"एस एम फ़रीद भारतीय"
तुर्क (500-1300), रुम सल्तनत (1000–1300), अनातोली बिलिक्स, आटोमान साम्राज्य (1299–1922), तुर्की का स्वतंत्रता संग्राम (1919-1922), तुर्की गणतंत्र (1923–)
स्वतंत्रता की लड़ाई की शुरूआत 19 मई 1919, विजय दिवस 30 अगस्त 1922, गणराज्य की घोषणा 29 अक्टूबर 1923 को की गई, कस्तुनतुनिया का
प्राचीन नाम बाजिंटिन था. लेकिन जब 330 ईस्वी में रोमन सम्राट कॉन्सटेंटाइन प्रथम ने अपनी राजधानी रोम से यहाँ स्थानांतरित की तो शहर का नाम बदल कर अपने नाम के हिसाब से कौंस्टेन्टीनोपल कर दिया, (जो अरबों के यहां पहुँच कस्तुनतुनिया बन गया) इसके बारे में हम आपको आगे बतायेंगे.
हागिया सोफ़िया को 1934 में आधुनिक तुर्की के निर्माता कहे जाने वाले मुस्तफ़ा कमाल पाशा ने देश को धर्मनिरपेक्ष घोषित करने के बाद, मस्जिद से म्यूज़ियम में तब्दील कर दिया था, सुल्तान फातेह ने हागिया सोफिया को चर्च से मस्जिद बना दिया, लेकिन उन्होंने शहर के दूसरे बड़े गिरिजाघर कलिसाय-ए-हवारियान को यूनानी रूढ़िवादी संप्रदाय के पास ही रहने दिया और ये संप्रदाय एक संस्था के रूप में आज भी कायम है, ये मुस्लिम और इस्लामिक नर्म दिली की मिसाल है.
Tकमाल अतातुर्क उर्फ मुस्तफ़ा कमाल पाशा ( यहूदी) (1881 - 1938) को आधुनिक तुर्की का निर्माता कहा जाता है, तुर्की के साम्राज्यवादी शासक सुल्तान अब्दुल हमीद द्वितीय का पासा पलट कर वहाँ कमाल की सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक व्यवस्था कायम करने का जो क्रान्तिकारी कार्य उन्होंने किया उस ऐतिहासिक कार्य ने उनके नाम को सार्थक सिद्ध कर दिया था, नाम से मुस्लिम लगते थे लेकिन थे यहूदी और बड़ी ही चालाकी से मुस्लिमों के बीच रहकर इस्लाम को नुकसान पहुंचा रहे थे.
कमाल पाशा का जन्म 19 मई सन् 1881 में सलोनिका (सैलोनिका) के एक किसान परिवार में हुआ था। इनकी माता का नाम जुवैदा व पिता का अली रजा था, अली रजा सलोनिका के चुंगी दफ्तर में क्लर्क थे, उनका बचपन का नाम मुस्तफा था, जन्म के कुछ वर्ष बाद ही पिता की मृत्यु हो गई, मां जुबैदा ने मज़हबी तालीम दिलाने के उद्देश्य से मदरसे में दाखिल करा दिया जहाँ उनके सीनियर छात्रो के तंग (रैंगिंग) करने पर वह मरने मारने पर उतर आये, मात्र 11 साल की उम्र में ही वह इतने दुर्दान्त (मार पिटाई करने वाले) हो गये थे कि उन्हें मक्तब से निकालना पड़ा, बाद में उन्हें मोनास्तीर (मैनिस्टर) के सैनिक स्कूल में भर्ती कराया गया, लेकिन वहाँ भी उनका मर मिटने वाला उग्रवादी स्वभाव बना रहा, सैन्य-शिक्षा में दिलचस्पी के कारण उनकी पढाई बदस्तूर जारी रही, उसमें कोई व्यवधान नहीं आया.
कमाल ने देश को प्रजातन्त्र घोषित किया और स्वयं प्रथम राष्ट्रपति बने, अब राज्य लगभग निष्कण्टक हो चुका था, पर मुल्लाओं की ओर से उनका निरन्तर विरोध हो रहा था, इसपर कमाल ने सरकारी अखबारों में इस्लाम के विरुद्ध प्रचार शुरू किया, अब तो धार्मिक नेताओं ने उनके विरुद्ध फतवे जारी कर दिये और यह कहना शुरू किया कि कमाल ने अंगोरा में स्त्रियों को पर्दे से बाहर निकाल कर देश में आधुनिक नृत्य का प्रचार किया है, जिसमें पुरुष स्त्रियों से सटकर नाचते हैं, इसका अन्त होना चहिए, हर मस्जिद से यह आवाज उठायी गयी, तब कमाल ने 1924 के मार्च में खिलाफत प्रथा का अन्त किया और तुर्की को धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र घोषित करते हुए एक विधेयक संसद में रखा, अधिकांश संसद सदस्यों ने इसका विरोध किया, पर कमाल ने उन्हें कसके धमकाया, उनकी इस धमकी का पुरजोर असर हुआ और विधेयक पारित हो गया.
तुर्की का इतिहास- तुर्की में ईसा के लगभग ७५०० वर्ष पहले मानव बसाव के प्रमाण यहां मिले हैं। हिट्टी साम्राज्य की स्थापना १९००-१३०० ईसा पूर्व में हुई थी। १२५० ईस्वी पूर्व ट्रॉय की लड़ाई में यवनों (ग्रीक) ने ट्रॉय शहर को नेस्तनाबूत कर दिया और आसपास के इलाकों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। १२०० ईसापूर्व से तटीय क्षेत्रों में यवनों का आगमन आरंभ हो गया। छठी सदी ईसापूर्व में फ़ारस के शाह साईरस ने अनातोलिया पर अपना अधिकार जमा लिया.
इसके करीब २०० वर्षों के पश्चात ३३४ इस्वीपूर्व में सिकन्दर ने फ़ारसियों को हराकर इसपर अपना अधिकार किया। बाद में सिकन्दर अफ़गानिस्तान होते हुए भारत तक पहुंच गया था। इसापूर्व १३० इस्वी में अनातोलिया रोमन साम्राज्य का अंग बना। ईसा के पचास वर्ष बाद संत पॉल ने ईसाई धर्म का प्रचार किया और सन ३१३ में रोमन साम्राज्य ने ईसाई धर्म को अपना लिया.
मगर इसके कुछ वर्षों के अन्दर ही कान्स्टेंटाईन साम्राज्य का अलगाव हुआ और कान्स्टेंटिनोपल इसकी राजधनी बनाई गई। छठी सदी में बिजेन्टाईन साम्राज्य अपने चरम पर था पर १०० वर्षों के भीतर मुस्लिम अरबों ने इसपर अपना अधिकार जमा लिया। बारहवी सदी में धर्मयुद्धों में फंसे रहने के बाद बिजेन्टाईन साम्राज्य का पतन आरंभ हो गया। सन १२८८ में ऑटोमन साम्राज्य का उदय हुआ और सन् १४५३ में कस्तुनतुनिया का पतन। इस घटना ने यूरोप में पुनर्जागरण लाने में अपना महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
वर्तमान तुर्क पहले यूराल और अल्ताई पर्वतों के बीच बसे हुए थे। जलवायु के बिगड़ने तथा अन्य कारणों से ये लोग आसपास के क्षेत्रों में चले गए। लगभग एक हजार वर्ष पूर्व वे लोग एशिया माइनर में बसे। नौंवी सदी में ओगुज़ तुर्कों की एक शाखा कैस्पियन सागर के पूर्व बसी और धीरे-धीरे ईरानी संस्कृति को अपनाती गई। ये सल्जूक़ तुर्क थे।
सल्जूक़ तुर्क- इसके साथ ही कैस्पियन सागर के पश्चिम में वे मध्य तुर्की के कोन्या में स्थापित हो गए। 1071 में उन लोगों ने बिजेंटाइनों को परास्त कर एशिया माइनर पर अपना आधिपत्य जमा लिया। मध्य टर्की में कोन्या को राजधानी बनाकर उन्होंने इस्लामी संस्कृति को अपनाया। इस साम्राज्य को 'रुम सल्तनत' कहते हैं क्योकि इस इलाके़ में पहले इस्तांबुल के रोमन शासकों का अधिकार था जिसके नाम पर इस इलाक़े को जलालुद्दीन रुमी कहते थे। यह वही समय था जब तुर्की के मध्य (और धीरे-धीरे उत्तर) भाग में ईसाई रोमनों (और ग्रीकों) का प्रभाव घटता गया.
इसी क्रम में यूरोपीयों का उनके पवित्र ईसाई भूमि, यानि येरुशलम और आसपास के क्षेत्रों से संपर्क टूट गया - क्योकि अब यहाँ ईसाइ के बदले मुस्लिम शासकों का राज हो गया था। अपने ईसाई तीर्थ स्थानों की यात्रा का मार्ग सुनिश्चित करने और कई अन्य कारणों की वजह से यूरोप में पोप ने धर्म युद्धों का आह्वान किया। योरोप से आए धर्म योद्धाओं ने यहाँ पूर्वी तुर्की पर अधिकार बनाए रखा पर पश्चिमी भाग में सल्जूक़ों का साम्राज्य बना रहा.
लेकिन इनके दरबार में फ़ारसी भाषा और संस्कृति को बहुत महत्व दिया गया। अपने सामानान्तर के पूर्वी सम्राटों, गज़नी के शासकों की तरह, इन्होंने भी तुर्क शासन में फ़ारसी भाषा को दरबार की भाषा बनाया। सल्जूक़ दरबार में ही सबसे बड़े सूफ़ी कवि रूमी (जन्म 1215) को आश्रय मिला और उस दौरान लिखी शाइरी को सूफ़ीवाद की श्रेष्ठ रचना माना जाता है, सन् 1220 के दशक से मंगोलों ने अपना ध्यान इधर की तरफ़ लगाया। कई मंगोलों के आक्रमण से उनके संगठन को बहुत क्षति पहुँची और 1243 में साम्राज्य को मंगोलों ने जीत लिया। हाँलांकि इसके शासक 1308 तक शासन करते रहे पर साम्राज्य बिखर गया।
उस्मानी साम्राज्य- मंगोलों का प्रभाव समाप्त होते ही आटोमन साम्राज्य की स्थापना हुई जिसका प्रथम सम्राट् उसमान था। इस समय तुर्की की सीमाओं में बहुत विस्तार हुआ। 1516 और 1517 में क्रमश: सीरिया और मिस्र जीत लिया गया। सुलतान सुलेमान के शासनकाल में एशिया माइनर, कुछ अरब प्रदेश, उत्तरी अफ्रीका, पूर्वी भूमध्यसागरीय द्वीप, बालकन, काकेशस और क्रीमिया में तुर्की का प्रभुत्व था। 18वीं और 19वीं शताब्दियों में राष्ट्रीयता के उदय से टर्की की सीमाएँ संकुचित होती गईं और उसके द्वारा अधिकृत प्रदेश एक एक कर स्वतंत्र होते गए, राजशाही का अन्त, सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में रूस से शत्रुता आरंभ हुई और 1854 में क्रीमिया का युद्ध हुआ.
जिसके लिए 1839 में व्यापक सुधार आंदोलन आरंभ हुआ था, जिससे सुलतान के अधिकर नियंत्रित कर दिए गए, इसी आशय का एक संविधान 1876 में पारित हुआ, किंतु एक वर्ष तक चलने के बाद वह स्थगित हो गया, तब वहाँ अनियंत्रित राजतंत्र पुन: स्थापित हो गया, 1908 में युवक क्रांति हुई, जिसके बाद 1876 का संविधान फिर लागू हुआ, 1913 में सुलतान मेहमत शासन का अध्यक्ष बना.
प्रथम विश्वशुद्ध के समय टर्की के नेताओं ने जर्मनी का साथ दिया, इस युद्ध में तुर्की पराजित हुए, युद्ध-विराम-संधि के होते ही अनबर पाशा और उसके सहयोगी अन्य शीर्षस्तरीय नेता तुर्की छोड़कर भाग गए, एशिया माइगर आदि क्षेत्र ब्रिटेन, फ्राँस, ग्रीस और इटली में बटँ गए, जो कि यहूदियों और ईसाईयों की एक चाल थी, जिसमें जर्मन को चारे के तौर पर इस्तेमाल किया गया, जबकि असल निशाना ही उस्मानियां सल्तनत थी.
1919 में ग्रीस ने अनातोलिया पर आक्रमण किया, किंतु मुस्तफा कमाल अतातुर्क (कमाल अतातुर्क) के नेतृत्व में हुए संघर्ष में (1922) ग्रीस पराजित हुआ, सुलतान का प्रभाव क्षीण होने लगा और अंकारा में मुस्तफा कमाल के नेतृत्व में व्यापक मान्यताप्राप्त राष्ट्रीय सरकार की स्थापना हुई, 1923 की लासेन संधि के अनुसार तुर्की का प्रभुत्व एशिया माइनर तथा थ्रेस के बस कुछ भाग पर मान लिया गया, 29 अक्टूबर 1923 को तुर्की सौ साल की पाबंदियों के साथ गणराज्य घोषित हुआ.
इसके पश्चात् तुर्की में अतातुर्क सुधारों के नाम से अनेक सामाजिक राजनीतिक और विधिक सुधार हुए, गणतांत्रिक संविधान में धर्मनिरपेक्षता, धार्मिक संगठनों के उत्मूलन और स्त्रियों के उद्धार आदि की व्यवस्था हुई, अरबी लिपि के स्थान पर रोमन लिपि का प्रचलन घोषित हुआ, मुस्तफ़ा कमाल की मृत्यु (1938) के पूर्व तक उसके नेतृत्व में रिपब्लिकन पीपुल्स पार्टी अत्यधिक प्रभावशाली और मुख्य राजनीतिक संगठन के रूप में रही.
प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की ने अकेले पड़ गये जर्मनी का साथ दिया, 1919 में मुस्तफ़ा कमाल पाशा (अतातुर्क) ने देश का आधुनिकीकरण आरंभ किया, उन्होंने शिक्षा, प्रशासन, धर्म इत्यादि के क्षेत्रों में पारम्परिकता छोड़ी और तुर्की को आधुनिक राष्ट्र के रूप में स्थापित किया.
यही वजह है कि द्वितीय विश्वयुद्ध में तुर्की प्राय: तटस्थ रहा, 1945 में यह "संयुक्त राष्ट्रसंघ" (यू. एन. ओ.) का सदस्य बना, 1947 में संयुक्त राज्य अमरीका ने तुर्की को रूस के विरुद्ध सैनिक सहायता देने का वचन दिया, वह सहायता अब भी जारी तो है मगर बस कागज़ों में, इस समय तुर्की नाटो, सेंटो और बाल्कन पैक्ट का सदस्य है.
मुस्लिम-तुर्की धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता का पूरा आश्वासन है, मुसलमानों में सुन्नी बहुसंख्यक हैं, तुर्की यहाँ प्राय: सार्वभौम भाषा है, इसमें वर्णों की रचना ध्वनि पर आधारित है, 1928 के भाषासुधार आंदोलन से अरबी लिपि के स्थान पर रोमन लिपि का प्रयोग होने लगा है.
1960 तक तत्कालीन प्रधान मंत्री मेंडरीज (Menderes) ने विधिक स्वातंत्र्य, भाषा, लेखन और प्रेस स्वातंत्र्य पर रोक लगा दी, इसके विरुद्ध प्रबल आंदोलन हुआ। 27 मई 1960 को प्रधान मंत्री मेंडरीज़ और राष्ट्रपति बायर (Bayar) "नेशनल यूनिटी कमिटी" (National unity committee) द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए, जनरल गुरसेल (Gursel) कार्यवाहक अध्यक्ष तथा प्रधान मंत्री के रूप में कार्य करने लगे, ग्रांड नेशनल असेंबली की स्थापना हुई और 1961 में जनरल गुरसेल राष्ट्रपति निर्वाचित हुए.
1961 के संविधान में तुर्की पुन: प्रजातांत्रिक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य बना, जिसमें जनअधिकारों तथा विधिसम्मत न्याय की पूर्ण व्यवस्था है। राष्ट्र पर किसी एक व्यक्ति, समूह या वर्ग का अधिकार नहीं है, तुर्की की आधी राष्ट्रीय आय का स्रोत कृषि है, द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् उद्योगीकरण की ओर राष्ट्र की प्रवृत्ति बढ़ी, कृषि के क्षेत्र में मशीनों के प्रयोग ने विशेष क्रांति को जन्म दिया, 1960 में सैनिक शासन स्थापित होने के समय तुर्की की आर्थिक स्थिति संतोषजनक नहीं थी.
विकास की योजनाओं को तेजी से बढ़ा देने के कारण तुर्की ऋणग्रस्त हो गया, व्यापार में घाटे की स्थिति उत्पन्न हो गई, इसके बाद आर्थिक उन्नति के लिए व्ययों में कटौती, मूल्यनियंत्रण का उन्मूलन, करों में संशोधन आदि आवश्यक कदम उठाए गए, तुर्की में प्राकृतिक साधन तो प्रचुर मात्रा में हैं, किंतु अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए उसे मशीनी उद्योग में अधिक व्यय करना पड़ता है। इसके निमित्त उसे पाश्चात्य देशों से, विशेषकर अमरीका से, ऋण भी मिलता है। 1990 के दशक में देश में मुद्रास्फीति 70% तक बढ़ गई थी.
तुर्की में आधिकारिक सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार 99.8% जनसंख्या के साथ इस्लाम देश का सबसे बड़ा धर्म है। इस अनुमानित संख्या में वे सभी लोग मुसलमान घोषित किए गए हैं जिनके माता पिता किसी भी मान्यता-प्राप्त धर्म सम्बंधित नहीं हैं, इस प्रक्रिया के स्वरूप के अनुसार आधिकारिक मुसलमानों में वे सभी लोग शामिल हैं जिनका कोई धर्म नहीं है.
यानि ईसाई/यहूदी हैं जिन्होंने इस्लाम के बजाय किसी अन्य धर्म को अपनाया; इसमें ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने माता-पिता से हटकर कोई और धर्म अपनाया मगर व्यक्तिगत रिकॉर्ड के परिवर्तन का आवेदन नहीं दिया। वर्तमान रूप से राज्य के रिकॉर्ड व्यक्तिगत रिकॉर्ड के किसी ऐसे परिवर्तन को स्वीकार नहीं करते जिसमें इस्लाम, ईसाई धर्म या यहूदी धर्म का वर्णन न हो, और इनमें से अन्तिम दो की स्वीकृति के लिए किसी गिरजाघर या यहूदी प्रार्थना स्थल से मान्यता के दस्तावेज़ का जोड़ना आवश्यक है, 2016 में इस्लाम तुर्की का सबसे बड़ा धर्म पाया गया था, जिसकी जनसंख्या 98.3% थी जबकि ईसाई धर्म के मानने वाले 0.2% थे.
तुर्की में आधिकारिक सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार 99.8% जनसंख्या के साथ इस्लाम देश का सबसे बड़ा धर्म है, अनुयायियों में से 70% से अधिक इस्लाम की सुन्नी शाखा से जुड़े हैं, जिनमें से अधिकांश हनफ़ी फ़िक़ह के मार्ग पर चलते हैं.
20% जनसंख्या अलवी मान्यता से जुड़े हैं, जिसके अधिकतर अनुयायी शिया इस्लाम के ही एक भाग के रूप में देखते हैं, उनमें से कुछ लोग इसे अन्य स्रोत से सम्बंधित मानते हैं, अलवियों की ही तरह एक बेकताशी समुदाय है जो तुर्की के विचित्र सूफ़ीमत से जुड़ा है, हालांकि अनुयायी बलकान उपद्वीप में भी मौजूद हैं, देश के आठ ज़िलों में अहमदिया मुस्लिम समुदाय के लोग भी मौजूद हैं.
29 मई, साल 1453 की तारीख. रात के डेढ़ बजे हैं. दुनिया के एक प्राचीन और एक महान शहर की दीवारों और गुंबदों के ऊपर चांद तेजी से पश्चिम की ओर दौड़ा जा रहा है.
जैसे उसे किसी ख़तरे का अंदेशा हो... इस डूबते हुए चांद के धुंधलके में देखने वाले देख सकते हैं कि शहर की दीवारों के बाहर फौज के दस्ते पक्के इरादे के साथ इकट्ठे हो रहे हैं. उनके दिल में ये एहसास है कि वे इतिहास के एक निर्णायक बिंदु पर खड़े हैं.
ये शहर कस्तुनतुनिया है (आज का इस्तांबुल) और दीवारों के बाहर उस्मानी फौज (तुर्क सेना) आखिरी हल्ला बोलने की तैयारी कर रही है. उस्मानी तोपों को शहर की दीवार पर गोले बरसाते हुए 476 दिन बीत चुके हैं. कमांडरों ने ख़ास तौर पर तीन जगहों पर तोपों का मुंह केंद्रित रखकर दीवार को जबरदस्त नुक़सान पहुंचाया है.
21 साल के उस्मानी सुल्तान मोहम्मद सानी अप्रत्याशित रूप से अपने फौज के अगले मोर्चे पर पहुंच गए हैं. उन्होंने ये फैसला कर लिया है कि आखिरी हमला दीवार के 'मैसोटीक्योन' कहलाने वाले बीच के हिस्से पर किया जाएगा जहां कम से कम नौ दरारें पड़ चुकी हैं और खंदक का बड़ा हिस्सा पाट दिया गया है.
सिर पर भारी पग्गड़ बांधे और स्वर्ण जड़ित लिबास पहने सुल्तान ने अपने सैनिकों को तुर्की जबान में संबोधित किया, 'मेरे दोस्तों और बच्चों, आगे बढ़ो, अपने आप को साबित करने का लम्हा आ गया है.
एक तरफ ज़मीन पर और दूसरी तरफ़ समुद्र में खड़े जहाजों पर तैनात तोपों के दहानों ने आग बरसाना शुरू कर दिया. इस हमले के लिए बांजिटिनी सैनिक तैयार खड़े थे. लेकिन पिछले डेढ़ महीनों की घेराबंदी ने उनके हौंसले पस्त कर दिए थे.
बहुत से शहरी भी मदद के लिए दीवार तक आ पहुंचे थे और उन्होंने पत्थर उठा-उठाकर नीचे इकट्ठा होने वाले सैनिकों पर फेंकना शुरू कर दिया था. दूसरे लोग अपने-अपने करीबी गिरिजाघरों की तरफ़ दौड़े और रो-रो कर प्रार्थना शुरू कर दी.
पादरियों ने शहर के विभिन्न चर्चों की घंटियां पूरी ताकत से बजानी शुरू कर दी थी जिनकी टन टनाटन ने उन लोगों को भी जगा दिया जो अभी तक सो रहे थे.
ईसाई धर्म के सभी संप्रदायों के लोग अपने सदियों पुराने मतभेद भुलाकर एकजुट हो गए और उनकी बड़ी संख्या सबसे बड़े और पवित्र चर्च हाजिया सोफिया में इकट्ठा हो गई. सुरक्षाकर्मियों ने बड़ी जान लगाकर उस्मानी फौज के हमले रोकने की कोशिश की. लेकिन इतालवी डॉक्टर निकोल बारबिरो जो उस दिन शहर में मौजूद थे.
वे लिखते हैं कि 'सफेद पगड़ियाँ बांधे हुए हमलावर आत्मघाती दस्ते बेजिगर शेरों की तरह हमला करते थे और उनके नारे और नगाड़ों की आवाजें ऐसी थी जैसे उनका संबंध इस दुनिया से ना हो.' रोशनी फैलने तक तुर्की सिपाही दीवार के ऊपर पहुंच गए.
इस दौरान ज्यादातर सुरक्षा कर्मी मारे जा चुके थे और उनका सेनापति जीववानी जस्टेनियानी गंभीर रूप से घायल होकर रणभूमि से भाग चुका था. जब पूरब से सूरज की पहली किरण दिखाई दी तो उसने देखा कि एक तुर्क सैनिक करकोपरा दरवाजे के ऊपर स्थापित बाजिंटिनी झंडा उतारकर उसकी जगह उस्मानी झंडा लहरा रहा था.
सुल्तान मोहम्मद सफेद घोड़े पर अपने मंत्रियों और प्रमुखों के साथ हाजिया सोफिया के चर्च पहुंचे. प्रमुख दरवाजे के पास पहुंचकर वह घोड़े से उतरे और सड़क से एक मुट्ठी धूल लेकर अपनी पगड़ी पर डाल दी. उनके साथियों की आंखों से आँसू बहने लगे. 700 साल के संघर्ष के बाद मुसलमान आखिरकार कस्तुनतुनिया फतह कर चुके थे.
कस्तुनतुनिया की विजय सिर्फ एक शहर पर एक राजा के शासन का खात्मा और दूसरे शासन का प्रारंभ नहीं था. इस घटना के साथ ही दुनिया के इतिहास का एक अध्याय खत्म हुआ और दूसरा शुरू हुआ था. एक तरफ 27 ईसा पूर्व में स्थापित हुआ रोमन साम्राज्य 1480 साल तक किसी न किसी रूप में बने रहने के बाद अपने अंजाम तक पहुंचा.
दूसरी ओर उस्मानी साम्राज्य ने अपना बुलंदियों को छुआ और वह अगली चार सदियों तक तक तीन महाद्वीपों, एशिया, यूरोप और अफ्रीका के एक बड़े हिस्से पर बड़ी शान से हुकूमत करता रहा. 1453 ही वो साल था जिसे मध्य काल के अंत और नए युग की शुरुआत का बिंदु माना जाता है.
यही नहीं बल्कि कस्तुनतुनिया की विजय को सैनिक इतिहास का एक मील का पत्थर भी माना जाता है क्योंकि उसके बाद ये साबित हुआ कि अब बारूद के इस्तेमाल और बड़ी तोपों की गोलाबारी के बाद दीवारें किसी शहर की सुरक्षा के लिए काफी नहीं है.
शहर पर तुर्कों के कब्जे के बाद यहां से हजारों संख्या यूनानी बोलने वाले लोग भागकर यूरोप और खास तौर से इटली के विभिन्न शहरों में जा बसे. उस समय यूरोप अंधकार युग से गुज़र रहा था और प्राचीन यूनानी सभ्यता से कटा हुआ था. लेकिन इस दौरान कस्तुनतुनिया में यूनानी भाषा और संस्कृति काफी हद तक बनी रही थी.
यहां आने वाले मोहाजिरों के पास हीरे जवाहरात से भी बेशकीमती खजाना था. अरस्तू, अफलातून (प्लेटो), बतलिमूस, जालिनूस और फिलॉसफर विद्वान के असल यूनानी नुस्खे उनके पास थे. इन सब ने यूरोप में प्राचीन यूनानी ज्ञान को फिर से जिंदा करने में जबरदस्त किरदार अदा किया.
इतिहासकारों के मुताबिक उन्हीं से यूरोप के पुनर्जागरण की शुरुआत हुई जिसने आने वाली सदियों में यूरोप को बाकी दुनिया से आगे ले जाने में मदद दी. जो आज भी बरकरार है.
फिर भी नौजवान सुल्तान मुहम्मद को, जिसे आज दुनिया सुल्तान मोहम्मद फातेह के नाम से जानती है, 29 मई की सुबह जो शहर नज़र आया था, ये वो शहर नहीं था जिसकी शानोशौकत के अफसाने उसने बचपन से सुन रखे थे.
लंबी गिरावट के दौर के बाद बांजिटिनी सल्तनत आखिरी सांसे ले रही थी और कुस्तुनतिया जो सदियों तक दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे मालदार शहर रहा था, अब उसकी आबादी सिकुड़ कर चंद हज़ार रह गई थी. और शहर के कई हिस्से वीरानी के कारण एक दूसरे से कटकर अलग-अलग गांवों में तब्दील हो गए थे.
कहा जाता है कि नौजवान सुल्तान ने शहर के बुरे हालात को देखते हुए शेख सादी का कहा जाने वाला एक शेर पढ़ा जिसका अर्थ है, उल्लू, अफरासियाब के मीनारों पर नौबत बजाया जाता है, और कैसर के महल पर मकड़ी ने जाले बुन लिए हैं...
कस्तुनतुनिया का प्राचीन नाम बाजिंटिन था. लेकिन जब 330 ईस्वी में रोमन सम्राट कॉन्सटेंटाइन प्रथम ने अपनी राजधानी रोम से यहाँ स्थानांतरित की तो शहर का नाम बदल कर अपने नाम के हिसाब से कौंस्टेन्टीनोपल कर दिया, (जो अरबों के यहां पहुँच कस्तुनतुनिया बन गया).
पश्चिम में रोमन साम्राज्य के पतन के बाद ये राज्य कस्तुनतुनिया में बना रहा और चौथी से 13वीं सदी तक इस शहर ने विकास की वो कामयाब सीढ़ियां तक की कि इस दौरान दुनिया का कोई और शहर उसकी बराबरी का दावा नहीं कर सकता था. यही कारण है कि मुसलमान शुरू से ही इस शहर को जीतने का ख्वाब देखते आए थे.
इसलिए इस लक्ष्य को प्राप्त करने की खातिर कुछ शुरुआती कोशिशों की नाकामी के बाद 674 ईस्वी में एक जबरदस्त नौसैनिक बेड़ा तैयार कर कस्तुनतुनिया की ओर रवाना कर दिया गया. इस बेड़े ने शहर के बाहर डेरा डाल दिए और अगले चार साल तक लगातार दीवार पार करने की कोशिश की जाती रही.
आखिर 678 ईस्वी में बांजिटिनी जहाज शहर से बाहर निकले और उन्होंने आक्रामणकारी अरबों पर हमला कर दिया. इस बार उनके पास एक जबरदस्त हथियार था, जिसे 'ग्रीक फायर' कहा जाता था. इसका ठीक-ठीक फॉर्मूला आज तक मालूम नहीं हो सका लेकिन ये ऐसा ज्वलनशील पदार्थ था जिसे तीरों की मदद से से फेंका जाता था.
और ये कश्तियों और जहाजों से चिपक जाता था. इसके अलावा पानी डालने से इसकी आग और भड़कती थी. इस आपदा के लिए अरब तैयार नहीं थे. इसलिए देखते ही देखते सारे नौसैनिक बेड़े आग के जंगल में बदल गए. सैनिक जान बचाने के लिए पानी में कूद गए.
लेकिन यहां भी पनाह नहीं मिली क्योंकि ग्रीक फायर पानी की सतह पर गिरकर भी जल रहे थे और ऐसा लगता था कि पूरे समुद्र में आग लग गई है. अरबों के पास भागने के अलावा कोई चारा नहीं था. वापसी में एक भयानक समुद्री तूफान ने रही सही कसर भी पूरी कर दी और सैंकड़ों कश्तियों में बस एक आध ही बचकर लौटने में कामयाब हो पाए.
इस घेराबंदी के दौरान प्रसिद्ध सहाबी अबू अय्यूब अंसारी ने भी अपनी ज़िंदगी कुर्बान कर दी. उनका मकबरा आज भी शहर की दीवार के बाहर है. सुल्तान मोहम्मद फातेह ने यहां एक मस्जिद बनाई थी जिसे तुर्क पवित्र स्थान मानते हैं.
उसके बाद 717 ईस्वी में बनु उमैया के अमीर सुलेमान बिन अब्दुल मलिक ने बेहतर तैयारी के साथ एक बार फिर कस्तुनतुनिया की घेराबंदी की लेकिन इसका भी अंजाम अच्छा नहीं हुआ और दो हज़ार के करीब नौसेना की जंगी कश्तियों में से सिर्फ पांच बचकर वापस आने में कामयाब हो पाए.
शायद यही कारण था कि इसके बाद छह शताब्दियों तक मुसलमानों ने कस्तुनतुनिया की तरफ रुख नहीं किया. लेकिन सुल्तान मोहम्मद फातेह ने अंत में शहर पर अपना झंडा लहराकर सारे पुराने बदले चुका दिए.
शहर पर कब्जा जमाने के बाद सुल्तान ने अपनी राजधानी अदर्ना से कस्तुनतुनिया कर ली और खुद अपने लिए कैसर-ए-रोम की उपाधि धारण की. आने वाले दशकों में उस शहर ने वो उरूज देखा जिसने एक बार फिर प्राचीन काल की याद ताजा करा दी.
सुल्तान ने अपने सल्तनत में फरमान भेजा, 'जो कोई चाहे, वो आ जाए, उसे शहर में घर और बाग मिलेंगे...' सिर्फ यही नहीं, उन्होंने यूरोप से भी लोगों को कस्तुनतुनिया आने की दावत दी ताकि फिर से शहर बस जाए, इसके अलावा, उन्होंने शहर के क्षतिग्रस्त बुनियादी ढांचे का पुनर्निर्माण किया, पुरानी नहरों की मरम्मत की और जल निकासी व्यवस्था को सुधारा. उन्होंने बड़े पैमाने पर नए निर्माण का सिलसिला शुरू किया जिसकी सबसे बड़ी मिसाल तोपकापी महल और ग्रैंड बाजार है.
जल्द ही तरह-तरह के शिल्पकार, कारीगर, व्यापारी, चित्रकार, कलाकार और दूसरे हुनरमंद इस शहर का रुख करने लगे, सुल्तान फातेह ने हागिया सोफिया को चर्च से मस्जिद बना दिया, लेकिन उन्होंने शहर के दूसरे बड़े गिरिजाघर कलिसाय-ए-हवारियान को यूनानी रूढ़िवादी संप्रदाय के पास ही रहने दिया और ये संप्रदाय एक संस्था के रूप में आज भी कायम है.
सुल्तान फातेह के बेटे सलीम के दौर में उस्मानी सल्तनत ने खिलाफत का दर्जा हासिल कर लिया और कस्तुनतुनिया उसकी राजधानी बनी और मुस्लिम दुनिया के सारे सुन्नियों का प्रमुख शहर बन गया, सुल्तान फातेह के पोते सुलेमान आलीशान के दौर में कस्तुनतुनिया ने नई ऊंचाइयों को छुआ.
ये वही सुलेमान हैं जिन्हें मशहूर तुर्की नाटक 'मेरा सुल्तान' में दिखाया गया है, सुलेमान आलीशान की मलिका खुर्रम सुल्तान ने प्रसिद्ध वास्तुकार सनान की सेवा ली, जिन्होंने रानी के लिए एक आलीशान महल बनाया, सनान की दूसरी प्रसिद्ध इमारतों में सुलेमानिया मस्जिद, खुर्रम सुल्तान हमाम, खुसरो पाशा मस्जिद, शहजादा मस्जिद और दूसरी इमारतों शामिल हैं.
यूरोप पर कस्तुनतुनिया के पतन का गहरा असर पड़ा था और वहां इस सिलसिले में कई किताबें और नजमें लिखी गई थीं और कई पेटिंग्स बनाई गईं जो लोगों की सामूहिक चेतना का हिस्सा बन गईं, यही कारण है कि यूरोप इसे कभी नहीं भूल सका और शायद ना ही कभी भूलेगा.
नैटो का अहम हिस्सा होने के बावजूद, यूरोपीय संघ सदियों पुराने जख्मों के कारण तुर्की को अपनाने से आनाकानी से काम लेता रहा है, यूनान में आज भी गुरुवार को मनहूस दिन माना जाता है. वो तारीख 29 मई 1453 को गुरुवार का ही दिन था.
यहां सबसे बड़ा सवाल ये है कि यहूदी और ईसाई जिन मंगोलियों का मुक़ाबला साथ मिलकर भी ना कर सके उन मंगोलियों को मुसलमानों ने अपने हज़ारों शहीदों की शहादत के बाद खदेड़ दिया, उसके बाद दोनों ने मिलकर मुस्लिमों को घेरना चाहा मगर नतीजा वही हुआ जो होना चाहिए था और आज सभी के सामने है, सच बहुत ही कड़वा होता है, बेशक यहूदी और ईसाई मिलकर भी ईमान वालों का मुकाबला ना कर सके मगर उन्होंने कुछ अपने और कुछ ईमान से कमज़ोर नाम के मुस्लिमों को अपने साथ मिलाकर बड़ी साज़िशे की जिसका बड़ा नुकसान उस्मानियां सल्तनत का ख़ात्मा रहा, कमाल पाशा जैसे लोग मुस्लिमों के भेष में मुस्लिमों के दुश्मन रहे मगर वक़्त बदला और आज फिर मुस्लिम अल्लाह की मदद के साथ हिम्मत से खड़ा है.
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