Sunday 11 December 2011

न्यूज़ चैनलों को नसीहत देने वालों की कमी नहीं - रजत शर्मा


आजकल न्यूज़ चैनलों को नसीहत देनवालों की लाइन लगी हुई है. नसीहत की एक बानगी देखिये, राजस्थान में सेक्स स्कैंडल में फंसे महिपाल मदेरणा की पत्नी ने कहा “अरे न्यूज़ चैनल वालो ! तुम लोगों की हैसियत तो दस हज़ार की है. तुम तो जाकर सब्ज़ी बेचो, तुम्हारे पास कोई काम धंधा नहीं है. हर जगह कैमरे लेकर पुहंच जाते हो” .
  कुछ दिन पहले जस्टिस काटजू ने भी कुछ इसी अंदाज़ में अपने उदगार प्रकट किए थे. उन्होने मीडिया को अनपढ़ और गंवार करार दे दिया था, उनकी शिकायत थी कि जब उन्होने टीवी खोला तो उन्हे करीना कपूर और लेडी गागा क्यों दिखाई दी.

Self Regulation Has Changed Indian News Channels

ये दुर्भाग्य की बात है कि कुछ ज्‍यादा पढे - लिखे लोगों नें पिछले दो साल में न्यूज़ चैनलों में आए बदलाव को नोट ही नही किया.न्यूज़ चैनलों पर जबतक भूत - प्रेत की कहानियां दिखाई जाती थी या कॉमेडी के शो होते थे इनको शिकायत नही थी. लेकिन जब से अन्ना हज़ारे और रामदेव न्यूज़ में ज़्यादा दिखाई देने लगे ..बंदे मातरम का नारा लगाते नौजवान तिरंगा उठाए टीवी पर नज़र आए, बहुत से लोगों को तकलीफ होनी शुरू हो गयी है. टीवी चैनलों में किस तरह का बदलाव आया है, सेल्फ रेगुलेशन ने कैसा असर डाला है. इसके कुछ ताज़ा उदाहरण देखिए-

जिस दिन ऐश्‍वर्या राय बच्‍चन की गोद भराई थी, सारे टीवी चैनल वाले अपनी अपनी ब्रॉडकास्‍ट वैन लेकर उनके घर के आगे मौजूद थे, चारों तरफ कैमरे लगे थे, अमिताभ बच्‍चन ने अपने ब्‍लॉग में इसका जिक्र किया, उनका भाव ये था कि इतने घरेलू आयोजन की इस तरह से रिपोर्टिंग उन्‍हें अच्‍छी नहीं लगी. टीवी चैनल्‍स के संपादकों ने आपस में बात की और तय किया कि ऐश्‍वर्या की प्रेग्‍नेन्‍सी को इस तरह से कवर नहीं करेंगे. बच्‍चन परिवार में नया मेहमान आने के मौके पर खबर दिखाते वक्त उनकी भावनाओं का ध्‍यान रखा जाएगा. कैमरे हटा लिए गए, ब्रॉडकास्‍ट वैन वापस चली गईं. अमिताभ बच्‍चन ने लिखा-

इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया का शुक्रिया, मैं आभारी हूं कि उन्‍होंने इस मौके पर हमे परेशान नहीं किया और एक सम्‍मानजनक दूरी बनाए रखी’

सोनिया गांधी ऑपरेशन के लिए अमेरिका के किसी हॉस्पिटल में भर्ती हो गईं. ये ख़बर अचानक आई थी. लोग जानना चाहते थे कि सोनिया गांधी को क्‍या हुआ, उनकी बीमारी क्‍या है, वो कब तक ठीक हो जाएंगी, ख़बर बड़ी थी लेकिन जनार्दन द्विवेदी ने पत्रकारों से कहा कि गांधी परिवार इसे निजी मामला मानता है, इसलिए सोनिया गांधी की बीमारी पर मीडिया को कोई जानकारी नहीं दी गई. टीवी चैनलों ने गांधी परिवार की भावनाओं का आदर किया, जितना बताया गया था उससे एक शब्‍द ज्‍यादा नहीं कहा, किसी ने कैमरा टीम गांधी परिवार के पीछे नहीं लगाई, ना उस हॉस्पिटल में कैमरे तैनात करने की कोशिश की जहां सोनिया का ऑपरेशन हुआ, न ही किसी डॉक्‍टर का पीछा किया, किसी टीवी चैनल ने स्‍टूडियो में डॉक्‍टर्स को बुलाकर सोनिया गांधी की बीमारी पर शो नहीं किया, सोनिया गांधी के वापस आने के बाद भी उनकी बीमारी और रिकवरी को लेकर कोई छानबीन नहीं की गई.

मोहम्‍मद अज़हरुद्दीन के जवान बेटे के साथ दुर्घटना हुई, तेज़ रफ्तार वाली मोटरसाइकिल पर हुआ ये हादसा बड़ी ख़बर थी, जवान बेटा कई दिन तक ज़िंदगी की लड़ाई लड़ता रहा, उसकी मौत के बाद अज़हर के दोस्‍तों ने कहा वे नहीं चाहते कि उनके घर के बाहर कैमरे लगे रहें, जैसे ही ये बात पता चली सारे टीवी चैनलों ने अपने रिपोर्टर्स और कैमरामैन को वापस बुला लिया. इस ख़बर को बहुत संजीदगी से रिपोर्ट किया गया. अज़हरुद्दीन जब इस सदमे से बाहर आए तो उन्‍होंने टीवी चैनलों का शुक्रिया अदा किया.

ये तीनों घटनाएं ऐसी हैं कि दुनिया के किसी भी मुल्‍क में मीडिया इन्‍हें बड़ी ख़बर बना देता, अगर ये न्‍यूयॉर्क या लंदन होता तो इन तीनों ख़बरों को सनसनीख़ेज़ बनाकर दिखाने से कोई नहीं रोक सकता था, लेकिन हमारे यहां टीवी चैनल्‍स ने परिवारों को अपना समझा, उनकी भावनाओं का आदर किया अपने आप पर संयम रखा, लेकिन फिर भी कुछ लोग कहते हैं कि ये टीवी वाले बड़े पत्‍थर दिल हैं कुछ लोग बार - बार ये कहने से बाज नही आते कि टीवी वाले तो सबकुछ टीआरपी के लिए करते हैं.

ऐसे लोगों के लिए अगर ये तीन उदाहरण काफी नहीं हैं तो मैं सैकड़ों उदाहरण पेश कर सकता हूं. एक से बढ़कर एक नाज़ुक हालात जहां टीवी चैनलों ने अपने आप पर संयम रखा. ज़िम्मेदारी से खबरों को रिपोर्ट किया. राम जन्‍मभूमि के सवाल पर जब अदालत का फैसला आया टीवीचैनलों ने परिपक्वता का परिचय दिया. उस वक्त न्‍यूज़ ब्रॉडकास्‍टर्स के लिए बनी सेल्‍फ रेगुलेशन अथॉरिटी के प्रमुख जस्टिस वर्मा ने कहा था , इस मामले में सिर्फ फैसले की रिपोर्टिंग होनी चाहिए , उन्‍होंने सलाह दी कि इस मामले में कोई ऐसी बात न कही जाए जिससे सनसनी पैदा हो, वैसा ही हुआ. दिल्‍ली हाईकोर्ट में बम फटा, लोग मारे गए किसी टीवी चैनल ने खून से सनी लाशें नहीं दिखाईं. मालेगांव में एक विधायक ने एक वीडियो डीवीडी बंटवाई जो आग लगा सकती थी, लोगों की भावनाओं को भड़का सकती थी टीवी चैनल्‍स ने तय किया कि उसे कोई नहीं दिखाएगा, भरतपुर में दंगे हुए, मुरादाबाद में दंगे हुए, किसी चैनल ने आग में घी डालने का काम नहीं किया .

लेकिन कुछ लोग फिर भी ये कहने से बाज नहीं आते कि ये टीवी वाले सेंसेशनल ख़बर दिखाते हैं, भावनाओं को भड़काते हैं. असल में ये वो लोग हैं जो टीवी देखते नहीं सिर्फ सुनी सुनाई बातों पर यकीन करते हैं. ऐसे लोगों को कोई कैसे समझाए ?

दूसरी तरफ टीवी वालों पर इल्‍ज़ाम लगाने वाले ऐसे लोग हैं जिन्‍हें टीवी की खबरों से गहरी चोट पहुंची है, जिनका कच्‍चा चिट्ठा टीवी ने जनता के सामने रखा, ऐसे लोगों से मुझे कोई शिकायत नहीं.

उत्तरप्रदेश के माफिया सरगना डी.पी यादव की नाराज़गी वाजिब है, उन्‍हें लगता है कि टीवी चैनल न होते तो हत्‍या करके भी उनका बेटा बच जाता. सज़ा हो गई तो भी पैरोल पर घर आ जाता. कम से कम बीमारी के बहाने हॉस्पिटल में भर्ती रहता, लेकिन टीवी की ख़बरों ने उसे सलाखों से बाहर नहीं आने दिया, अगर वो आया तो उसे वापस वहीं पहुंचा दिया. हरियाणा सरकार में मंत्री रहे विनोद शर्मा की नाराज़गी समझ में आती है, टीवी चैनल शोर नहीं मचाते तो जेसिका लाल की हत्‍या करके भी उनका बेटा मनु छूट जाता. पैरोल पर आता, डिस्‍को में जाता, लेकिन इन कैमरों ने उनका जीना मुहाल कर दिया. उनके वकील बार-बार कोर्ट में कहते हैं मीलॉर्ड ये मीडिया ट्रायल है.

ताकतवर करुणानिधि की बेटी कनीमोड़ी कई महीनों से जेल में हैं, उनके वकील भरी अदालत में कहते हैं ये टीवी वालों ने दबाव बनाया हुआ है इसलिए कोई भी कोर्ट उन्‍हें ज़मानत देने को तैयार नहीं.

अगर कोई ऐसी ख़बरों के लिए टीवी को भला बुरा कहता है तो कोई दिक्‍कत नहीं. परेशानी ऐसे लोगों से है जो बिना टीवी देखे फरमान सुना देते हैं कि इन पर कंट्रोल होना चाहिए, इन लोगों को ज़रा आंख खोलकर देखना चाहिए कान खोलकर सुनना चाहिए पिछले दो साल में ख़बरों के टीवी चैनलों में कितना बदलाव आया है.

अमिताभ बच्‍चन, सोनिया गांधी, मोहम्‍मद अज़हरुद्दीन आपको बता देंगे कि हमारे मुल्क में टीवी की खबरों में दूसरों की भावनाओं का कितना सम्मान किया जाता है , कोई अन्‍ना हजारे से पूछे कि भ्रष्‍टाचार के खिलाफ उनकी आवाज़ को जनता तक पहुंचाने के पीछे टीआरपी की रेस थी या ज़िम्‍मेदारी का एहसास. कोई अंबिका सोनी से पूछे कि कैसे हर संकट के समय में न्‍यूज़ चैनलों ने सरकार की हर बात को माना है, कोई जस्टिस वर्मा से पूछे कि उनकी सलाह का हर न्‍यूज़ चैनल ने कैसे अक्षरशः पालन किया है‍. कोई करोड़ों दर्शकों से पूछे कि उन्हे न्याय दिलाने के लिए न्यूज़ चैनल कैसे दिन रात लड़ते हैं ग़लतियां अब भी होती हैं, लेकिन कम होती हैं, सुधार की गुंजाइश अब भी है, लेकिन दो साल में बहुत सुधार हुआ है. मेरा दावा है कि इतने कम समय में सेल्‍फ रेगुलेशन से इतने ज़्यादा सुधार का दुनिया में दूसरा उदाहरण नहीं मिलेगा.

(मूलतः अंग्रेजी में प्रकाशित लेख. इंडिया टीवी के वेबसाईट से साभार)

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