सम्पादकीय- एस एम फ़रीद भारतीय
साथियों,
आपको याद होगा कि किस तरहां 12 जनवरी 2017 को शुक्रवार ते दिन सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर ये बात जनता के बीच रखी थी कि भारतीय लोकतंत्र को खतरा है, उन्होनें कहा था कि सुप्रीम कोर्ट में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है, इन चारों जजों ने चीफ जस्टिस पर ये आरोप लगाए थे कि वो रोस्टर को अपने तरीके से चला रहे थे, यानी कि किस बेंच को कौन से मामले की सुनवाई करनी है इसमें चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा अपनी मनमानी चला रहे हैं.
तब प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा पर मामलों को उचित पीठ को आवंटित करने के नियम का पालन नहीं करने का आरोप लगाया गया था, इसमें से एक मामला केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के न्यायाधीश बीएच लोया की रहस्यमय परिस्थिति में हुई मौत से संबंधित याचिका को उचित पीठ को ना सौंपे जाने का था, सीजीआई के खिलाफ विरोध जताने के लिए न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर के आवास पर चारों वरिष्ठ न्यायधीशों ने मीडिया को भी संबोधित किया, जिसमें आरोप लगाया गया कि सुप्रीम कोर्ट प्रशासन ठीक से काम नहीं कर रहा है, हालांकि खास बात यह है कि जब सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायधीश प्रेस कॉन्फेंस कर रहे थे तब प्रधान न्यायधीश दीपक मिश्रा ने करीब 77 केसों की सुनवाई की, वह कोर्टरूप में शाम 3:35 तक थे, उनके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान थी, लेकिन तब चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया ने इस दौरान मीडिया से बात करने से इंकार कर दिया.
जिन चार जजों ने शुक्रवार को मीडिया के सामने आकर देश की सर्वोच्च अदालत की अनियमितताओं को उजागर किया और चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की निष्ठा पर सवाल उठाए उनमें जस्टिस जे. चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन लोकुर और जस्टिस कुरियन जोसेफ शामिल थे.
सर्वोच्च न्यायालय में वरिष्ठता के आधार पर दूसरे नंबर के न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे. चेलमेश्वर के आवास पर जल्दबाजी में बुलाए गए संवाददाता सम्मेलन में न्यायाधीशों ने कहा, यह भारतीय न्याय व्यवस्था, खासकर देश के इतिहास और यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय के लिए एक असाधारण घटना है, हमें इसमें कोई खुशी नहीं है, जो हम यह कदम उठाने पर मजबूर हुए हैं, सर्वोच्च न्यायालय का प्रशासन ठीक से काम नहीं कर रहा है, पिछले कुछ महीनों में ऐसा बहुत कुछ हुआ है, जो नहीं होना चाहिए था, देश और संस्थान के प्रति हमारी जिम्मेदारी है, हमने प्रधान न्यायाधीश को संयुक्त रूप से समझाने की कोशिश की कि कुछ चीजें ठीक नहीं हैं और तत्काल उपचार की आवश्यकता है.
न्यायमूर्ति चेलमेश्वर ने कहा, दुर्भाग्यवश इस संस्थान को बचाने के कदम उठाने के लिए भारत के प्रधान न्यायाधीश को राजी करने की हमारी कोशिश विफल साबित हुई है, चारों न्यायाधीशों ने न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर भी सवाल उठाए, जिसपर पहले से ही सर्वोच्च न्यायालय और सरकार के बीच तकरार चल रही है, न्यायमूर्ति चेलमेश्वर ने पत्रकारों से कहा कि हम चारों इस बात से सहमत हैं कि लोकतंत्र को जिंदा रखने के लिए निष्पक्ष न्यायाधीश और न्याय प्रणाली की जरूरत है.
जस्टिस ने आगे कहा था कि हम चारों इस बात से सहमत हैं कि जबतक इस संस्थान को इसकी आवश्यकताओं के अनुरूप बचाया और बरकरार नहीं रखा जाएगा, इस देश का लोकतंत्र या किसी भी देश का लोकतंत्र सुरक्षित नहीं रह सकता, किसी लोकतंत्र को जिंदा रखने के लिए, ऐसा कहा गया है, किसी लोकतंत्र की कसौटी स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायाधीश होते हैं.
उन्होंने आगे कहा था कि हमने ढेर सारे विद्वानों को इस तरह की बातें करते सुना है, लेकिन मैं नहीं चाहता कि कुछ विद्वान आज के 20 वर्ष बाद हमसे भी कहें कि हम चारों न्यायाधीशों ने संस्थान और देश की हिफाजत करने के बदले अपनी आत्मा को बेच दिया, हमने इसे जनता के समक्ष रख दिया है, हम यही कहना चाहते थे.
जस्टिस चेलमेश्वर के बाद न्यायमूर्ति गोगोई ने कहा कि वे लोग देश के प्रति अपना कर्ज उतार रहे हैं, केंद्रीय कानून राज्य मंत्री पी.पी. चौधरी ने कहा, हमारी न्यायप्रणाली विश्व भर में पहचानी जाने वाली और मान्यता प्राप्त न्यायिक प्रणाली है, यह एक स्वतंत्र न्यायपालिका है, मेरे विचार से किसी भी एजेंसी को हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं है, जस्टिस से चीफ़ जस्टिस बनकर गोगोई साहब ने अपने फ़ैसलों से किस तरीके से लोकतंत्र को बचाया ये सब भी आप देख चुके हैं.
सबकुछ एक कुर्सी पाने के लिए किया गया और वो कुर्सी मिलते ही एक इंसान ज़रूर जीत गया मगर उसी दिन लोकतंत्र और भारत का न्याय दम तोड़ दर्द से तड़प रहा था, तब भी मैने लिखा था कि अगर कुर्सी की चाह इतनी ही अहम है तब राज्य सभा की सारी या कम से कम आधी सीटें ऐसे पदों पर आसीन लोगों ते लिए रिज़र्व कर देनी चाहिए, इससे कम से कम न्याय तो ज़िंदा रहेगा.
अब किसानों को आन्दोलन को लेकर मौजूदा चीफ़ जस्टिस ने जिस तरीके से अपने को सरकार और किसानों को बीच फ़िट किया है वो सच मैं काबिले तारीफ़ है, वरना पहले लड़ाई किसान और सरकार ते बीच थी और सरकार किसानों के बढ़ते आन्दोलन के बीच दबती ही चली जा रही थी, मगर एकदम से 9 दौर की वार्ता के विफ़ल होते ही सुप्रीम कोर्ट कमान अपने हाथ मैं लेकर मध्यस्थता के लिए उतर जाती है और जिस तरीके से सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता करने कराने की कोशिश की है वो सच मैं दम तोड़ रहे लोकतंत्र की एक नई मिसाल बन गई.
किसान नेता कोर्ट कब गये...?
याचिका किसने दायर की, क्यूं की गई ये भी सबके सामने है, सुप्रीम कोर्ट की फटकार भी ख़ूब ज़ोर शोर से पेश की गई, मगर कानून और कृषि के जानकारों ने कहा कि ये सब कुछ सरकार के इशारे पर हो रहा है, जो कमेटी बनी है वो चारों लोग सरकार के ही हमदर्द है, पहले ही इस कानून के बचाओ की वकालत कर चुके हैं, कह चुके हैं ये कानून दुनियां का पहला कानून है जो किसानों के लिए अमृत है.
अब सवाल ये पैदा होता है कि जिनको कानून और लोकतंत्र को बचाने की ज़िम्मेदारी और ताक़त मिली वही लोग जब जनता के बीच आकर अपने दुखों को ब्यान करते हुए, ये कहने लगें कि लोकतंत्र को ख़तरा है, तब सच मैं हमको समझ लेना चाहिए था कि लोकतंत्र को ख़तरा तो तब होता जब लोकतंत्र बचा होता, लोकतंत्र तो बस कागज़ों पर दिखावे के लिए बचा है वरना आज आम आदमी सहमत नहीं है, कार्टून बन रहे हैं, कहा जा रहा है कि सुपर पावर अपनी पावर खो चुकी है, सबकुछ सबके सामने है, कौन क्या और कैसा है...?
इस सम्पादकीय मैं मैने अपनी तरफ़ से कुछ नहीं कहा है बस वही लिखा है जो देश की महान हस्तियों ने हमारे सामने पेश किया था, आज किसान अपने हकों को ही नहीं बल्कि लोकतंत्र को बचाने के लिए भी सड़क पर जमा होकर अपनों की शहादत भी दे रहा है, ये लड़ाई किसान की अपनी नहीं है, उनकी भी है जो ताक़त के होते भी कमज़ोर हो चुके हैं, उनकी भी है जो एक वक़्त भूखे सोते हैं, उनकी भी है जो बेरोज़गार होकर परिवार पर बोझ बने हैं, उनकी भी है जो मध्यम परिवार से ताल्लुक रखते हैं, यानि ये लड़ाई देश को ग़ुलामी से बचाने की है...!
जय हिंद जय भारत
जय जवान जय किसान
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