अशोक चिंह राष्ट्रीय प्रतीक का डिज़ाइन बिना किसी चर्चा के क्यूं बदला गया, क्या वजह है शांत स्वभाव के दिख रहे अशोक चिंह को एक हिंसक चिंह बनाने की, अधिकतर लोग इसके इतिहास से वाकिफ़ नहीं हैं, चलिए आज आपको इसके बारे मैं बताने के साथ हिंसा पर मौन समर्थन कैसे ये बताते हैं...?
भारत के प्रतीक चिंह अशोक चिंह का उपयोग केंद्र सरकार और कई राज्य सरकारों और सरकारी संस्थाओं द्वारा किया जाता है, इस स्तंभ को अशोक ने 280 ईसा पूर्व बनवाया था, ये स्तंभ वाराणसी में सारनाथ संग्रहालय में रखा है, इसे 26 जनवरी 1950 को अपनाया गया, ये प्रतीक भारत सरकार के आधिकारिक लेटरहेड का एक हिस्सा है, सभी भारतीय मुद्रा पर प्रकट होता है, भारतीय पासपोर्ट पर भी ये प्रमुख रूप से अंकित है, आधिकारिक पत्राचार के लिए किसी व्यक्ति या निजी संगठन को प्रतीक का उपयोग करने की अनुमति नहीं है.
जब भारत आजाद होने वाला था, उससे पहले 22 जुलाई 1947 को जवाहरलाल नेहरू ने एक प्रस्ताव संविधान सभा के सामने रखा कि देश के नए ध्वज और राष्ट्रीय प्रतीक के लिए डिजाइन बनाया जाना चाहिए, नेहरू ने साथ ही ये सुझाव भी दिया कि बेहतर हो हम इन चीजों में मौर्य सम्राट अशोक के सुनहरे दौर के शासनकाल को रखें, आधुनिक भारत को अपने इस समृद्ध और चमकदार अतीत के आदर्शों और मूल्यों को सामने लाना चाहिए.
तब नेहरू जी ने संविधान सभा में इस बारे में आगे कहा, *चूंकि मैने सम्राट अशोक का जिक्र किया है तो ये बताना चाहूंगा कि सम्राट अशोक का काल भारतीय इतिहास में ऐसा दौर था जिसे ध्यान रखना चाहिए, जिसमें हमने अंतरराष्ट्रीय तौर पर छाप छोड़ी, ये केवल एक राष्ट्रीय दौर नहीं था बल्कि ऐसा समय था जबकि हमने भारतीय राजदूतों को दूर दूर के देशों में भेजा गया और वो साम्राज्य विस्तार के लिए नहीं बल्कि शांति, संस्कृति और सद्भाव के प्रतीक बनकर गए.*
ये सवाल अब भी बरकरार है कि सम्राट अशोक के ये शेर कैसे भारत के राष्ट्रीय प्रतीक बन गए. जब नेहरू ने संविधान सभा में इसके बारे में दूसरे नेताओं के साथ प्रस्ताव पास किया तो सभी एकमत थे कि देश के पास एक असरदार राष्ट्रीय प्रतीक होना ही चाहिए. ये भी तय था कि ये प्रतीक अशोक के दौर से ही लिया जाएगा. तब देशभर के कला स्कूलों के लोगों को इस संबंध में डिजाइन बनाने के लिए बुलाया गया. लेकिन कोई भी डिजाइन जम नहीं रहा था.
तब एक आईसीएस अफसर बदरुद्दीन तैयबजी और उनकी पत्नी सुरैया तैयबजी ने अशोक स्तंभ को प्रतीक के तौर पर पेश किया, कई सालों बाद इस दंपति की बेटी लैला तैयबजी ने इस बारे में लिखा, मेरी मां ने इसका एक ग्राफिक वर्जन ड्रा किया और वायसराय लॉज (अब राष्ट्रपति भवन) की प्रेस ने कुछ बदलावों के साथ इसे जब प्रिंट किया तो हर किसी को ये पसंद आया, तब से ही ये चार शेर राष्ट्रीय प्रतीक बन गए, लैला जी ने आगे लिखा, मेरी मां तब केवल 28 साल की थीं, मेरे पिता और मां ने कभी नहीं सोचा था कि वो कभी राष्ट्रीय प्रतीक की डिजाइन करेंगे, जो हमेशा देश की पहचान से चस्पां हो जाएगा. लैला खुद भी बाद में देश की शीर्ष डिजाइनर बनीं.
वहीं कागजी दस्तावेजों और पासपोर्ट आदि पर आप जो सिंह का राष्ट्रीय प्रतीक देखते हैं, उसको बनाने का काम प्रख्यात चित्रकार और शांति निकेतन के कला शिक्षक नंदलाल बसु के एक शिष्य दीनानाथ भार्गव ने किया, वो तब शांति निकेतन में पढ़ रहे थे और बाद में उन्होंने अशोक स्तंभ के शेर को बतौर डिजाइन कागज पर उतारने का काम किया, इसे उन्होंने संविधान के पहले पेज पर भी स्केच किया, यही शेर जो उन्होंने डिजाइन किया, वो बाद मुद्रा, सरकारी दस्तावेजों और पासपोर्ट पर अंकित होने लगा.
जर्मनी के एक सिविल इंजीनियर फ्रेडरिक आस्कर ओएर्टेल ने 1900 के आसपास सारनाथ में खुदाई शुरू की, आस्कर सिविल इंजीनियर तो थे लेकिन उनकी रुचि पुरातत्व में ज्यादा हो गई थी, दरअसल उन्होंने इस एरिया की खुदाई चीनी यात्रियों के किताबें पढ़ने के बाद शुरू की, जो मध्यकाल के शुरू में सारनाथ के आसपास आए थे.
जब खुदाई हुई तो 07 फुट से कहीं ज्यादा ऊंचाई का ये स्तंभ 1905 में आस्कर को मिला, समय के साथ ये खराब भी हो गया था और टूटफूट भी हो चुकी थी, ये तीन हिस्से में टूटा हुआ मिला, लेकिन अच्छी बात ये थी अशोक स्तंभ का शेर वाला हिस्सा सलामत था और ये साफ नजर आ रहा था, स्तंभ पर जिस तरह से शेर को बारीकी से उभारा गया था, वो तो कला का नायाब नमूना था.
अब सवाल ही नहीं बड़ा सवाल ये पैदा होता है कि मौजूदा सरकार ने संसद मैं बिना किसी चर्चा के इस चिन्ह मैं बदलाव क्यूं किया, पहली वजह जो इतिहास के पन्नों से निकलकर सामने आती है वो है भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसको बनवाया, वहीं साथ ही एक दूसरी बड़ी वजह भी है, पहला चिंह जो शांत स्वभाव का दिख रहा था उसको बनाने यानि डिज़ाइन करने का काम एक मुस्लिम जोड़े ने किया था, और आज जो दौर मुल्क के अंदर चल रहा है वो सबको मालूम ही है, लिहाज़ा ये एक तरहां से हिंसा को मौन समर्थन भी कहा जा सकता है...??
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