मैं 1791 में रघुनाथ राव पटवर्धन के कुछ मराठा सवारों ने श्रृंगेरी शंकराचार्य के मंदिर और मठ पर छापा मारा, उन्होंने मठ की सभी मूल्यवान संपत्ति लूट ली, इस हमले में कई लोग मारे गए और कई घायल हो गए, शंकराचार्य ने मदद के लिए टीपू सुल्तान को अर्जी दी, शंकराचार्य को लिखी एक चिट्ठी में टीपू सुल्तान ने आक्रोश और दु:ख व्यक्त किया, इसके बाद टीपू ने बेदनुर के आसफ़ को आदेश दिया कि शंकराचार्य को 200 राहत (फ़नम) नक़द धन और अन्य उपहार दिये जायें, श्रृंगेरी मंदिर में टीपू सुल्तान की दिलचस्पी काफ़ी सालों तक जारी रही, और 1790 के दशक में भी वे शंकराचार्य को खत लिखते रहे, टीपू के यह पत्र तीसरे मैसूर युद्ध के बाद लिखे गए थे, जब टीपू को बंधकों के रूप में अपने दो बेटों देने सहित कई झटकों का सामना करना पड़ा था, यह सम्भव है कि टीपू ने ये खत अपनी हिन्दू प्रजा का समर्थन हासिल करने के लिए लिखे थे.

टीपू सुल्तान ने अन्य हिंदू मन्दिरों को भी तोहफ़े पेश किए, मेलकोट के मन्दिर में सोने और चांदी के बर्तन है, जिनके शिलालेख बताते हैं कि ये टीपू ने भेंट किए थे, उन्होने ने कलाले के लक्ष्मीकान्त मन्दिर को चार रजत कप भेंटस्वरूप दिए थे, 1782 और 1799 के बीच, टीपू सुल्तान ने अपनी जागीर के मन्दिरों को 34 दान के सनद जारी किए, इनमें से कई को चांदी और सोने की थाली के तोहफे पेश किए, ननजनगुड के श्रीकान्तेश्वर मन्दिर में टीपू का दिया हुआ एक रत्न-जड़ित कप है, ननजनगुड के ही ननजुनदेश्वर मन्दिर को टीपू ने एक हरा-सा शिवलिंग भेंट किया, श्रीरंगपटना के रंगनाथ मन्दिर को टीपू ने सात चांदी के कप और एक रजत कपूर-ज्वालिक पेश किया, मान्यता है कि ये दान हिंदू शासकों के साथ गठबंधन बनाने का एक तरीका थे.

टीपू अपने पिता की तरह ही वह भी अत्याधिक महत्वांकाक्षी कुशल सेनापति और चतुर कूटनीतिज्ञ थे यही कारण था कि वह हमेशा अपने पिता की पराजय का बदला अंग्रेजों से लेना चाहते थे अंग्रेज उनसे काफी भयभीत रहते थे, टीपू सुल्तान की आकृति में अंग्रेजों को नेपोलियन की तस्वीर दिखाई पड़ती थी, वह अनेक भाषाओं का ज्ञाता थे अपने पिता के समय में ही उन्होंने प्रशासनिक सैनिक तथा युद्ध विधा लेनी प्रारंभ कर दी थी परन्तु उनका सबसे बड़ा अवगुण उनके पराजय का कारण बना वह फ्रांसिसियों पर बहुत अधिक भरोसा करते थे, वह अपने पिता के समान ही निरंकुश और स्वंत्रताचारी थे लेकिन फिर भी प्रजा के तकलीफों का उनहे काफी ध्यान रहता था, अत: उनके शासन काल में किसान प्रसन्न थे, वह कट्टर व धर्मान्त मुस्लमान थे वह हिन्दु, मुस्लमानों को एक नजर से देखते थे.

मैसूर में एक कहावत है कि हैदर साम्राज्य स्थापित करने के लिए पैदा हुए थे और टीपू उसे खोने के लिए कुछ ऐसे भी विद्वान है जिन्होंने टीपू सुल्तान के चरित्र की काफी प्रशंसा की है.

वस्तुत: टीपू एक परिश्रमी शासक मौलिक सुधारक और अच्छे योद्धा थे, इन सारी बातों के बावजूद वह अपने पिता के समान कूटनीतिज्ञ एवं दूरदथा यह उनका सबसे बड़ा गुण था, टीपू का नाम उर्दू पत्रकारिता के अग्रणी के रूप में भी याद किया जाएगा, क्योंकि उनकी सेना का साप्ताहिक बुलेटिन उर्दू में था, यह सामान्य धारणा है कि जाम-ए-जहाँ नुमा, 1823 में स्थापित पहला उर्दू अखबार था.

टीपू गुलामी को ख़त्म करने वाले पहला शासक थे, कुछ मौलवियों ने इस उपाय को थोड़ा बहुत बोल्ड और अनावश्यक माना, टीपू अपनी बंदूकों से चिपक गया, उन्होंने पूरे जोश के साथ उस लाइन को लागू करने के फैसले को लागू कर दिया जिसमें उनके देश में प्राप्त स्थिति को इस उपाय की आवश्यकता थी, टीपू सुल्तान सामंतवाद के प्रति उनका दृष्टिकोण है.

 उन्होंने इसे एक बार में समाप्त कर दिया और नतीजा यह है कि आज भी कर्नाटक के किसान - विशेष रूप से पूर्व मैसूर क्षेत्र में - उत्तरी भारत के किसानों से अलग हैं, ज़मीन के टिलर टीपू के दिनों से ही अपनी पकड़ के मालिक थे, इस उपाय के परिणामस्वरूप, इस क्षेत्र में एक विकसित देश है, कर्नाटक के किसान किसान मालिक हैं और उनके बेटों और बेटियों ने शिक्षा में अच्छा किया है, टीपू सुल्तान भी अपने राज्य के ब्राह्मण पादरियों के प्रति निष्ठावान थे और उनके सहयोग की माँग करते थे - यहाँ तक कि देवताओं के आशीर्वाद के लिए विशेष प्रार्थना करने का भी अनुरोध किया जाता था.

1791 में श्रीगंगातट के जगतगुरु स्वामी को लिखे उनके पत्र हिंदू विषयों के साथ उनके उत्कृष्ट संबंधों के प्रमाण हैं, इस दावे के लिए टीपू के कुछ 30 पत्रों को भारतीय पुरातत्व विभाग में संरक्षित किया गया है, दक्षिण भारत के विल्क्स हिस्टोरिकल स्केच, टीपू सुल्तान की हिंदू-नफरत के रूप में कोई भी न्याय नहीं करते हैं गांधीजी उन सभी इतिहास की पुस्तकों का विमोचन करते हैं, जो टीपू सुल्तान को हिंदुओं पर धर्मांतरण के लिए मजबूर करती हैं, वह सोचते हैं कि कन्नड़ भाषा में टीपू के पत्र हिंदुओं के प्रति उनकी उदारता का जीवंत प्रमाण हैं, गांधीजी ने टीपू को महान वक्फों (ट्रस्टों) के लिए हिंदू मंदिरों के लिए स्थापित किया, उनके महल वेंकटरमन श्रीनिवास और श्री रंगनाथ मंदिरों के करीब खड़े थे, वह विशेष रूप से मैसूर के शासक की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि शेर के जीवन का एक दिन सियार के 100 साल के जीवन से बेहतर होता है.

टीपू का सुसंस्कृत मन था, मोहिबुल हसन के अनुसार, वह बहुमुखी थे और हर तरह के विषयों पर बात कर सकते थे, वह कन्नड़ और हिंदुस्तानी (उर्दू) बोल सकते थे, लेकिन उन्होंने ज्यादातर फ़ारसी में बात की जो उन्होंने आसानी से लिखी थी, उन्हें विज्ञान, चिकित्सा, संगीत, ज्योतिष और इंजीनियरिंग में दिलचस्पी थी, लेकिन धर्मशास्त्र और सूफीवाद उनके पसंदीदा विषय थे.

कवियों और विद्वानों ने उसके दरबार को सुशोभित किया, और वह उनके साथ विभिन्न विषयों पर चर्चा करने का शौकीन थे, वह सुलेख में बहुत रुचि रखते थे, और उनके द्वारा आविष्कृत सुलेख के नियमों पर ""रिसाला डार खत-ए-तर्ज़-ए-मुहम्मदी"" नामक फारसी में एक ग्रंथ मौजूद है, उन्होंने ज़बरजद नामक ज्योतिष पर एक किताब भी लिखी, उनकी लाइब्रेरी की बाध्य पुस्तकें भगवान, मोहम्मद, उनकी बेटी फातिमा और उनके बेटों, हसन और हुसैन के नाम को कवर के मध्य में और चार कोनों पर चार खलीफाओं के नाम के साथ ले जाती हैं.

टीपू की निजी लाइब्रेरी में अरबी, फ़ारसी, तुर्की, उर्दू और हिंदी पांडुलिपियों के 2,000 से अधिक संगीत, हदीस, कानून, सूफीवाद, हिंदू धर्म, इतिहास, दर्शन, कविता और गणित से संबंधित हैं.

वहीं मंगलोर कि संन्धि से अंग्रेज मैसूर युद्ध का नाटक समाप्त नहीं हो पाया दोनों पक्ष इस सन्धि को चिरस्थाई नहीं मानते थे 1786 ई. में लार्ड कार्नवालिस भारत का गवर्नर जेनरल बना वह भारतीय राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने के मामले में सामर्थ नहीं था लेकिन उस समय कि परिस्थिति को देखते हुए उसे हस्तक्षेप करना पड़ा क्योंकि उस समय टीपू सुल्तान उसका शत्रु था इसलिए अंग्रेजों ने अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए निजाम के साथ सन्धि कर ली इस पर टीपू ने भी फ्रांसीसियो से मित्रता के लिए हाथ बढ़ाया दोनों दक्षिण में अपना प्रमुख स्थापित करना चाहता था.

 कार्नवालिस जानता था कि टीपू के साथ उसका युद्ध अनिवार्य है और इसलिए महान शक्तियों के साथ वह मित्रता स्थापित करना चाहता था, उसने निजाम और मराठों के साथ सन्धि कर टीपू के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चा कायम किया और इसके बाद उसने टीपू के खिलाफ युद्ध कि घोषणा कर दी इस तरह तृतीय मैसुर युद्ध प्रारंभ हुआ यह युद्ध दो वर्षों तक चलता रहा प्रारंभ में अंग्रेज असफल रहे लेकिन अन्त में इनकी विजय हुई, मार्च 1792 ई. में श्री रंगापटय कि संन्धि के साथ युद्ध समाप्त हुआ टीपू ने अपने राज्य का आधा हिस्सा और 30 लाख पॉन्ड अंग्रेजों को दिया इसका सबसे बड़ा हिस्सा कृष्ण ता पन्द नदी के बीच का प्रदेश निजाम को मिला.

कुछ हिस्सा मराठों को भी प्राप्त हुआ जिससे उसकी राज्या की सीमा तंगभद्रा तक चली आई शेष हिस्सों पर अंग्रेजों का अधिकार रहा टीपू सुल्तान ने जायतन के रूप में अपने दो पुगों को भी कार्नवालिस को सुपुर्द किया इस पराजय से टीपु सुल्तान को भारी क्षति उठानी पड़ी उनका राज्य कम्पनी राज्य से घिर गया तथा समुद्र से उनका सम्पर्क टुट गया.

आलोचकों का कहना है कि कार्नवालिस ने इस सन्धि को करने में जल्दबाजी कि और टीपू का पूर्ण निवास नहीं कर के भूल की अगर वह टीपू की शक्ती को कुचल देता तो भविष्य में चतुर्थ मैसुर युद्ध नहीं होता लेकिन वास्तव में कार्नवालिस ने ऐसा नहीं करके अपनी दूरदर्शता का परिचय दिया था उस समय अंग्रेजी सेना में बीमारी फैली हुई थी और यूरोप में इंग्लैड और फ्रांस के बीच युद्ध की संभावना थी ऐसी स्थिति में टीपू फ्रांसिसीयों कि सहायता ले सकते थे अगर सम्पूर्ण राज्य को अंग्रेज ब्रिटिश राज्य में मिला लेता तो मराठे और निजाम भी उससे जलने लगते इसलिए कार्नवालिस का उद्देश्य यह था कि टीपू की शक्ति समाप्त हो जाए और साथ ही साथ कम्पनी के मित्र भी शक्तिशाली नहीं बन सके इसलिए उन्होंने बिना अपने मित्रों को शक्तिशाली बनाये टीपू की शक्ति को कुचलने का प्रयास किया.

टीपू सुल्तान इस अपमानजनक सन्धि से काफी दुखी थे और अपनी बदनामी के कारण वह अंग्रेजो को पराजित कर दूर करना चाहता थे प्रकृति ने उन्हें ऐसा मौका भी दिया लेकिन भाग्य ने टीपू का साथ नहीं दिया इस समय इंग्लैण्ड और फ्रांस में युद्ध चल रहा था इस अन्तराष्ट्र परिस्थिति से लाभ उठाने के लिए टीपू ने विभिन्न देशों में अपना राजदूत भेजा फ्रांसिसियों को उसने अपने राज्य में विभिन्न तरह कि सुविधाएं प्रदान कि अपने सैनिक संगठन के उन्होने फ्रांसीसी अफसर नियुक्त किये और उन्होने अंग्रेजों के विरुद्ध सहायता की, अप्रैल 1798 ई. में कुछ फ्रांसीसी टीपू कि सहायता के लिए पहुँचा फलत: अंग्रेज और टीपू के बीच संघर्ष आवश्यक हो गया, इस समय लार्ड वेलेजली बंगाल का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया था, उन्होनें टीपू की शक्ति को कुचलने का निश्चय किया टीपु के विरुद्ध उसने निजाम और मराठों के साथ गठबंधन करने कि चेष्टा की निजाम को मिलाने में वह सफल हुए.

 लेकिन मराठों ने कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया 1798 में निजाम के साथ वेलेजली ने सहायक सन्धि की और यह घोषणा कर दी जीते हुए प्रदेशों में कुछ हिस्सा मराठों को भी दिया जाय पूर्ण तैयारी के साथ वेलेजली ने मैसूर पर आक्रमण कर दिया इस तरह मैसूर का चौथा युद्ध प्रारंभ हुआ.

प्रारंभ से ही टीपू सुल्तान एक अच्छे योध्दा थे, आखिर तक युद्ध करते करते मर गये, लेकिन जीते जी अपनी हार नहीं मानी, मैसूर पर अंग्रेजो कि अधिकार हो गया इस् प्रकार 33 वर्ष पुर्व मैसूर में जिस मुस्लिम शक्ति का उदय हुआ था सिर्फ उसका अन्त ही नहीं हुआ बल्कि अंग्रेज मैसूर युद्ध का नाटक ही समाप्त हो गया, मैसूर जो 33 वर्षों से लगातार अंग्रेजों कि प्रगति का शत्रु बना था अब वह अंग्रेजों के अधिकार में आ गया था अंग्रेज और निजाम ने मिलकर मैसूर का बटवारा कर लिया कुछ हिस्सा अंग्रेजों को मिला और कुछ पर निजाम का अधिकार स्वीकार किया गया.

मराठों को भी उत्तर पश्चिम में कुछ प्रदेश दिये गये लेकिन उसने लेने से इनकार कर दिया बचा हुआ मैसूर राज्य मैसूर के पुराने हिन्दु राजवंश के एक नाबालिग लड़के को दे दिया गया और उसके साथ अंग्रेजों ने एक सन्धि कि इस सन्धि के अनुसार मैसूर की सुरक्षा का भार अंग्रेजों पर आ गया वहाँ ब्रिटिश सेना तैनात किया गया सेना का खर्च मैसूर के राजा ने देना स्वीकार किया, इस नीति से अंग्रेजों को काफी लाभ पहुँचा मैसूर राज्य बिल्कुल छोटा पड़ गया और दुश्मन का अन्त हो गया कम्पनी की शक्ति में काफी वृद्धि हुई मराठों को मिला हुआ हिस्सा उसने वापस कर दिया फलत: मैसूर चारों ओर से ब्रिटिश राज्य से घिर गया इसका फायदा उन्होनें भविष्य में उठाया जिससे ब्रिटिश शक्ति के विकास में काफी सहायता मिली और एक दिन उसने सम्पूर्ण हिन्दुस्तान पर अपना अधिपत्य कायम कर लिया.

जब 4 मई 1799 को 48 वर्ष की आयु में कर्नाटक के श्रीरंगपट्टना में बडी चालाकी से टीपू सुल्तान की अंग्रेजों द्वारा हत्या कर दी गई, तब हत्या के बाद उनकी तलवार टीपू के हाथ से छुड़ाने के लिये बड़ी मेहनत लगी, उनकी तलवार अंग्रेज़ अपने साथ ब्रिटेन ले गए, टीपू की मृत्यू के बाद सारा राज्य अंग्रेज़ों के हाथ आ गया.

जो एक तरहां से आज भी अंग्रेजों के हाथ ही है, हमारे भारत के नियम कानून और संविधान विलायत की ही देन है आज भी ज़्यादातर वही 1857 का कानून लागू है...

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