Sunday, 30 May 2021

सुप्रीम कोर्ट बस फटकार लगाते रहो मौतें होती रहेंगी...?

सम्पादकीय
एस एम फ़रीद भारतीय
एनबीटीवी इंडिया डॉट इन
भुखमरी से देशभर में हर रोज हो रहीं 4500 मौतें, एक याचिका पर एससी ने फिर सरकार को दिया नोटिस...?

मई 2011 को भूखमरी के कारण होने वाली मौत पर चिंता व्यक्त करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने देश के सर्वाधिक पिछड़े हुए 150 जिलों के लिए अतिरिक्त 50 लाख टन खाद्यान्न आवंटित करने का आदेश दिया। यह आवंटन न्यायालय द्वारा नियुक्त समिति की निगरानी में किया जाएगा.

न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी और न्यायमूर्ति दीपक वर्मा की खंडपीठ ने सरकार से कहा है कि इन जिलों में गरीबों और कमजोर वर्ग के लोगों को यह अनाज न्यायाधीश डीपी वधवा समिति के दिशा-निर्देशों के मुताबिक इन्हीं गर्मी के दौरान वितरित किया जाएगा.

खंडपीठ ने कहा कि वाधवा समिति केंद्र के साथ सलाह मशविरा कर ऐसे गरीब और कमजोर वर्ग के लोगों की पहचान करेगी जिन्हें अनाज आवंटित किया जा सकता है। पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) की एक याचिका पर न्यायालय ने अतिरिक्त अनाज हासिल करने के पात्र सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को यह निर्देश भी दिया है कि वे पहले से आवंटित अनाज का पूरा वितरण कर लें और उसके बाद अतिरिक्त अनाज को वितरित करें.

कोर्ट ने राज्यों को यह भी निर्देशित किया कि सभी राज्य अपने कोटे का अनाज उठाएं और यह सुनिश्चित करें की वह जरूरतमंद के हाथों में पहुंचे.

न्यायालय ने यह बात फिर कही कि जब सरकारी गोदामों में अनाज रखने की जगह नहीं बची है और विभिन्न कारणों से अनाज नष्ट हो रहा है तो उसे सस्ती दर पर गरीबी रेखा के नीचे और अंत्योदय अन्न योजना के पात्र परिवारों में क्यों न बांट दिया जाए। न्यायालय ने कहा कि हम बार-बार आपसे अनुरोध कर रहे हैं। कृपया इसका वितरण कीजिए। आप भारी लगात से अनाज खरीदते हैं। पर आप के पास नई फसल रखने की जगह नहीं है। जब भी फसल अच्छी होती है, यही समस्या दिखती है। टीवी देखने वाले हर व्यक्ति के मन में यही बात आएगी.

2021 को फिर पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट ने बड़े पैमाने पर निरस्त किए गए राशन कार्डों के मामले को एक गंभीर मामला बताते हुए केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया और इस संबंध में लग रहे आरोपों पर स्पष्टीकरण देने को कहा, कोइली देवी के वकील कोलिन गोंजाल्विस ने डीडब्ल्यू को बताया, कोइली देवी का मामला सिर्फ उनका अकेला नहीं है, बल्कि देश भर में ऐसे लाखों मामले हैं. कम से कम 10-15 राज्यों में इस वजह से कई लोगों की मौत भूख की वजह से हुई है.

अब सवाल ये पैदा होता है सरकारी विभाग और एजेंसियां सुप्रीम कोर्ट जैसी बड़ी कानूनी संस्था के हुकुम को नज़रांदाज़ क्यूं करती हैं, सुप्रीम कोर्ट भी इनकी नज़रांदाज़ी पर गंभीर क्यूं नहीं होती है, क्यूं कानून के रखवालों ने ही कानून को मज़ाक बनाया हुआ है, क्यूं भारत की स्थिति दुनियां मैं दिनो दिन गिर रही है, अनाज की कोई कमी नहीं, किसान बराबर मेहनत कर रहा है, मगर इतनी मेहनत के बाद भी देश लगातार ग़रीबी और भुखमरी के पायदान पर उछाल मार रहा है, बस हम लिख और पढ़कर सब्र और अफ़सोस कर लेते हैं, जो नेता लोग विधायक, सांसद और मंत्री बनने से पहले एक छोटी अदालत से डरते हैं, वही नेता विधायक, सांसद और मंत्री बनने के बाद निडर क्यूं हो जाते हैं, सुप्रीम कोर्ट जैसी संस्था का डर भी इनके दिलसे क्यूं निकल जाता है, क्यूं क्यूं क्यूं...?

वहीं इसी कड़ी मैं गोंजाल्विस कहते हैं कि राशन कार्डों को इस आधार पर निरस्त करना गैरकानूनी था, गोंजाल्विस मानवाधिकार कार्यकर्ता भी हैं और ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क नाम की संस्था से जुड़े हैं जिसकी मदद से कोइली देवी की याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई.

गोंजाल्विस कहते हैं, यदि आप किसी व्यक्ति के सरकारी अधिकार को निरस्त करते हैं तो कानून के मुताबिक, पहले आपको इसके लिए नोटिस देना होगा, अधिकारियों को यह बताना होगा कि उन्हें इस बात का यकीन है कि उनका कार्ड फर्जी है और वे इसकी जांच करने उनके घर आएंगे, पर ऐसा कुछ नहीं किया गया.

साल 2013 में भारत में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून पारित किया गया जिसके तहत भोजन के अधिकार को संवैधानिक गारंटी प्रदान की गई. इसी कानून के तहत स्कूलों में मिड डे मील और जन वितरण प्रणाली यानी पीडीएस व्यवस्था शुरू की गई जिसके तहत गरीब लोगों को खाद्य और अन्य जरूरी उपभोग की सामग्री सस्ते दर पर उपलब्ध कराई जाती है. खाद्य सुरक्षा के लिए काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि इन राशन कार्डों की बायोमिट्रिक पहचान योजना से लिंक कराने की बाध्यता देश में खाद्य असुरक्षा को बढ़ावा दे रही है.

डीडब्ल्यू से बातचीत में अर्थशास्त्री और सामाजिक कार्यकर्ता ज्यां द्रेज कहते हैं, सरकार यह साबित करना चाहती है कि आधार फर्जी राशन कार्डों को निरस्त करने में सक्षम है, ये कार्ड तमाम ऐसे लोगों के हैं जिन्हें वास्तव में इनकी बहुत जरूरत है.

जानकारों का कहना है कि ज्यादातर निरस्त किए गए कार्ड उन लोगों के हैं जो बहुत ही गरीब हैं और समाज की "निम्न जातियों" और आदिवासी समुदाय से आते हैं. साथ ही ये लोग ग्रामीण और दूर-दराज इलाकों में रहते हैं.

बहुत से परेशान लोग कहते हैं कि राशन कार्ड को आधार से लिंक न करा पाने के तमाम कारण हैं लेकिन प्रमुख समस्या यह है कि बायोमीट्रिक तकनीक ही भरोसेमंद नहीं है, कार्डों को आधार से लिंक कराना एक समस्या है लेकिन समस्याएं कई और भी हैं. मसलन, बायोमीट्रिक सिस्टम की विश्वसनीयता भी एक समस्या है. 

कई बार यह सिस्टम काम ही नहीं करता है. यदि कोई व्यक्ति बायोमीट्रिक के जरिये अपनी पहचान स्पष्ट नहीं कर पाता है, फिर भी पीडीएस का डीलर उसे राशन देने के लिए बाध्य है और राशन देने के बाद वह रजिस्टर पर उसका विवरण दर्ज कर सकता है. लेकिन दिक्कत यह है कि डीलर आधार के रिकॉर्ड के हिसाब से ज्यादा से ज्यादा राशन प्राप्त कर लेते हैं लेकिन उसे बांटते नहीं हैं.

वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ ने ऐसे कई साक्ष्य इकट्ठा किए हैं जब बायोमीट्रिक सिस्टम फेल हुआ है. कई बार तो फिंगर प्रिंट का ही मिलान नहीं हो पाता और इस वजह से लोगों को राशन देने से मना कर दिया जाता है. सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि इसके लिए स्मार्ट कार्ड जैसी आसान तकनीक का भी इस्तेमाल किया जा सकता है, जो कि ग्रामीण इलाकों में भी ठीक से काम करेगी क्योंकि उसके लिए बायोमीट्रिक की तरह इंटरनेट की निर्भरता नहीं रहेगी.

हालांकि अधिकारी इस बात से हमेशा इनकार कर देते हैं कि देश में किसी की भी मौत भूख की वजह से हो रही है, ज्यां द्रेज कहते हैं कि यह स्थिति बहुत ही चिंताजनक है, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण और दूसरे अन्य स्रोतों से हमें पता चलता है कि यह भारत में कोई असामान्य स्थिति नहीं है कि बहुत से लोगों को हर दिन दो वक्त का भोजन नहीं मिल पाता है. भूख से होने वाली मौतों के प्रमाण हैं और तमाम मामलों की बहुत ही गंभीरता से पड़ताल भी की गई है. भूख एक राष्ट्रीय मुद्दा है लेकिन दुर्भाग्य से केंद्र सरकार इसे स्वीकार नहीं कर रही है.

केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री पुरुषोत्तम रुपाला ने संसद में कहा कि गैर सरकारी संस्थाओं की ओर से भूख के मामलों में तैयार की गईं रिपोर्ट्स खारिज की जानी चाहिए क्योंकि हमारे यहां तो 'गली के कुत्ते भी खाना पा जाते हैं'. रुपाला संसद में उस रिपोर्ट पर पूछे गए सवाल का जवाब दे रहे थे जिसमें साल 2020 में ग्लोबल हंगर इंडेक्स के मामले में भारत को 107 देशों की सूची में 94वां स्थान दिया गया था.

वरिष्ठ पत्रकारों के समूह कहते हैं कि भूख की समस्या को सरकारी हस्तक्षेप के बिना सुलझाया नहीं जा सकता. उनके मुताबिक, यह राज्यों की जिम्मेदारी और उनका कर्तव्य है कि इस मुद्दे को सुलझाएं, साल 1980 में तमिलनाडु में मिड डे मील योजना लागू की गई. तमाम लोगों ने इसकी आलोचना की लेकिन योजना बहुत ही सफल रही और यूनिसेफ तक ने इसे एक मॉडल की तरह अपनाया.

देश में हर रोज भुखमरी से हो रहीं मौतों को लेकर सर्वोच्च अदालत ने केंद्र सरकार और राज्य की सरकारों को नोटिस जारी किया है, सरकार के साथ याचिकाकर्ताओं ने 12 मंत्रालयों को भी पार्टी बनाया है। भुखमरी से हो रही मौतों को लेकर एससी में दायर की गई याचिका में एक याचिकाकर्ता नाहन से संबंध रखती हैं। कांग्रेस नेता कुंजना सिंह ने अदालत में दायर याचिका को लेकर पत्रकारों से बातचीत की.

जिस देश की लगभग 14 फीसदी आबादी (2011 में हुई जनगणना के हिसाब से लगभग 169,427,079 लोग) कुपोषित हो उस देश का प्रति व्यक्ति सालाना 50 किलो तैयार खाना बर्बाद कर रहा है। भारत ग्लोबल हंगर इंडेक्स (भूख सूचकांक) में शामिल 107 देशों में से 94वें स्थान है। इन गंभीर हालातों के बावजूद पिछले चार वर्षों में रखरखाव के अभाव में 11,520 टन अनाज बर्बाद हो गया.

चार फरवरी 2021 को संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) की रिपोर्ट, UN Food Waste Index Report 2021 के अनुसार भारत में सालाना प्रति व्यक्ति लगभग 50 किलो तैयार (पका हुआ खाना) खाने की बर्बादी हो रही है। वहीं अगर पूरी दुनिया की बात करें तो यह औसतन सालाना प्रति व्यक्ति 121 किलो है जिसमें से घरों बर्बाद हो खाने की हिस्सेदारी 74 किलो है। ये रिपोर्ट ऐसे वक्त में आई है जब कोरोना काल में जब सरकार की तमाम योजनाओं के बावजूद एक बड़ी आबादी को भरपेट खाना नहीं मिला है.

दो फरवरी 2021 को लोकसभा में पूछे गये एक सवाल के जवाब में उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय खाद्य सार्वजनिक वितरण विभाग ने बताया कि भारतीय खाद्य निगम के गोदामों (स्वयं और किराये के) में वर्ष 2017 से 2020 के बीच 11,520 टन (115,200 क्विंटल) अनाज सड़ गया, जिसकी कुल कीमत लगभग 15 करोड़ रुपए बताई गई.

ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2020 में भारत का स्कोर 27.2 है और इसे भूख की गंभीर श्रेणी में माना गया है। मतलब भारत में भूख की स्थिति चिंताजनक चिंताजनक है। 107 देशों वाले इस सूचकांक में भारत 94वें नंबर पर है। भारत अपेक्षाकृत कमजोर माने जाने वाले पड़ोसी देशों पाकिस्तान (88), नेपाल (73), बांग्लादेश (45) और इंडोनेशिया (70) से भी पीछे है। हंगर-इंडेक्स में चीन दुनिया में सबसे संपन्न 17 देशों के साथ पहले नंबर पर है। श्रीलंका और म्यामांर की स्थिति भी भारत से बेहतर है.

ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत सिर्फ 13 देंशों से आगे हैं और ये रवांडा, नाइजीरिया, अफगानिस्तान, लीबिया, मोजाम्बिक और चाड जैसे देश हैं.

वर्ष 2019 में 117 देशों में भारत की रैंकिंग 102 थी। इस तरह देखें तो भारत की स्थिति में सुधार तो हुआ लेकिन सूचकांक में शामिल देशों की संख्या भी घटी है। रिपोर्ट के मुताबिक, भारत की करीब 14 फीसदी जनसंख्या कुपोषण का शिकार है। वहीं भारत के बच्चों में स्टंटिंग रेट 37.4 फीसदी है। स्टन्ड बच्चे वे होते हैं, जिनकी लंबाई उनकी उम्र की तुलना में कम होती है।

संयुक्त राष्ट्र (United Nations) की संस्था खाद्य एवं कृषि संगठन (UNFAO) की एक रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2019 में पूरी दुनिया के लगभग 69 करोड़ लोग भूखे रहे थे। फूड वेस्ट इंडेक्स रिपोर्ट में कहा गया है कि कोविड-19 महामारी के दौरान तो भूखे रहने वालों की संख्या में भारी वृद्धि का अनुमान है। रिपोर्ट कहती है, "तीन अरब लोगों को स्वास्थ्यप्रद भोजन नहीं मिला। इसे देखते हुए लोगों को अपने-अपने घरों में खाने की बर्बादी घटानी चाहिए.

कोरोना महामारी की रोकथाम के लिए देश में लगाये गये लॉकडाउन के समय देश की एक बड़ी आबादी को खाने की दिक्कतों का सामना करना पड़ा, खासकर ग्रामीण भारत में समस्या और भयावह रही। देश के सबसे बड़े रूरल मीडिया प्लेटफॉर्म गांव कनेक्शन ने महामारी के प्रभाव को समझने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण सर्वे किया। यह सर्वे देश के 23 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के 179 जिलों में 30 मई से 16 जुलाई, 2020 के बीच हुआ था जिसमें 25,300 उत्तरदाता शामिल हुए थे.

गांव कनेक्शन के इस सर्वे के अनुसार देश के 68 प्रतिशत ग्रामीणों ने तब कहा था कि लॉकडाउन के दौरान उन्हें खाने-पीने की चीजों के लिए मुश्किलें उठानी पड़ी। इतना ही नहीं, लॉकडाउन के समय में इन ग्रामीणों के परिवार के लोगों को कई बार खाना न मिलने की वजह से भूखे पेट सोना पड़ा.

सर्वे के अनुसार लॉकडाउन के दौरान भोजन की व्यवस्था करने में 76 प्रतिशत गरीब परिवारों को कहीं ज्यादा मुश्किलें आईं, जबकि निम्न वर्ग के ग्रामीण परिवारों में यह आंकड़ा 68 प्रतिशत रहा, अमीर और मध्य परिवारों की तुलना में कहीं ज्यादा। ये आंकड़ें बताते हैं गरीब परिवारों के सामने भुखमरी जैसे हालात बने और लॉकडाउन के दौरान ऐसी कई भयावह तस्वीरें भी सामने आईं थीं.

झारखण्ड के लातेहार जिले के हेसातू गाँव में लॉकडाउन के दौरान 16 मई को एक मजदूर वर्ग के परिवार में पांच साल की बच्ची की मौत हो गई। तब प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ ने आरोप लगाया कि जिस परिवार में बच्ची की मौत हुई है उस घर में दो दिन से चूल्हा नहीं जला था क्योंकि उस घर में अनाज का एक दाना नहीं था।
दिसंबर 2020 में राइट टू फूड फाउंडेशन की हंगर वॉच की रिपोर्ट में सामने आया था कि लॉकडाउन के समय कई परिवारों को भूखे सोना पड़ा। रिपोर्ट में देश में वर्ष 2015 के बाद से अब तक भूख से कथित तौर पर हुई 100 मौतों का भी जिक्र किया गया.

रोजी-रोटी अधिकार अभियान के इस सर्वे में झारखंड, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात, तमिलनाडु, दिल्ली, छत्तीसगढ़, राजस्थान और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों के 3,994 लोग शामिल हुए थे। सितंबर और अक्टूबर के बीच हुए इस सर्वे में शहरी और ग्रामीण, दोनों आबादी को शामिल किया गया था.

सर्वे में दावा किया गया था कि लॉकडाउन के दौरान भारत के कई परिवारों को कई-कई रातें भूखे रह कर गुजारनी पड़ीं। इनके पास खाने के लिए कुछ नहीं था, यह स्थिति लगभग 27 फीसदी लोगों की थी। यही नहीं सर्वे में दावा किया गया कि लॉकडाउन के समय लगभग 71 फीसदी लोगों के भोजन की पौष्टिकता में कमी आई, 40 फीसदी लोगों के भोजन की गुणवत्ता काफी खराब रही और दो-तिहाई लोगों के भोजन की मात्रा में कमी आई। 28% लोगों के भोजन की मात्रा में लॉकडाउन के बाद गिरावट आई, ये हालात तब हैं जब सरकार ने तीन महीने तक 80 करोड़ लोगों को मुफ्त में राशन दिया, (प्रति यूनिट 5 किलो).

एक तरफ खाने की बर्बादी और दूसरी तरफ भूख, ऐसा हो क्यों हो रहा? इस मुद्दे पर मजदूर किसान शक्ति संगठन के संस्थापक और खाने के अधिकार पर काम कर रहे हैं राजस्थान के निखिल डे गांव कनेक्शन को फोन पर बताते हैं, "देखिये, जहां तक बात UN Food Waste Index Report 2021 की है तो प्रति व्यक्ति सालाना 50 किलो पके हुए खाने कर बर्बादी औसतन सबसे ज्यादा अमीर घरों या पार्टियों में होती है। गांवों में तो ये संभव ही नहीं है। गांवों में रहने वाले गरीबों के पास पर्याप्त खाना ही नहीं है तो वे बर्बाद कैसे करेंगे। पश्चिमी देशों में भी घरों में ज्यादा खाना बर्बाद होता है। उनके पास पैसा है, वे ज्यादा खाना बनाते हैं। अब ये संस्कृति हमारे देश में भी धीरे-धीरे पैर पसार रही है.

लेकिन इसके दूसरे पहलुओं पर भी बात करनी चाहिए। जैसा कि आप बता रहे हैं कि गोदामों रखा अनाज सड़ गया तो यह तो अपराध है। जहां एक ओ लाखों लोग भूखे सो रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर अनाज सड़ रहा है। प्रोडक्शन, प्रोसेसिंग और कंजप्शन, इन तीनों चीजों पर ध्यान दिया जाना चाहिए। देश में अनाज की पैदावार तो खूब हो रही है लेकिन प्रोसेसिंग और कंजप्शन ठीक नहीं है और इसके लिए सरकार की नीतियाँ जिम्मेदार हैं। मैं तो कहता हूं कि अगर अनाज गोदाम में भरा है और पब्लिक भूखे सो रही है तो वह भी अपराध है। अनाज गोदामों में रख ही क्यों है।" निखिल आगे कहते हैं।
खाद्य एवं निर्यात नीति विशेषज्ञ दिवेंदर शर्मा ट्वीटर पर लिखते हैं, "भारत में UNEP की रिपोर्ट अच्छी है और बहुत कुछ कहती है। देश में स्वच्छ भारत अभियान की तरह सेव फूड अभियान चलाया जाने की जरूरत है.

देश में अनाजों का उत्पादन खूब होता है। बावजूद इसके, किसानों को सही दाम भी नहीं मिलता और लाखों लोग भूखे सोने को मजबूर होते हैं। इसकी वजह कहीं न कहीं भंडारण के लिए उचित व्यवस्था का न होना भी है। अक्सर ऐसी खबरें सुनने में आती हैं कि बारिश में भीगने की वजह से लाखों टन आनाज बर्बाद हो गए। बावजूद इसके सरकार इस पर कुछ बोलने से कतराती है। सरकार ज्यादा उत्पादन का गान कर अपनी पीठ थपथपाती है, लेकिन ये नहीं बताती कि अन्न को सुरक्षित रखा कैसे जाएगा। खैर सरकार तो इस मुद्दें पर कुछ बोलती.

एक सरकारी अध्ययन की मानें तो ब्रिटेन के कुल उत्पादन के बराबर भारत में अनाज बर्बाद हो रहा है, यानी लगभग 92 हजार करोड़ रुपए का खाद्य पदार्थ हर साल बर्बाद हो जाता है, खाद्य पदार्थों की जितनी बर्बादी हमारे देश में हो रही है उससे पूरे बिहार की आबादी को एक साल खिलाया जा सकता है, भारत सरकार के सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ पोस्ट हार्वेस्ट इंजीनियरिंग एंड टेक्नालॉजी के मुताबिक उचित भंडारण की कमी ने भी देश में खाद्यान्न की बर्बादी को बढ़ाया है, भारत में 40 फीसदी अनाज खेतों से घरों तक पहुंचता ही नहीं है.

2011 मै सुप्रीम कोर्ट ने लगायी थी फटकार भंडारण में व्यापक खामियों के चलते लाखों टन अनाज सड़ जाने की खबरों के मद्देनजर कुछ साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को कड़ी फटकार लगाई थी कि अगर भंडारण का प्रबंध नहीं किया जा पा रहा है तो क्यों नहीं अनाज को गरीबों में मुफ्त बांट दिया जाता, एसोचैम के आंकड़ों के अनुसार, सही रखरखाव के अभाव में पंजाब में पिछले कुछ वर्षों के दौरान 16 हज़ार 500 टन अनाज सड़ गया, मध्य प्रदेश में अनाज भंडारण को लेकर सरकार कितनी लापरवाह है इसका अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि पिछले कुछ सालों में प्रदेश के सरकारी गोदामों में रखा 157 लाख टन अनाज सड़ गया, जिसकी अनुमानित कीमत पांच हजार करोड़ रुपए थी। इसमें 54 लाख टन गेहूं व 103 लाख टन चावल शामिल था.

इस सारी नाकामी के लिए सुप्रीम कोर्ट को थोड़ा नहीं बल्कि बहुत ही सख़्त होना होगा, अगर चुनी हुई सरकार, पार्टी और मंत्री अपने किये वादों को पूरा नहीं करते, सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को नज़रांदाज़ करते हैं तब कड़ी सज़ा तय की जानी चाहिए तभी भारत दुनियां मैं अपनी ईमानदारी की पहचान का डंका बजा सकता है, वरना अपने दिये आदेशों को रद्दी की टोकरी मैं पड़ते रहने पर बस लगाते रहो फ़टकार इन पर कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला, लोग मरते हैं तो मरें, जवाब एक ही होगा भूख से कोई नहीं मरा...!

 नोट- इस लेख को पूरा करने मैं गूगल सर्च के साथ बहुत सी एजेंसियों का सहारा लिया गया है.

1 comment:

  1. As per today's situation of Humans, No Penalty, No Improvement. ना जाने यूं कब तक फटकार लगती रहेंगी....

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