Monday 24 February 2014

काश हम आज़ाद न होते ?

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सुना है आज़ादी से पहले देश मैं खुशहाली, ईमानदारी और भाईचारा हुआ करता था, मैं यह सोचकर ही हैरान होता हूँ के ऐसा अब क्या हुआ जो हम आज इतनी नफरत के दौर से गुज़र रहे हैं क्यूँ आज हिन्दू मुस्लिम सिख और ईसाई आपस मैं मुहब्बत से नहीं रह सकते हैं ?

सभी का खाना पकाना , रहना सहना , सोना जागना अपने घर होता है, सब अपनी अपनी परेशानियों मैं घिरे हुए हैं जो खुश हैं वोह भी सब अपना अपना खाते कमाते हैं !
फिर का वजाह है जो सियासतदानो के बहकावे मैं आकर अपने चैन और सुकून के साथ भाईचारे को खतरे मैं डाले हुए हैं, क्यूँ नहीं समझते के हम एक दूसरे से नफरत क्यूँ कर रहे हैं और इस नफरत का नुकसान किसको और कितना बड़ा हो रहा है, आज देश जो बदहाली महंगाई और लूटखसोट का शिकार है उसकी सबसे बड़ी वजाह यही हमारी एक दूसरे से नफरत है ?
आज भी हम नाम के आज़ाद हैं वरना तौ ग़ुलामों से बदतर ज़िंदगी है आज हमारी ?

दोस्तों आज यह साबित हो गया के इस देश मैं इन्साफ मिलना आसान नहीं है क्या देश का कानून भी सियासत की नज़र हो गया है ?  एक प्रधान्मंत्री के परिवार को भी राजनीती का शिकार होना पढता है ? आज वोह भी यह कहने को मज़बूर है के देश मैं "जब प्रधानमंत्री के साथ इन्साफ नहीं हुआ तब ग़रीब के साथ इन्साफ कि क्या उम्मीद की जाये" क्या यह देश के लिए सही है ? और कब तक लोग कानून का मज़ाक़ बनाते रहेंगे और देश का कानून कब तक यूँही देश कि अज़मत को लुटता देखता रहेगा ? कब कानून कि आंखों से पट्टी हटेगी कब देश मैं का डंका बजेगा कब ?

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