Sunday 13 August 2017

कौन डर रहा है, कौन डरा रहा है ?

दोस्तों
बुरा मानने की ज़रूरत नहीं है, वाकई मैं अंसारी साहब ने ग़लत बोल दिया, डर हमारे दिलों मैं ना था ना है ओर ना ही इंशाअल्लाह रहेगा, ये बात मैं पूरे होशोहवास मैं कह रहा हुँ ओर एक एक अल्फ़ाज़ सच है मैं साबित करता हुँ डर किसमे है ओर क्यूं है !

आज पूरे मुल्क मैं एक ही चर्चा
ज़्यादा है ओर वो है उपराष्ट्रपति के वो ब्यान जो उन्होने अपने विदाई समारोह मैं दिये कहा कि आज मुस्लमान डर ओर दहशत मैं है ? नहीं अंसारी साहब ये आपकी सोच हो सकती है मुस्लिम भारत को अपना घर वतन सबकुछ मानता है ओर कभी कोई अपने घर मैं डरता नहीं है जनाब !
हां कुछ सालों ये मैं ये ज़रूर देख रहा हुँ कि हमसे हमारे बहुसंख्यक भाईयों को डराकर अपने पाले मैं किया जा रहा है, हमसे डराकर देश की आज़ादी मैं अंग्रेज़ों की ग़ुलामी करने वाले आज फिर मुल्क को अंग्रेज़ों के हाथों सौंपना चाहते हैं ओर इसपर हज़ारों करोड़ रूपया ख़र्च भी कर चुके हैं!
अंग्रेज़ों से मांफ़ी मांगने वाले, आज़ादी के जांबाज़ों का मज़ाक़ उड़ाकर अहिंसा के पुजारी की हत्या करने वाले आज अपने मंसूबों को कुछ प्रतिशत को अपने पाले मैं कर अंजाम देना चाहते हैं तब मैं उनसे यही कहना चाहुंगा कि पढ़ लो ये आज़ादी के दीवाने की रचनाऐं, हमारे साथियों को हमसे मत डराओ हमने पिछले सत्तर साल मैं गद्दारी जैसा कुछ नहीं किया बल्कि दुश्मन को ख़ाक़ मैं मिलाने वाला फिर अब्दुल कलाम दिया है हम अब्दुल कलाम साहब के सिपेसाहलार हैं सिपाही हैं अंग्रेज़ों के दलाल नहीं ओर ना ही सत्ता के लिए अपनों का ख़ून बहाने वाले गद्दार हैं हम देश पर मर मिटने वाले देशभक्त हैं पहले भी आज़ाद कराया है फिर करायेंगे इंशाअल्लाह ...!
रचनाकार: बिस्मिल अज़ीमाबादी                
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल में है!

करता नहीं क्यों दूसरा कुछ बातचीत,
देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफिल मैं है!

यों खड़ा मक़्तल में कातिल कह रहा है बार-बार
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है!

ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार
अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफिल में है!

वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमां,
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है!

खींच कर लाई है सब को कत्ल होने की उम्मीद,
आशिकों का आज जमघट कूचा-ऐ-कातिल में है!

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल में है!!

रचनाकार: शकील बदायूनी                
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं
सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं

हमने सदियों में ये आज़ादी की नेमत पाई है
सैंकड़ों कुर्बानियाँ देकर ये दौलत पाई है
मुस्कुरा कर खाई हैं सीनों पे अपने गोलियां
कितने वीरानो से गुज़रे हैं तो जन्नत पाई है
ख़ाक में हम अपनी इज्ज़़त को मिला सकते नहीं
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं...

क्या चलेगी ज़ुल्म की अहले-वफ़ा के सामने
आ नहीं सकता कोई शोला हवा के सामने
लाख फ़ौजें ले के आए अमन का दुश्मन कोई
रुक नहीं सकता हमारी एकता के सामने
हम वो पत्थर हैं जिसे दुश्मन हिला सकते नहीं
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं...

वक़्त की आवाज़ के हम साथ चलते जाएंगे
हर क़दम पर ज़िन्दगी का रुख बदलते जाएंगे
’गर वतन में भी मिलेगा कोई गद्दारे वतन
अपनी ताकत से हम उसका सर कुचलते जाएंगे
एक धोखा खा चुके हैं और खा सकते नहीं
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं...

हम वतन के नौजवाँ है हम से जो टकरायेगा
वो हमारी ठोकरों से ख़ाक में मिल जायेगा
वक़्त के तूफ़ान में बह जाएंगे ज़ुल्मो-सितम
आसमां पर ये तिरंगा उम्र भर लहरायेगा
जो सबक बापू ने सिखलाया भुला सकते नहीं
सर कटा सकते है लेकिन सर झुका सकते नहीं...

याद रखो जहां डर है वहां इस्लाम नहीं ?
ओर जहां इस्लाम है वहां डर नहीं समझे !

आपका दोस्त 
एस एम फ़रीद भारतीय
मानवाधिकार कार्यकर्ता 
सम्पादक, सोशलिस्ट 
+919808123436
जयहिन्द

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