मेरे एक दोस्त का दोस्त अक्सर कहा करता था, कि कौमी एकता की बातें, सिर्फ़ कहने में ही अच्छी लगती हैं, मुसलमानों के मोहल्ले में अकेले गया है कभी...?
जा के देखना, डर लगता.
वो मुसलमानों से बहुत डरता था, पर उसे शाहरूख़ ख़ान बहुत पसंद था, उसके गालों के बीच वाली जगह और उसकी दीवाली को, रिलीज हुई फिल्में भी, दिलीप कुमार यूसफ़ है, वो नहीं था जानता, उनकी फिल्में वह शिद्दत से देखता, वो उनसे नहीं था डरता बस मुसलमानों से डरता था.
वो इंतज़ार करता था आमिर ख़ान की क्रिसमिस के वक़्त रिलीज फ़िल्म की और सलमान की ईदी की अगर कहीं ब्लैक में भी टिकट मिले वो सीटीयां मार कर देख आता, वो उनसे नहीं था डरता, बस मुसलमानों से डरता था.
वो मेरे साथ इंजिनियर बना, विज्ञान में उसकी दिलचस्पी इतनी कि कहता था, अब्दुल कलाम की तरह मैं भी वैज्ञानिक बनना चाहता हूँ, देश का मान बढ़ाना चाहता हूँ, वो उससे नहीं था डरता, बस मुसलमानों से डरता था.
वो क्रिकेट का भी बड़ा शौकीन था, खास करके मंसूर अली ख़ान पटौदी के छक्कों का, मोहम्मद अज़हरुदीन की कलाई का, ज़हीर ख़ान और इरफ़ान पठान की लहराती गेंद का, कहता था कि यह सब जादूगर हैं यह खेलें तो हम कभी नहीं हार सकते पाकिस्तान से, वो उनसे नहीं था डरता, मगर बस मुसलमानों से डरता था.
वो नर्गिस और मधूबाला के, हुस्न का मुरीद था, वह उनको ब्लैक एंड वाइट में देखना चाहता था, वो मुरीद था वहीदा रहमान का और परवीन बॉबी की मोहब्बत का, वो उनसे नहीं था डरता, सिर्फ़ मुसलमानों से डरता था.
वो जब भी दुःखी होता, तो मोहम्मद रफ़ी के गीत सुनता, कहता कि रफ़ी साहब के कंठ में रब्ब वसदा, वो रफ़ी का नाम लेता, कानों पे हाथ धर के लेता, नाम के साथ हमेशा साहब लगाता, अगर वो साहिर के लिखे गीत रफ़ी की आवाज़ मैं सुन ले तो खुशी से रोने को दिल करता था उसका, वो उनसे नहीं था डरता, मगर बस मुसलमानों से डरता था.
वो हर साल छ्ब्बीस जनवरी को, अलामा इक़बाल का, सारे जहां से अच्छा गाता था, कहता था कि अगर गीत संग, बिस्मिल्ला ख़ान की शहनाई हो, ज़ाकिर हुसैन साहब का तबला बजे तो क्या कहनें, वो उनसे नहीं था डरता था, मगर सिर्फ़ मुसलमानों से डरता था.
उसको जब इश्क हुआ, तो लड़की को, मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़ल सुनाता, फ़ैज़ के शेयर लिख लिख भेजता, उन उधारे उर्दू शेयरों पे मर मिटी उसकी महबूबा, आज उसकी पत्नी है, वो इन सब शायरों से नहीं डरता था, बस एक मुसलमान से डरता था.
बड़ा झूठा था मेरा दोस्त, बड़ा भोला भी, वो अनजाने में ही, हर मुसलमान से करता था इतना प्यार.
फिर भी पता नहीं वो क्यों कहता था कि वो मुसलमानों से डरता है, वो मुसलमानों के देश में रहते, खुशी खुशी मोहब्बत से, और पता नहीं मुसलमानों के किन मोहल्लों में रहता था...?
अकेले जाने से डरता था, असल में वो रब्ब के बनाये मुसलमानों से नहीं था डरता था, बल्कि शायद वो डरता था, सियासत, अख़बार टीवी और चुनावों के बनाये उन मनोकल्पित मुसलमानों से...?
सच मै वो कल्पना में बहुत डरावने होते हैं, पर असलियत में ईद की सिवईयों से ज़्यादा मीठे, इसीलिए उसे भी शीर के लिए ईद का बेसब्री से इंतज़ार रहता था, वो कहता था जो मज़ा ईद की शीर का होता है वो रोज़ बनने वाली का नहीं.
मगर फिर भी वो मुसलमानों से बहुत डरता था, साथ खाता था, साथ पीता था, हलाल उसको भी पसंद था, हराम से नफ़रत करने लगा था अपने दोस्त की ख़ातिर, मगर फिर भी वो एक मुसलमान से बहुत डरता था...!!
ये तस्वीर मुहब्बत की मिसाल है इस अपने दिल की गहराई यों मैं उतार लो मत डरो किसी मुसलमान से मुहब्बत से साथ रहो, टीवी अख़बार और सियासत से ख़ुद को दूर कर लो डर ख़ुद ख़त्म हो जायेगा, वक़्त बदलेगा और एक दिन फिर से मुहब्बत से निडर होकर बातें करने का दिन आयेगा, और वो लायेंगे मिलकर हम.
कहो जय हिंद जय भारत, सारे जहां से अच्छा हिदोस्तां हमारा फिर बनेगा...!!
"एस एम फ़रीद भारतीय"
लेखक, सम्पादक, समाजसेवी और
मानवाधिकार सलाहकार...!
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