वीपी सिंह के फतेहपुर में कांग्रेस को जीत की आस ?
फतेहपुर। रात के दस बजे हैं। 75 वर्षीय कांग्रेस नेता प्रेमदत्त तिवारी का ब्लड प्रेशर बढ़ा हुआ है। वे दिन भर गांवों में प्रचार के बाद लौटकर लेटे हैं। दो बार विधायक रहे तिवारी को उम्मीद है कि इस बार कांग्रेस की कोंपलें जरूर फूटेंगी। चालीस साल तक एकछत्र कांग्रेस का मजबूत गढ़ रहे फतेहपुर में बसपा का कब्जा है। छह विधानसभा सीटें हैं। चार पर बसपा काबिज है। दो पर भाजपा, सांसद सपा के हैं। कांग्रेस कहीं नहीं।
फतेहपुर की पहचान विश्वनाथ प्रताप सिंह से है। कांग्रेस से बगावत के बाद दो बार वे यहां से सांसद रहे। प्रधानमंत्री बने। वे बोफोर्स तोप घोटाले को लेकर राजीव गांधी के खिलाफ सड़कों पर निकले थे। कांग्रेस जड़मूल से ऐसी साफ हुई कि फिर कभी खड़ी नहीं हो सकी। मगर राजा मांडा के नाम से पहचाने जाने वाले वीपी यहां अवसरवादी नेता के रूप में याद किए जाते हैं। लोग उनके नाम से चिढ़ते हैं। बेटे अजेय प्रताप सिंह पिता के नाम पर 2009 के लोकसभा चुनाव में प्रकट हुए। दस हजार वोट मिले। जमानत जब्त हुई। सिंह सुपुत्र दबे पांव कांग्रेस में शामिल हो गए।
वीपी सिंह शौकिया कवि और पेंटर भी थे। न तो उनकी राजनीति किसी काम आई। न ही रचनात्मकता फतेह पुर पहले जैसा ही फटेहाल रहा। न उद्योग, न रोजगार, न बेहतर रेल नेटवर्क। प्रधानमंत्री के रूप में याद करने लायक कुछ नहीं ब्राह्मण बहुल इस इलाके में बुजुर्ग ब्राह्मण आहें भरकर याद करते हैं कि कांग्रेस से किसी समय गोविंद वल्लभ पंत, कमलापति त्रिपाठी, सुंदरलाल बहुगुणा, नारायणदत्त तिवारी और श्रीपति मिश्रा ब्राह्मण मुख्यमंत्री हुए। दूसरी किसी पार्टी में यह संभव नहीं। 2007 में दलित-ब्राह्मण भाईचारा रंग लाया। इस बार कलई उतरी है। नाराज ब्राह्मणों का कहना है कि मायावती के करीबी सतीशचंद्र मिश्रा ने ब्राह्मणों को छला। सिर्फ अपने नाते-रिश्तेदारों के घर भरे।
फतेहपुर समेत पूरा उप्र जातिवादी राजनीति की प्रयोगशाला बना है। लोग इसका दोष भी वीपी सिंह के सिर मढ़ते हैं। वजह-मंडल कमीशन की रिपोर्ट। सपा के चुनाव प्रभारी प्रभातकुमार सिंह का कहना है कि मंडल का बटन दबाकर वीपीसिंह ने बसपा के वोट बैंक की मजबूत बुनियाद बनाई। दलित बसपा में गए। मंडल का जवाब भाजपा ने मंदिर से दिया तो सवर्ण भाजपा से जुड़ गए। डरे हुए मुसलमानों को सपा में पनाह मिली। कांग्रेस दिवालिया हो गई।
फतेहपुर की पहचान विश्वनाथ प्रताप सिंह से है। कांग्रेस से बगावत के बाद दो बार वे यहां से सांसद रहे। प्रधानमंत्री बने। वे बोफोर्स तोप घोटाले को लेकर राजीव गांधी के खिलाफ सड़कों पर निकले थे। कांग्रेस जड़मूल से ऐसी साफ हुई कि फिर कभी खड़ी नहीं हो सकी। मगर राजा मांडा के नाम से पहचाने जाने वाले वीपी यहां अवसरवादी नेता के रूप में याद किए जाते हैं। लोग उनके नाम से चिढ़ते हैं। बेटे अजेय प्रताप सिंह पिता के नाम पर 2009 के लोकसभा चुनाव में प्रकट हुए। दस हजार वोट मिले। जमानत जब्त हुई। सिंह सुपुत्र दबे पांव कांग्रेस में शामिल हो गए।
वीपी सिंह शौकिया कवि और पेंटर भी थे। न तो उनकी राजनीति किसी काम आई। न ही रचनात्मकता फतेह पुर पहले जैसा ही फटेहाल रहा। न उद्योग, न रोजगार, न बेहतर रेल नेटवर्क। प्रधानमंत्री के रूप में याद करने लायक कुछ नहीं ब्राह्मण बहुल इस इलाके में बुजुर्ग ब्राह्मण आहें भरकर याद करते हैं कि कांग्रेस से किसी समय गोविंद वल्लभ पंत, कमलापति त्रिपाठी, सुंदरलाल बहुगुणा, नारायणदत्त तिवारी और श्रीपति मिश्रा ब्राह्मण मुख्यमंत्री हुए। दूसरी किसी पार्टी में यह संभव नहीं। 2007 में दलित-ब्राह्मण भाईचारा रंग लाया। इस बार कलई उतरी है। नाराज ब्राह्मणों का कहना है कि मायावती के करीबी सतीशचंद्र मिश्रा ने ब्राह्मणों को छला। सिर्फ अपने नाते-रिश्तेदारों के घर भरे।
फतेहपुर समेत पूरा उप्र जातिवादी राजनीति की प्रयोगशाला बना है। लोग इसका दोष भी वीपी सिंह के सिर मढ़ते हैं। वजह-मंडल कमीशन की रिपोर्ट। सपा के चुनाव प्रभारी प्रभातकुमार सिंह का कहना है कि मंडल का बटन दबाकर वीपीसिंह ने बसपा के वोट बैंक की मजबूत बुनियाद बनाई। दलित बसपा में गए। मंडल का जवाब भाजपा ने मंदिर से दिया तो सवर्ण भाजपा से जुड़ गए। डरे हुए मुसलमानों को सपा में पनाह मिली। कांग्रेस दिवालिया हो गई।
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