Thursday 11 June 2020

एक सवाल झग्गड़ क्या होता है के साथ बचपन की याद...?

"एस एम फ़रीद भारतीय"

कहानी पुरानी है मगर सौलहआना सच है, एक बड़े भाई जैसे दोस्त ने ये लेख लिखने का मौक़ा दिया है तो सोचा बहुत कुछ नहीं तो थोड़ा तो लिख ही दो दास्तान बचपन की बहुत याद हैं मगर ये दास्तान लिखने का मौक़ा एक सवाल और तस्वीर के साथ मिला है, तब कुछ यादें ताज़ा करते हैं.

पुराने ज़माने मैं पहले कुछ अमीर घरों में कुआँ होता था, जिस किसी को पानी चाहिए तो बाल्टी लीजिये और कुएं से पानी भर लीजिए, बाज़ घरों में दो कुएं होते थे, एक भीतर में आँगन के पास घर के काम के लिए और एक बाहर होता था खेत पथार से लौटने के बाद हाथ पैर धोने के साथ ग़रीब पड़ौसियों को पानी लेने या गाय भैंस बैल घोड़ा ऊंट या हाथी जैसे पालतू जानवरों की सानी पानी के लिए और जो थोड़ी बहुत सब्जी लगाया गया उसमें पानी के लिए, मुझे ध्यान नहीं कि मैंने पानी भरना कब सीखा था.


तब कुएं से अकेले पानी भरने का परमिशन मिलना बड़े हो जाने की निशानी हुआ करती थी, पहले पहल कुएं में बाल्टी डालना एक सम्मोहित करने वाला अनुभव होता था, बच्चों को छोटी बाल्टी मिलती थी और सीखने के लिए पहले रस्सी धीरे धीरे डालो, बाल्टी जैसे ही पानी को छुए बाल्टी वापस उठानी होती थी, उस समय पता नहीं होता था कि नन्हे हाथों में कितना पानी का वजन उठाने की कूवत है, इसलिए पहले सिर्फ बाल्टी को पानी से छुआने भर को रस्सी नीचे करते थे और वापस खींच लेते थे, मुझे याद है मैंने जब पहली बार बाल्टी डाली थी पानी में, गलती से पूरी भर गयी थी.

मैं वहां भी खोया हुआ सा कुएं में झुककर देखने लगा था कि बाल्टी में पानी भरता है तो कैसे हाथ में थोड़ा सा वजन बढ़ता है, उस वक़्त फिजिक्स नहीं पढ़े थे कि बोयंसी (buoyancy) के कारण जब तक बाल्टी पानी में है उसका भार पानी से निकलने पर उसके भार से काफी कम होगा, जब बाल्टी पानी से निकली तो इतनी भारी थी कि समझो कुएं में गिर ही गए थे, सोचा ही नहीं कि बाल्टी भारी हो जायेगी अचानक से, फिर तो मैं और दीदी (जो बस एक ही साल बड़ी थी हमसे) ने मिल कर बाल्टी खींची, एकदम से जोर लगा के हईशा टाइप्स.

शुरू के कुछ दिन हमेशा कोई न कोई साथ रहता था कुएं से पानी भरते समय, बच्चा पार्टी को स्पेशल हिदायत कभी भी कुएं से अकेले पानी मत भरना, उसमें पनडुब्बा रहता है, छोटा बच्चा लोग को पकड़ के खा जाता है, रात को चाँद की परछाई सच में डरावनी लगती हमें, हर दर के बवजूद हुलकने में बहुत मज़ा आता हमें, उसी समय हमें बाकी सर्वाइवल के फंडे भी दिए गए जैसे की कुएं में गिरने पर तीन बार बाहर आता है आदमी तो ऐसे में कुण्डी पकड़ लेना चाहिए. 

हमने तो कितनी बार बाल्टी डुबाई इसकी गिनती नहीं है, कुएं से बाल्टी निकलने के लिए एक औजार होता था उसे 'झग्गड़' कहते थे. मैंने बहुत ढूँढा पर इसकी फोटो नहीं मिल रही थी फिर अचानक बीते कल हमारे एक अज़ीज़ दोस्त इमामुद्दीन साहब ने सारी समस्याओं को हल कर दिया, एक झगगड़ की फ़ोटो सेंड की और हम पर सवाल दाग़ दिया कि इसे क्या कहते हैं...?

 ऊपर तस्वीरों मैं दो प्रकार के झगगड़ दिखाये हैं, एक गोलाकार लोहे में बहुत से बड़े बड़े फंदे, हुक जैसे हुआ करते थे, उस समय हर मोहल्ले में एक झग्गड़ तो होता ही था, एक से सबका काम चल जाता था, अगर झग्गड़ नहीं है तो समस्या आ जाती थी क्यूंकि बाल्टी बिना सारे काम अटक जाते थे, वैसे में कुछ खास लोग होते थे जो कुएं में डाइव मारने के एक्सपर्ट होते थे जैसे की मेरे दादा का एक वफ़ादार नौकर ही कहूंगा, और उनको तो इंतज़ार रहता था कि कहीं बाल्टी डूबे और उनको कुएं में कूदने का मौका मिले.

घर पर कुएं के पास वाली मिटटी में हमेशा पुदीना लगा रहता था एक बार तरबूज भी अपने आप उगा था और उसमें बहुत स्वाद आया था, मेरे पापा तो हमेशा घर पर बाथरूम में नहाते थे, हम हमेशा कुएं पर भर भर बाल्टी नहाए गांव मैं भी और शहर मैं भी जब तक कुंआ था, आसपास के पेड़ पौधा में पानी भी दिए वही बाल्टी भर के, हम लोग भी छोटे भर कुएं पर नहाते थे, या फिर गाँव जाने पर तो अब भी अपना कुआँ, अपनी  बाल्टी, अपनी रस्सी, उस समय फ़ क्र होता कि मैं अब बड़ा हो गया हूँ तब मैं भी सिखाता था कि बाल्टी से पानी कैसे भरते हैं और जो बच्चा पार्टी अपने से ठीक से पानी भर लेता है उसको सर्टिफिकेट भी देते हैं कि वो अब अकेले पानी भरने लायक हो गया है.

कई बार यकीन नहीं होता था कि वहां मेरे कितने ही जान पहचान वाले लोगों ने जिंदगी में कुआँ देखा ही नहीं है, हमारी तो पूरी जिंदगी कुएं से जुड़ी रही, हमें लगता था सब जगह कुआँ होता होगा, उस वक़्त छोटे कुआँ को कुईयाँ बोलते थे अपनी भाषा में तो उसपर भी लोग हँसते थे. हमारा कहना होता था कि जो लोग देखे ही नहीं हैं वो क्या जानें कि कुआँ होता है कि कुइय्याँ, नए तरह का कुआँ देखा राजस्थान में, बावली कहते थे उसे जिसमें नीचे उतरने के लिए अनगिनत सीढ़ियाँ होती थीं.

जब छोटे थे, सारे अरमान में एक ये भी था कि कभी गिर जाएँ कुईयाँ में और जब लोग हमको बाहर निकाले तो हमारे पास भी हमेशा के लिए एक कहानी हो जाए सुनाने के लिए जैसे और लोग सुनाते थे कि कैसे वो गिर गये, फिर कैसे बाहर निकले और सारे बच्चे एकदम गोल घेरा बना के उसको चुपचाप सुनते थे.

एक बार जब बड़ी बहन गिरी थी तो बरसात आई हुई थी, कुएं में एक हाथ अन्दर तक पानी था, तो लोटे से पानी निकलते टाइम बहन गिर गई, कुआँ के आसपास कीचड़ (फिसलन) था तो पैर फिसला और सट्ट से कुएं में, फिर एक बार खोपड़ी (सर) बाहर निकला लेकिन नहीं पकड़ पाई, दोबारा भी नहीं पकड़ पाई, तीसरी बार एकदम जोर से कुएं का मुंडेर पकड़ ली और फिर अपने से कुएं से बाहर निकल गई, फिर बाहर बैठ के रो रही थी, बड़े भाई गुजरे उधर से तो सोचे कि एकदम भीगी हुई है और काहे रो रही है तो बतलाई कि कुइय्याँ में गिर गयी थी.

उस वक़्त का नज़ारा कितना थ्रिल था जो हमने आंखों से देखा था, कुआँ था, गिरना था, बाल्टी थी, पनडुब्बा था, गाँव की मिटटी, आम का पेड़ और कचमुहआ आम का खट्टा मीठा स्वाद, जिस जिसको यकीन है कि बिना कुआँ में गिरे एक बाल्टी पानी भर सकते हैं, अपने हाथ ऊपर कीजिये और कमैंटस करके बताईये.

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