Sunday, 7 February 2016

अरे भाई गली सड़ी सब्ज़ियाँ फेंक क्यों नहीं देते?

टमाटर देना! और हाँ ताज़ा सब्ज़ी देना! गली सड़ी नहीं...। "बाजी! मेरा माल बिलकुल ताज़ा है, देखें, गली सड़ी सब्ज़ियाँ मैं पहले ही पेटी में डाल देता हूँ...।" ये कहते हुए बख़्श ने ठेले के नीचे बंधी पेटी की तरफ़ इशारा किया...।
"अरे भाई गली सड़ी सब्ज़ियाँ फेंक क्यों नहीं देते? क्या ज़रूरत है सँभाल कर रखने की?"
"बाजी, जानवर मवेशी के आगे डाल देता हूँ, बे-ज़बान
दुआ देते हैं...।"
बख़्श दिन-भर फेरी लगाता था, बड़ी मुश्किल से गुज़ारा होता था, उसने अपने दोनों बच्चों को स्कूल में दाख़िल करवा दिया था ताकि पढ़-लिखकर इज़्ज़त की दाल रोटी कमा सकें...। महंगाई ने कमर तोड़ दी थी, ऊपर से स्कूल की किताबें, यूनीफार्म ये अलग खर्चे थे...।
शाम को थका हारा बख़्श घर आया और अपनी बीवी मुबशरा को आवाज़ दी...।
"मुबशरा! अरी ओ मुबशरा! ले खाना तैयार कर बच्चे भूके होंगे..." ये कहते हुए बख़्श ने ठेले के नीचे बंधी पेटी खोलकर मुबशरा को पकड़ा दी...।"
कई साल पहले, कॉलेज के ज़माने में मेरे टीचर ने एक बात कही थी कि गली में फेरी लगाने वालों से कभी भाव ना करें...। कभी हश्र गर्मी, कभी बारिश और आँधी तूफ़ान, कभी यख़ सर्दी में चंद टकों का मुनाफ़ा कमाने के लिए सुबह से शाम तक ख्वार होते हैं...।
हम लोगों का अलमिया ये है कि बड़े सुपर स्टोर्ज़ में महंगे दामों पर चीज़ ख़रीद लेते हैं, चूँ नहीं करते... लेकिन फेरी वाले से धन्या और मिर्ची पर भी बहस शुरू कर देते हैं...।
ख़ैर लिखने से ये मुराद बिलकुल नहीं है कि अपने आपको लुटवा दो, मगर कुछ मदद ऐसी ज़रूर कर दो कि सामने वाले को पता तक न चले...।

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