Monday 11 July 2022

क़ुर्बानी क्या है, कैसे शुरू हुई, किसने तोड़ा अल्लाह का कानून...?

@smfaridbhartiye: 
"एस एम फ़रीद भारतीय"
ईद उल अजहा यानि बकरा ईद का अर्थ है बलिदान का त्यौहार है, लेकिन इस शब्द बकर-ईद में बकर का मतलब बकरा नहीं होता, अरबी ज़ुबान (भाषा) में बकर का अर्थ होता है ऊंट, तो आखिर क्यों मनाते हैं बकरीद का त्योहार और इस दिन कुर्बानी देने के पीछे क्या है वजह आज ये हम आपको बताते है, इस्लाम ने इस प्राकृतिक ख़्वाहिश को पूरा करने के लिए साल में दो अवसर मुकर्रर किए, एक रमजान के रोजों के बाद ईदुलफितर और दूसरी ईदुलअजहा, ये है इबादत का दिन ईद-उल-अजहा को भारतीय उप मह़ाद्वीप में बकरीद या ईदुलजुहा भी कहते हैं, ईद उल फितर यानी मीठी ईद के 2 महीने 10 दिन बाद मनाया जाता है ईद उल अजहा यानी बकरीद का त्योहार.

हज़रत इब्राहिम अलैहिस्सलाम की घटना का ख़ुशी मनाने के लिए जानवर की क़ुर्बानी करना सुन्नत मुअक़दा है, जब वह अल्लाह जल्ला जलालुहू के हुकुम का पालन करने के लिए अपने इकलौते बेटे की बलि देने वाले थे...?

लफ़्ज़-ए-क़ुर्बानी क़ुर्बानी से बना है। क़ुर्बान फौलन के वज़ान पर हैं। इस्के मुताबिक ये देखना इस्म-ए-फैल है। अखिर में ये निस्बत लगा देने से लफ्ज-ए-कुर्बानी बन गया। अब ये लफ़्ज़ उन जनवारो के लिए बोला जाता है जो ईद-उल_अज़हा के रोज़ अल्लाह सुभानहू वात 'आला के लिए ज़िबाह किए जाते हैं, इस ऐतबार से इसे कुर्बानी कहते हैं, कुरान-ए-हकीम की आयत सूरत-उल-हज के मुताबिक कुर्बानी हर उम्मत यानि कौम पर मुकर्रर की गई, जबकी कुर्बानी के तरीके अलग-अलग रहे हैं, सबसे अव्वल हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के दो बेटे ने अल्लाह सुभानहू वात 'आला की बरगाह में क़ुर्बानी पेश की, एक की क़ुबूल और दूसरे की रद हो गई.


इस्लाम के जानकार उलैमा ए कराम कहते हैं कि ईद उल अजहा के मौके पर ऊंट, भेड़, बकरा आदि हलाल चार पाया यानि चार पैरों वाले जानवर की कुर्बानी देना पवित्र माना जाता है, लेकिन जिस जानवर की कुर्बानी दी जाए उसके जिस्म पर कोई नुक्स (ऐब) न हो यानी उसके नाक, कान, आंख और पैर सही सलामत हो क्योंकि बीमार और ऐबदार जानवर की कुर्बानी कबूल नहीं समझी जाती, मगर हमें इसके सही नाम अर्थात ईदुलअजहा की और लौट जाना चाहिए, ईदुल फितर हो या ईदुलअजहा, जिस तरह ईद उल फितर (मीठी ईद) की नमाज के बाद गरीबों, मांगने वालों और बेसहाराओं को जकात और फितरा (दान के पैसे) दिए जाते हैं उसी तरह उन्हें `ईद इल अजहा` पर पैसे के अलावा कुर्बानी किए हुए जानवर का मीट भी दिया जाता है.

क्यूं दी जाती है कुर्बानी ये सबसे बड़ा सवाल है...?
क़ुरआन को मुताबिक ये पैगंबर इब्राहिम के दौर की बात है, एक बार अल्लाह ने इब्राहिम अलेयहि सलाम का इम्तिहान लेने के लिए उनसे अपनी सबसे प्यारी चीज कुर्बान करने को कहा, तब हजरत इब्राहिम ने अपने अजीज बेटे इस्माइल को अल्लाह के नाम पर कुर्बान करने का फैसला किया, क्यूं वही उस वक़्त उनके सबसे अज़ीज़ थे, उनके बेटे हज़रत इस्माईल भी इस काम के लिए खुशी-खुशी तैयार हो गये, तब हजरत इब्राहिम अलेयहि सलाम अपने बेटे की कुर्बानी देने ही वाले थे तभी अल्लाह ने जिब्राईल अमीन को भेज उन्हें बताया कि वो तो बस उनका इम्तेहान ले रहा था और वो अपने बेटे की जगह एक भेंड़ को कुर्बान करें, तभी से बकरीद मनाने की शुरुआत हुई.

लिहाज़ा तब ही से लेकर अब तक हर साल ईद उल अजहा (बकरीद) के मौके पर किसी हलाल चार पाये यानि चारों पैरों वाले जानवर की कुर्बानी दी जाती है, बकरीद हर साल मुस्लिम महीना जुल-हिज्जा के दसवें दिन मनाया जाता है, बकरीद पर कुर्बानी किए हुए बकरे के मीट को तीन हिस्सों में बांटा जाता है, पहला हिस्सा गरीबों, मांगने वालों और बेसहारों को दिया जाता है, दूसरा हिस्सा रिश्तेदारों और पड़ोसियों के लिए जबकि तीसरा हिस्सा अपने परिवार के लिए रखा जाता है.

बात चार साल पहले केरल में बाढ़ से भयंकर तबाही हुई थी, वहां लोगों को मदद की सख़्त ज़रूरत थी, इसी बीच ईद-उल-अज़हा (आम बोलचाल की भाषा में इसे बक़रा ईद कहा जाता है) का त्यौहार आ गया, इससे कुछ दिन पहले कुछ नई सोच वाले मुसलमानों ने सोशल मीडिया पर ऐलान किया कि इस बार वो बक़रे की कुर्बानी नहीं करेंगे, बल्कि, अपनी क़ुर्बानी का पैसा केरल के बाढ़ पीडितों की मदद के लिए भेजेंगे, उन्होंने मुसलमानों से भी ऐसा ही करने की अपील की थी.

मगर ये एक तरहां से धोखा था, या यूं कहें कि इस्लाम मैं चली आ रही क़ुर्बानी को रोकने का एक सोचा समझा प्लान कहें तो ज़्यादा बेहतर होगा, क्यूंकि इससे पहले यहूदियों ने अपनी तरफ़ से दी जा रही क़ुर्बानी को इसी तरहां ख़त्म कर अल्लाह के कानून को नकारा था, जिसे अल्लाह ने हज़रत इब्राहिम अलेयहि सलाम ते बाद मूसा अलेयहि सलाम से हज़रत ईसा अलेहि सलाम तक ही जारी रखने का हुकुम नहीं दिया बल्कि दुनियां के आख़िरी नबी को भी यही हुकुम दिया गया कि तुम्हारी उम्मत पर ये क़ुर्बानी उन लोगों पर वाजिब होगी जो क़ुर्बानी करने के लायक हैं.

इस हुकुम को नबी की उम्मत ने बदस्तूर जारी रखा लेकिन, एक नया दौर अब से करीब तीस साल पहले ये शुरू हुआ कि वाजिब कुर्बानी को एक शौक बना दिया गया, वो लोग भी पैसा जोड़कर या उधार लेकर क़ुर्बानी मैं हिस्सा लेने लगे जिनपर क़ुर्बानी वाजिब ही नहीं है, ये शौक दुनियां की चकाचौंध को देखकर पैदा किया गया, जबकि कुर्बानी की अल्लाह ने शर्ते रखी हुई हैं, हर आम मुसलमान पर क़ुर्बानी वाजिब नहीं है, क़ुर्बानी किसी शौक़ का नाम नहीं है बल्कि ये अमीरों पर अल्लाह के हुकुम से बाजिब है.

सोशल मीडिया और फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म पर ऐसी ही अपील की जा रही थीं, तब बहुतों ने यह भी लिखा कि अगर आपको लगता है कि क़ुर्बानी करना ही ज़रूरी ही है और आप एक से ज्यादा क़ुर्बानी करते हैं तो एक कुर्बानी कीजिए और बाक़ी की रक़म आप केरल बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए भेज सकते हैं, सोशल मीडिया पर लिखने वालों के बाद भारत की अधिकतर मीडिया ने लिखा कि कुछ मौलवियों को इस्लाम के नाम पर चलाई जा रहीं, अपनी दुकानें उजड़ने का ख़तरा पैदा हो गया है, कई उलेमा और मुस्लिम संगठनों ने एक साझा बयान जारी करके इस सुझाव को गुमराह करने वाला क़रार दिया है, यानि भारतीय मीडिया ने इस बेहुदे ब्यान को समर्थन करते हुए उलेमाओं को ख़िलाफ़ ब्यानबाज़ी कर ये साबित कर दिया कि इस मुहिम को पीछे कोई बहुत बड़ी ताक़त काम कर रही है, अपील करने वाले कौन लोग हैं ये मालूम ही नहीं है.

आगे भारतीय मीडिया ने इसको ख़ूब हवा देते हुए कहा कि उलैमाओं के ब्यान के बाद सोशल मीडिया पर चल रही कुछ लिबरल मुसलमानों की इस मुहिम से आम लोग इस पसोपेश में पड़ गए हैं कि वो क़ुर्बानी करें या केरल बाढ़ पीड़ितों की मदद...?

[7/11, 8:44 PM] @smfaridbhartiye: 
अल्लाह के नबी ने आखिरी हज के मौक़े पर उन्होंने 100 ऊंटनियों की क़ुर्बानी दी थी, सदक़ा करना और गरीबों की मदद करना बहुत सवाब का काम है, लेकिन बक़रीद के दिनों में हजरत मोहम्मद (सअव) के अनुसार क़ुर्बानी ही श्रेष्ठ काम है, इस बयान में कहा कि क़ुर्बानी का जो सवाब है, वो बाढ़ पीड़ित लोगों की मदद करके हासिल नहीं हो सकता है, लिहाज़ा मुसलमान कुर्बानी से अलग, बाढ़ पीड़ितों या जिसकी भी मदद करना चाहें करें.

तब मीडिया ने सवाल पैदा किये और कुछ कमज़ोर दिमाग़ के दुनियावी मुसलमानों की सोच को आलिमों का सोच से आगे बताते हुए सवाल पैदा करने शुरू किये, उन्होंने कहा कि आईये मौलवियों और दुनिया के इस दावे को क़ुरआन और हदीस की कसौटी पर परखते हैं....?

 मौलवी दुनिया के मुताबिक, क़ुर्बानी हर साहिब-ए-निसाब का फर्ज़ है, यानी हर उस शख्स पर फर्ज़ है जिस पर ज़कात फर्ज़ है, मौलवी दुनिया के मुताबिक, साहिब-ए-निसाब वो है, जिसके पास अपने साल भर की ज़रूरतें पूरी करने के बाद 7.5 तोले (87.5 ग्राम) सोना या 52 तोले (612.36 ग्राम) चांदी या इतनी क़ीमत का कोई और कारोबारी सामान या नक़दी हो. शर्त यह है कि यह बचत उसके पास सालभर रहे.

यह फॉर्मूला अपने आप में विरोधाभासी है, अगर किसी के पास 80 ग्राम सोना होगा, तो आज के सोने के दाम के हिसाब से क़रीब चार लाख की बचत के बावजूद उस पर न ज़कात फर्ज़ होगी और न ही कुर्बानी, लेकिन अगर किसी के पास एक किलोग्राम चांदी होगी, तो 70 हज़ार रुपए बचत पर ही उस पर ज़कात और कुर्बानी दोनों फर्ज़ हो जाती है, जब से इस फार्मूले पर सवाल उठने शुरू हुए हैं, तब से उलेमा साहिब-ए-निसाब के लिए चांदी वाले फार्मूल पर ही ज़ोर देते है, जबकि ये सोच ग़लत है, सोना चांदी की मिसाल सिर्फ़ अमीरी को परखने के लिए ही है, क्यूंकि उस वक़्त 7.5 तोला सोना और 52 तोला चांदी की कीमत बराबर थी, लिहाज़ा वो कीमत का अंदाज़ा है और मिसाल चांदी की ही मानी जायेगी, और अगर किसी पर इतना सोना है कि वो आज उसकी कीमत मैं 52 तोला चांदी ख़रीद सकता है तब उस पर क़ुर्बानी वाजिब है.

यहां फिर ये साबित होता है कि ये भी यहूदियों और ईसाईयों की एक बड़ी चाल थी और उन्होंने गुमराही पैदा करने के लिए ही इस फ़र्क को पैदा किया है, आज पूरी दुनियां की दौलत का निज़ाम इन्ही दोनों को हाथों मैं है और सोने चांदी मैं इतना बड़ा फ़र्क इसीलिए पैदा किया गया है, लिहाज़ा सहीस क़ुरआन और हदीस को समझने वाले आलिमों ने इस चाल को समझकर ही चांदी को ज़क़ात और क़ुर्बानी के लिए चुना है, जिससे करोड़ों मुसलमान एक गुनाह से बचे हुए हैं.

यूं तो जानवर की कुर्बानी को पैग़ंबर हज़रत इब्राहिम से जोड़ा जाता है, लेकिन मौलवी हज़रात इसे पैग़ंबर मुहम्मद (सअव) की सुन्नत भी बताते हैं और अपने दावे के पक्ष में कुछ हदीस पेश करते हैं, जमाते इस्लाम के संस्थापक मौलाना सैयद अबु आला मौदूदी साहब लिखते हैं, 'नबी (सअव) मदीना तैयबा के पूरे ज़माना क़ियाम में हर साल ईद-ल-अज़हा के मौक़े पर कुर्बानी करते रहे और मुसलमानों में आप ही की सुन्नत से यह तरीक़ा जारी हुआ...

कौन हैं हज़रत इब्राहीम अलेयहि सलाम...?

हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम अल्लाह की पाक किताब कानून ए इस्लामी क़ुरआन के मुताबिक इस्लाम धर्म के एक लाख 24 हजार कम या ज़्यादा पैगंबरों में से एक हैं, इस्लाम धर्म में उनको बड़ी इज्जत की निगाह से देखा जाता है, हजरत अब्राहीम का लकब ख़ुलीलुल्लाह यानी अल्लाह का दोस्त है, कुरआन शरीफ की चौदहवीं सूरत “सूरह इब्राहीम” उन्हीं ही के नाम पर है, कुरआन मजीद में अल्लाह तआला ने कई जगहों पर हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की खूबियां और तारीफ बयान की है.

कुरआन करीम में इन्हें “मुस्लिम” भी कहा गया है, कुरआन करीम में ऐसे बहुत सारे पैगंबरों का जिक्र है, जो हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की नस्ल से हैं, हजरत इब्राहीम की नस्ल से हजरत मूसा अलैहिस्सलाम (UPBH), हजरत ईसा अलैहिस्सलाम (UPBH) और हजरत मोहम्मद (सअव) प्रमुख पैगंबर हुए हैं, यही वजह है कि दुनिया के तीन बड़े धर्म यहूदियत, ईसाइयत और इस्लाम के मानने वाले उन्हें अपना पैगम्बर मानते हैं, इन तीनों धर्मों को भी इब्राहीमी धर्म कहा जाता है, यही वजह है कि ये तीनों धर्म मूल रूप से एकेश्वरवाद में विश्वास रखते हैं.

हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम तक़रीबन चार हज़ार साल पहले इराक़ (बेबीलोन) में पैदा हुए थे। लेकिन, एकेश्वरवादी होने की वजह से उन्हें वहां के राजा ने जलाने को कोशिश की, लेकिन जब आग में भी हजरत इब्राहीम नहीं जले तो उन्हें देश से निकाल दिया गया। इस घटना के बाद हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम इराक़ छोड़ कर सीरिया चले गए। इसके बाद फिर वहां से फ़िलस्तीन चले गए और हमेशा के लिए वहीं बस गए। इसी दौरान हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम अपनी बीवी हज़रत सारा के साथ मिस्र गए। वहां के बादशाह ने हज़रत हाजरा को हज़रत इब्राहीम की बीवी हज़रत सारा की ख़िदमत के लिए पेश किया। उस वक़्त तक हज़रत सारा और इब्राहीम के पास कोई औलाद नहीं हुई थी.

मिस्र से हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम फिर फ़िलस्तीन वापस लौट आये, हज़रत सारा ने ख़ुद हज़रत हाजरा का निकाह हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के साथ करवा दिया, बुढ़ापे में लग भग 80 की उम्र में हज़रत हाजरा से हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम पैदा हुए, इसके कुछ अर्से के बाद हज़रत सारा से भी हज़रत इस्हाक़ अलैहिस्सलाम पैदा हुए.

अल्लाह के आदेश पर हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने अपनी दूसरी पत्नी हज़रत हाजरा और बेटे हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम को मक्का के चटियल मैदान में छोड़कर चले गए, इसका तजकिरा कुरआन शरीफ में इस तरह है “ऐ हमारे परवरदिगार! मैंने अपनी कुछ औलाद को आपके ईज्जत वाले घर के पास एक ऐसी वादी में ला बसाया है, जिसमें कोई खेती नहीं होती, हमारे परवरदिगार (ये मैंने इसलिए किया) ताकि ये नमाज़ क़ायम करें, लिहाज़ा, लोगों के दिलों में इनके लिए कशिश पैदा कर दीजिए और इनको फलों का रिज़्क अता फ़रमाइये, ताकि वो शुक्रगुज़ार बनें।” (सूरह इब्राहीम: 37) 

हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की दुआ ऐसी कुबूल हुई कि दुनिया भर के मुसलमानों के दिल मक्का मुकर्रमा की तरफ खिंचे चले जाते हैं, यही वजह है कि हर मुसलमान की ये ख़्वाहिश होती है कि वो कम से कम एक मर्तबा मक्का स्थित अल्लाह तआला के घर काबा की ज़रूर ज़ियारत करें, मक्का शहर में फलों की इफ़रात का ये आलम है कि दुनियाभर के सभी फल बड़ी तादाद में वहां मिलते हैं.

तपती रेगिस्तान में मां-बेटे के पास खाने पीने के लिए कुछ न रहा तो पानी के लिए हजरत इब्राहीम की बीवी हज़रत हाजरा बेचैन होकर क़रीब की सफा और मरवा नामक पहाड़ियों पर दौड़ीं, इसी बीच देखा कि बच्चे के पांव रगड़ने से रेगिस्तान में पानी का चश्मा ज़मज़म फूट पड़ा है, इसी का पानी पीकर दोनों मां-बेटे वहीं रहने लगे, कुछ वक्त के बाद एक क़बीला बनू जुरहुम का उधर से गुज़रा, रेगिस्तान में पानी का चश्मा देखकर उन्होंने हज़रत हाजरा से वहां पर रुकने की इजाज़त चाही तो हज़रत हाजरा ने इन लोगों को वहां रुकने की इजाज़त दे दी, इस तरह मक्का शहर बसना शुरू हुआ.

इसी बीच हज़रत इब्राहीम को ख़्वाब में देखा कि वो अपने इकलौते बेटे (हज़रत इस्माईल) को ज़बह कर रहे हैं, इसके बाद अल्लाह के इस आदेश की तामील के लिए फौरन फ़िलस्तीन से मक्का मुकर्रमा पहुंच गए, इस घटना को कुरआन शरीफ में इस तरह बयान फरमाया गया है, “फिर जब वो लड़का इब्राहीम के साथ चलने फिरने के क़ाबिल हो गया तो उन्होंने कहा बेटे, मैं ख़्वाब में देखता हूँ कि तुम्हारी बलि दे रहा हूं, अब सोचकर बताओ तुम्हारी क्या राए है़...? 

जब बाप ने बेटे को बताया कि अल्लाह तआला ने मुझे तुम्हारी बलि करने का आदेश दिया है तो पिता के आज्ञाकारी बेटे इस्माईल अलैहिस्सलाम ने जवाब दिया अब्बा जान! जो कुछ आपको आदेश दिया जा रहा है, उसे कर डालिए, इंशाअल्लाह (अगर ईश्वर ने चाहा) तो आप मुझे सब्र करने वालों में पाएंगे।” (सूरह अस्साफ़फ़ात: 102)

इसके बाद अल्लाह तआला को प्रसन्न करने के लिए हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने अपने दिल के टुकड़े को मुंह के बल ज़मीन पर लिटा दिया, छुरी तेज़ की, आंखों पर पट्टी बांधी और उस वक़्त तक पूरी ताक़त से छुरी अपने बेटे के गले पर चलाते रहे, जब तक अल्लाह तआला की तरफ से ये आवाज न आ गई, “ऐ इब्राहीम, तूने ख़्वाब सच कर दिखाया, हम नेक लोगों को ऐसा ही बदला देते हैं, (सूरह अस्साफ्फ़ात 105) 

यानी हज़रत इस्माईल की जगह जन्नत से एक दुंबा भेज दिया गया, जिसकी हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने बेटे की जगह कर्बानी दी। इस वाकिये के बाद से अल्लाह तआला की खुशी के लिए जानवरों की कुर्बानी करना ख़ास इबादत में शुमार हो गया। हजरत इब्राहीम (अ) की इसी दरियादिली की याद में पैगम्बर मोहम्मदके मानने वाले हर साल कुर्बानी देते हैं.

इस बड़ी ईश्वरीय परीक्षा में सफल होने के बाद अल्लाह तआला ने हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को आदेश दिया कि दुनिया में मेरी इबादत के लिए एक घर बनाओ, इसके बाद बाप-बेटे ने मिल कर बैतुल्लाह शरीफ (ख़ाना काबा) की तामीर की, इस वाकिये को कुरआन शरीफ में इस तरह बयान किया गया है, “और उस वक़्त के बारे में सोचों जब इब्राहीम काबा की नीव रख रहे थे और इस्माईल भी (उनके साथ शरीक थे और दोनों ये कहते जाते थे कि) ऐ हमारे परवरदिगार, हम से ये ख़िदमत कुबूल फ़रमा ले।” (सूरह अलबक़रह 127)

काबे के निर्माण के बाद अल्लाह तआला ने हजरत इब्राहीम को आदेश दिया कि लोगों में हज का एलान कर दो, इसके बाद हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने हज का ऐलान किया, बताया जाता है कि अल्लाह हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम का ऐलान दुनियाभर के सभी लोगों के कानों में गूंज उठी थी, इसके बारे में कुरआन शरीफ में इस तरह फरमाया गया है, “और लोगों में हज का एलान करो कि वो तुम्हारे पास पैदल आएं और दूर दराज़ के रास्तों से सफर करने वाली ऊँटनियों पर सवार होकर आएं जो (लम्बे सफर से) दुबली हो गई हों,” (सूरह अलहज्ज: 27) 

यही वजह है कि दुनिया के कोने-कोने से लाखों आज़मीन-ए-हज हज का तराना यानी लब्बैक पढ़ते हुए मक्का पहुंचकर पैगंबर मोहम्मद (सअव) बताए हुए तरीके़ पर हज की आदएगी करके अपना ताल्लुक हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम और हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम की अज़ीम कुर्बानियों के साथ जोड़ते हैं, यानी हज के दौरान हर उस काम को दोहराया जाता है, जो जहरत इब्राहीम के परिवार ने किया था.

ईसाई यहूदियों और मुसलमानों मैं विरोध की वजह क्या है...?

क़ुरैश (अरबी) एक शक्तिशाली व्यापारी अरब क़बीला था जिसका इस्लाम के आने से पहले मक्का और उसके काबा पर नियंत्रण था, पैग़म्बर मुहम्मद​ सअव भी इसी क़बीले की बनू हाशिम शाखा के सदस्य थे, पारम्परिक क़हतानी-अदनानी अरब सिलसिले के नज़रिए से क़ुरैश एक अदनानी क़बीला था.

६०० ईसवी में अरबी क़बीलों का विस्तार जिसमें क़ुरैश भी देखे जा सकते हैं (बनू हाशिम क़ुरैश की उपशाखा है) बनू हाशिम एक अरबी क़बीला है जो बड़े क़ुरैश क़बीले की एक उपशाखा है। इसका नाम पैग़म्बर मुहम्मद के पर-दादा हाशिम पर रखा गया है और इसके सदस्य अपने-आप को उनका वंशज मानते हैं। अरबी भाषा में 'बनू' का मतलब 'बेटे' होता है और 'बनू हाशिम' का मतलब 'हाशिम के बेटे' है.

६०० ईसवी में अरबी क़बीलों का विस्तार जिसमें किनानाह भी देखे जा सकते हैं बनू किनानाह एक अरबी क़बीला है, पारम्परिक क़हतानी-अदनानी अरब सिलसिले के नज़रिए से बनू किनानाह अदनानी क़बीले के मुदर क़बीले की सबसे बड़ी शाखा है, इस क़बीले के लोग अधिकतर सउदी अरब के हिजाज़ और तिहामाह क्षेत्रों में बसते हैं.

हज़रत मुहम्मद (محمد صلی اللہ علیہ و آلہ و سلم) - "मुहम्मद इब्न अब्दुल्लाह इब्न अब्दुल मुत्तलिब" का जन्म सन ५७० ईसवी में हुआ था, इन्होंने इस्लाम धर्म का को सही और आख़िरी रास्ता अल्लाह के हुकुम से दिखाया, आख़िरी नबी दुनियां और इस्लाम के सबसे महान नबी और आख़िरी पैग़म्बर (सन्देशवाहक) (अरबी: नबी या रसूल, फ़ारसी: पैग़म्बर) माने जाते हैं जिनको अल्लाह ने फ़रिश्ते जिब्रईल अमीन को ज़रिये क़ुरआन का पैग़ाम' दिया था, हम तमाम दुनियां के मुसलमान इनके लिये सबसे ज़्यादा इज़्ज़त रखने के साथ आप पर जान कुर्बान करने का जज़्बा रखते हैं.

यहूदी और ईसाई कहते है कि ये हमारे क़बीले मैं पैदा क्यूं नहीं हुए जबकि ज़्यादातर नबी हमारे कबीले से हैं, बस यही सबसे बड़ा विरोध है, और ये अपने असल आलिमों को भी तौरेत ज़ुबूर और इंजील मैं आख़िरी नबी की निशानियां और नाम बताने पर उनको नबी मानने की कहने पर अपने गुस्से का शिकार बनाकर धोखे से उनका क़त्ल भी करते आये हैं, अल्लाह इनको सही हिदायत दे और सही रास्ते पर लाये आमीन...
आगे जारी है जल्द ही दूसरा और पूरा भाग...?
*वा आखिरी दावाना अल्हमदो ल्लिलाहि रब्बुल आलिमीन.*

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