एस एम फ़रीद भारतीय
१९४२ भारत छोड़ो आंदोलन और हिंदुत्व टोली की एक गद्दारी-भरी दास्तान
अगस्त 1942 को गांधी जी की क़ियादत मे जैसे ही युसुफ़ जाफर मेहर अली ने ‘अंग्रेज़ो भारत छोड़ो’ का नारा दिया पूरे हिन्दुस्तान मे इंक़लाब की लहर दौड़ पड़ी और इसका असर मुम्बई जैसे बड़े शहर से निकलकर बिहार के मेदनीपुर बड़हिया जैसे गांव पर भी पड़ा, 9 अगस्त 1942 को इंक़ालाबीयों के हुजुम ने गया ज़िला के कुर्था थाने
पर क़ब्ज़ा कर हिन्दुस्तान का परचम लहरा दिया और थाने पर कब्ज़ा देख अंग्रेज़ पूरी तरहां बौखला गए और उन्होने गोली चलाने का हुक्म दे दिया जिसके नतीजे मे इंक़ालाबियों की क़यादत कर रहे मेदनीपुर बड़हिया के लाल ‘मलिक वैज़ुल हक़’ बुरी तरह ज़ख़्मी हो गए और उनके साथी ‘श्याम बिहारी बेनीपुरी’ जो उस समय 9वीं दर्जे के तालिब ए इल्म थे मुल्क की ख़ातिर मौक़ पर ही शहीद हो गए, वैज़ुल हक़ साहेब को इलाज के लिए हॉस्पीटल ले जाया गया जहां वोह भी वतन ए अज़ीज़ की ख़ातिर कुछ दिन बाद शहीद हो गए.
गया ज़िला (अब अरवल) के कुर्था थाना के अंदर आने वाले मेदनीपुर बड़हिया के नियामत नबी के घर 1913 को पैदा हुए वैज़ुल हक बचपन से ही बहुत बहादुर थे, जब आंख खोला तो चंपारण मे गांधी के ज़ेर कियादत तहरीक चल रही थी, जब थोड़े बड़े हुए तो आंखो के सामने ख़िलाफ़त और असहयोग तहरीक देखा, ये वो दौर था जब बिहार के देहाती इलाक़ो मे इंक़लाबियों की फ़ौज तैयार हो रही थी, जिसे इलाक़ाई नेता लीड कर रहे थे, इब्तादाई तालीम कुर्था मे ही हासिल की.
बचपन से ही मुल्क की ख़ातिर कुछ करने का जज़्बा अपने सीने मे लिए वैज़ुल हक़ बड़े होने के बाद कांग्रेस से जुड़े और थाना कांग्रेस कमिटी कुर्था के सदर बने और खुल कर अंग्रेज़ मुख़ालिफ़ मुहीम से जुड़ गए, इस वजह कर अंग्रेज़ो के नज़र मे खटकने भी लगे और कई बार गिरफ़्तार भी हुए, फुलवारीशरीफ़, बक्सर और गया के जेल की काल कोठरियां इस बात की गवाह हैं, चूंकि वैज़ुल हक़ साहेब गर्म दल के नेता थे इसलिए अंग्रेज़ो को नुक़सान पहुंचाने और मुल्क से बाहर करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते थे, और यही वजह है वो और उनके इंक़लाबी साथियों ने गया ज़िला के पंचानपुर पुल को उड़ाने की एक नाकाम कोशिश भी की जिसके लिए उन्हे महीनो गया जेल मे रहना पड़ा.
आज भी वैज़ुल हक़ के आबाई माकान के टूटे हुए दरवाज़े जिसे अंग्रेज़ो ने गड़ांसे से तोड़ा था और दीवार पर गोलीयों के निशानात मौजूद हैं जो अंग्रेज़ो के ज़ुल्म को बयां करने के लिए काफ़ी हैं, वैज़ुल हक का मकान उस वक़्त इंक़लाबी सरगर्मीयों का मरकज़ हुआ करता था, बड़ी तादाद मे उनके मकान मे हथियार भी ऱखे रहते थे, एक बार अंग्रेज़ो ने उनके मकान से बंदूक़ और बड़ी तादाद कारतूसें भी बरामद की थी.
वैज़ुल हक़ साहेब को नेताजी सुभाष चंद्र बोस सहित कई अज़ीम नेताओं के ख़त आया करते थे, ये ख़त आज भी उनके वारिसों के पास महफ़ुज़ है.
वैज़ुल हक़ प्रो अब्दुल बारी के बहुत ही करीबी लोग मे शुमार होते थे और उनसे अकसर सलाह मशवरा करते थे, ग़ौर कीजिए प्रो अब्दुल बारी को भी गोली मार कर शहीद कर दिया गया था.
आज़ादी के बाद हुकुमत ए हिन्द की जानिब से शहीद वैज़ुल हक़ साहेब की विधवा को मोतिहारी मे कुछ ज़मीन देने की बात की गई, पर एक अकेली महिला के लिए अपने गांव से सैकड़ो कि.मी. दूर ज़मीन लेना बहुत ही मुशकिल भरा फ़ैसला था और उन्होने ये कह कर इंकार कर दिया के उनके पास सौ बीघा ज़मीन है और उन्हे सिर्फ़ एक ही बेटा है, ग़ौर करने वाली बात है शहीद वैज़ुल हक़ साहेब की पत्नी सिर्फ़ 25 साल की उमर मे मुल्क की ख़ातिर विधवा (बेवा) हो गई थीं, पर उन्हे पेंशन मिला जो किसी वजह से बाद मे बंद कर दिया गया, भारत के रेलवे मिनिस्टर की जानिब से भी शहीद वैज़ुल हक़ साहेब के परिवार वाले को कुछ ख़त आए जिसमे उनके मुल्क की ख़ातिर दी हुई क़ुर्बानी को साधुवाद पेश किया गया और उनकी शहादत को हमेशा याद रखने की बात की गई है.
आज क्या कोई हमको बताएगा शहादत को याद कैसे करते हैं ? अमर शहीद श्याम बिहारी बेनीपुरी के सम्मान मे एक मुजस्समा (मुर्ती) भर ही है, वो भी सिर्फ़ नाम का क्योंके उनका कोई फ़ोटो नही था इस वजह कर उनके बड़े भाई को ही नज़र मे रखकर मूर्ती तैयार की गई और नाम मे शहीद श्याम बिहारी बेनीपुरी लिख दिया गया, इन लोगो के नाम पर पूरे बिहार तो छोड़िए अपने ही आबाई इलाक़ा कुर्था मे ना ही कोई स्कुल है, ना ही कोई सरकारी इदारा.
यहां तक के एक रोड भी इनके नाम पर नही है, कैसे याद कीजिएगा इनकी क़ुर्बानी को ? आज इन शहीदों को परिवार का कोई पुरसान ए हाल पूंछने वाला नही है, शहीद वैज़ुल हक़ साहेब के परिवार वाले तो अपने बुज़ुर्गों की क़ुर्बानी को याद करते हुए कहते हैं जिसने मुल्क के सम्मान के लिए लड़ते हुए अपनी जान को कुर्बान कर दिया उसे अपने ही मुल्क, राज्य, ज़िला और गांव मे सम्मान नही मिल रहा है, यही शिकायत शहीद श्याम बिहारी बेनीपुरी के परिवार वालो का भी है.
आख़िर मे शहीदों को इक़बाल के इस शेर के साथ ख़िराज ए अक़ीदत...?
शहादत है मतलूब-ओ- मक़सूद ए मोमिन
न माल- ए – ग़नीमत न किश्वर कुशाई...
आगे इस ८ अगस्त २०१७ को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक अहम मील के पत्थर, ऐतिहासिक 'भारत छोड़ो आंदोलन’ को ७५ साल पुरे हो जायेंगे। ७ अगस्त १९४२ को अखिल भारतीय कांग्रेस समिति ने बम्बई में अपनी बैठक में एक क्रांतिकारी प्रस्ताव पारित किया जिसमें अंग्रेज़ शासकों से तुरंत भारत छोड़ने की मांग की गयी थी। कांग्रेस का यह मानना था कि अंग्रेज़ सरकार को भारत की जनता को विश्वास में लिए बिना किसी भी जंग में भारत को झोंकने का नैतिक और कानूनी अधिकार नहीं हैं। अंग्रेज़ों से भारत तुरंत छोड़ने का यह प्रस्ताव कांग्रेस द्वारा एक ऐसे नाजुक समय में लाया गया था जब दूसरे विश्वयुद्ध के चलते जापानी सेनाएं भारत के पूर्वी तट तक पहुँच चुकी थी और कांग्रेस ने अंग्रेज़ शासकों द्वारा सुझाई 'क्रिप्स योजना' को खारिज कर दिया था। 'अंग्रेज़ो भारत छोड़ो' प्रस्ताव के साथ-साथ कांग्रेस ने गांधी जी को इस आंदोलन का सर्वेसर्वा नियुक्त किया और देश के आम लोगों से आहवान किया कि वे हिंदू-मुसलमान का भेद त्याग कर सिर्फ हिंदुस्तानी के तौर पर अंग्रेजी साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए एक हो जाएं। अंग्रेज़ शासन से लोहा लेने के लिए स्वयं गांधीजी ने 'करो या मरो' ब्रह्म वाक्य सुझाया और सरकार एवं सत्ता से पूर्ण असहयोग करने का आहवान किया.
भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा के साथ ही पुरे देश में क्रांति की एक लहर दौड़ गयी। अगले कुछ महीनों में देश के लगभग हर भाग में अंग्रेज़ सरकार के विरुद्ध आम लोगों ने जिस तरह लोहा लिया उससे १८५७ के भारतीय जनता के पहले मुक्ति संग्राम की यादें ताजा हो गई। १९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन ने इस सच्चाई को एक बार फिर रेखांकित किया कि भारत की आम जनता किसी भी कुर्बानी से पीछे नहीं हटती है। अंग्रेज़ शासकों ने दमन करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, ९ अगस्त की सुबह से ही पूरा देश एक फौजी छावनी में बदल दिया गया, गांधीजी समेत कांग्रेस के बड़े नेताओं को तो गिरफ्तार किया ही गया दूरदराज के इलाकों में भी कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को भयानक यातनाएं दी गई.
सरकारी दमन और हिंसा का ऐसा तांडव देश के लोगों ने झेला जिसके उदहारण कम ही मिलते हैं। स्वयं सरकारी आंकड़ों के अनुसार पुलिस और सेना द्वारा सात सौ से भी ज्यादा जगह गोलाबारी की गई जिसमें ग्यारह सौ से भी ज्यादा लोग शहीद हो गए, पुलिस और सेना ने आतंक मचाने के लिए बलात्कार और कोड़े लगाने का बड़े पैमाने पर प्रयोग किया, भारत में किसी भी सरकार द्वारा इन कथकंड़ो का इस तरह का संयोजित प्रयोग १८५७ के बाद शायद पहली बार ही किया गया था.
१९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन को 'अगस्त क्रांति' भी कहा जाता है, जो आज ढकोसला बनाकर पेश की जा रही है, अंग्रेज़ सरकार के भयानक बर्बर और अमानवीय दमन के बावजूद देश के आम हिंदू मुसलमानों और अन्य धर्म के लोगों ने हौसला नहीं खोया और सरकार को मुंहतोड़ जवाब दिया, यह आंदोलन 'अगस्त क्रांति' क्यों कहलाता है इसका अंदाजा उन सरकारी आंकड़ों को जानकर लगाया जा सकता है जो जनता की इस आंदोलन में कार्यवाहियों का ब्योरा देते है.
सरकारी आंकड़ों के अनुसार २०८ पुलिस थानों, १२७५ सरकारी दफ्तरों, ३८२ रेलवे स्टेशनों और ९४५ डाकघरों को जनता के ज़रिये नष्ट कर दिया गया, जनता की हिंसा बेकाबू होने के पीछे मुख्य कारण यह था कि पूरे देश में कांग्रेसी नेतृत्व को जेलों में डाल दिया गया था और कांग्रेस संगठन को हर स्तर पर गैर कानूनी घोषित कर दिया गया था.
कांग्रेसी नेतृत्व के अभाव में अराजकता का होना बहुत गैर स्वाभाविक नहीं था, यह सच है कि नेतृत्व का एक बहुत छोटा हिस्सा गुप्त रूप से काम कर रहा था परंतु आमतौर पर इस आंदोलन का स्वरुप स्वतः स्फूर्त बना रहा.
यह जानकर किसी को भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि दमनकारी अंग्रेज़ सरकार का इस आंदोलन के दरम्यान जिन तत्वों और संगठनों ने प्यादों के तौर पर काम किया वे हिंदू और इस्लामी राष्ट्र के झंडे उठाए हुए थे, ये सच है कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भी भारत छोड़ो आंदोलन से अलग रहने का निर्णय लिया था, इसके बारे में सबको जानकारी है.
लेकिन आज के देशभक्तों के नेताओं ने किस तरह से न केवल इस आंदोलन से अलग रहने का फैसला किया था बल्कि इसको दबाने में गौरी सरकार की सीधी सहायता की थी जिस बारे में बहुत काम जानकारी है.
मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना ने कांग्रेसी घोषणा की प्रतिक्रिया में अंग्रेज सरकार को आश्वासन देते हुए कहा, 'कांग्रेस की असहयोग की धमकी दरअसल श्री गांधी और उनकी हिंदू कांग्रेस सरकार अंग्रेज़ सरकार को ब्लैकमेल करने की है, सरकार को इन गीदड़ भमकीयों में नहीं आना चाहिए,' मुस्लिम लीग और उनके नेता अंग्रेजी सरकार के बर्बर दमन पर ने केवल पूर्णरूप से खामोश रहे बल्कि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेज़ सरकार का सहयोग करते रहे, मुस्लिम लीग इससे कुछ भिन्न करे इसकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी क्योंकि वह सरकार और कांग्रेस के बीच इस भिड़त के चलते अपना उल्लू सीध करना चाहती थी, उसे उम्मीद थी कि उसकी सेवाओं के चलते अंग्रेज़ शासक उसे पाकिस्तान का तोहफा जरूर दिला देंगे ओर हुआ भी वही.
लेकिन सबसे शर्मनाक भूमिका हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की रही जो भारत माता और हिंदू राष्ट्रवाद का बखान करते नहीं थकते थे, भारत छोड़ो आंदोलन पर अंग्रेजी शासकों के दमन का कहर बरपा था और देशभक्त लोग सरकारी संस्थाओं को छोड़कर बाहर आ रहे थे, इनमें बड़ी संख्या उन नौजवान छात्र-छात्राओं की थी जो कांग्रेस के आहवान पर सरकारी शिक्षा संस्थानों को त्याग कर यानी अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर बाहर आ गए थे.
लेकिन यह हिंदू महासभा ही थी जिसने अंग्रेज़ सरकार के साथ खुले सहयोग की घोषणा की, हिंदू महासभा के सर्वेसर्वा वीर सावरकर ने १९४२ में कानपुर में अपनी इस नीति का खुलासा करते हुए कहा, 'सरकारी प्रतिबंध के तहत जैसे ही कांग्रेस एक खुले संगठन के तौर पर राजनीतिक मैदान से हटा दी गयी है तो अब राष्ट्रीय कार्यवाहियों के संचालन के लिए केवल हिंदू महासभा ही मैदान में रह गयी है.
हिंदू महासभा के मतानुसार व्यावहारिक राजनीती का मुख्य सिद्धांत अंग्रेज़ सरकार के साथ संवेदनपूर्ण सहयोग की नीति है, जिसके अंतर्गत बिना किसी शर्त के अंग्रेज़ों के साथ सहयोग जिसमें हथियार बंद प्रतिरोध भी शामिल है.'
कांग्रेस का भारत छोड़ो आंदोलन दरअसल सरकार और मुस्लिम लीग के बीच देश के बंटवारे के लिए चल रही बातचीत को भी चेतावनी देना था, इस उद्देश्य से कांग्रेस ने सरकार और मुस्लिम लीग के साथ किसी भी तरह के सहयोग का बहिष्कार किया हुआ था, लेकिन इसी समय हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ किसी भी तरह के सहयोग का बहिष्कार किया हुआ था, लेकिन इसी समय हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ सरकारें चलाने का निर्णय लिया, 'वीर' सावरकर जो अंग्रेज़ सरकार की खिदमत में ५ माफी-नामे लिखने के बाद दी गयी सजा का केवल एक तिहाई हिस्सा भोगने के बाद हिंदू महासभा के सर्वोच्च नेता थे, ने इस शर्मनाक रिश्ते के बारे में सफाई देते हुए १९४२ में कहा, 'व्यावहारिक राजनीती में भी हिंदू महासभा जानती है कि बुद्धिसम्मत समझौतों के जरिए आगे बढ़ना चाहिए.
यहां सिंध हिंदू महासभा ने निमंत्रण के बाद मुस्लिम लीग के साथ मिली जुली सरकार चलाने की जिम्मेदारी ली, बंगाल का उदहारण भी सबको पता है, उद्दंड लीगी जिन्हें कांग्रेस अपनी तमाम आत्मसमर्पणशीलता के बावजूद खुश नहीं रख सकी, हिंदू महासभा के साथ संपर्क में आने के बाद काफी तर्कसंगत समझौतों और सामाजिक व्यवहार के लिए तैयार हो गये और वहां की मिली-जुली सरकार मिस्टर फजलुल हक को प्रधानमंत्रित्व और महासभा के काबिल या मान्य नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में दोनों समुदाय के फायदे के लिए एक साल तक सफलतापूर्वक चली.'
यहाँ यह याद रखना जरुरी है कि बंगाल और सिंध के अलावा एनडब्लूएफ़पी (NWFP) में भी हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग की गठ-बंधन सरकार १९१२ में सत्तासीन हुई.
अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का रवैया १९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन के प्रति जानना हो तो इसके दार्शनिक एम.एस. गोलवलकर के इस शर्मनाक वक्तव्य को पढ़ना काफी होगा - '१९४२ में भी अनेकों के मन में तीव्र आंदोलन था, इस समय भी संघ का नित्य कार्य चलता रहा, प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प लिया,' इस तरह स्वयं गोलवलकर, जिन्हें गुरूजी भी कहा जाता है, से हमें यह तो पता चल जाता है कि संघ ने आंदोलन के पक्ष में परोक्ष रूप से किसी भी तरह की हिस्सेदारी नहीं की.
लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के किसी भी प्रकाशन या दस्तावेज या स्वयं गुरूजी के किसी तरह की हिस्सेदारी की थी, गुरूजी का यह कहना कि भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का रोजमर्रा का काम ज्यों का त्यों चलता रहा, बहुत अर्थपूर्ण है, यह रोजमर्रा का काम क्या था इसे समझना जरा भी मुश्किल नहीं है, यह काम था मुस्लिम लीग के कंधे से कंधा मिलाकर हिंदू और मुसलमान के बीच खाई को गहराते जाना.
अंग्रेज़ी राज के खिलाफ संघर्ष में जो भारतीय शहीद हुए उनके बारे में गुरूजी क्या राय रखते थे वह इस वक्तव्य से बहुत स्पष्ट है - 'हमने बलिदान को महानता का सर्वोच्च बिंदु, जिसकी मनुष्य आकांक्षा करे नहीं माना है क्योंकि अंततः वह अपना उद्देश्य प्राप्त करने में असफल हुए और असफलता का अर्थ है कि उनमें कोई गंभीर त्रुटि थी,' शायद यही कारण है कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक भी कार्यकर्ता अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करते हुए शहीद नहीं हुआ.
भारत छोड़ो आंदोलन के ७५ साल गुजरने के बाद भी कई महत्वपूर्ण सच्चाईयों से पर्दा उठना बाकी है, दमनकारी अंग्रेज़ शासक और उनके मुस्लिम लीगी प्यादों के बारे में तो सच्चाईयों जगजाहिर है लेकिन अगस्त क्रांति के वे गुनहगार जो अंग्रेज़ी सरकारी द्वारा चलाए गए दमन चक्र में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल थे अभी भी कठघरे में खड़े नहीं किए जा सके हैं, सबसे शर्मनाक बात तो यह है कि वो आज भारत पर राज कर रहे हैं, हिंदू राष्ट्रवादियों की इस भूमिका को जानना इसलिए भी जरुरी है ताकि आज उनके द्वारा एक प्रजातांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष भारत के साथ जो खिलवाड़ किया जा रहा है उसके आने वाले गंभीर परिणामों को समझा जा सके...
जब आरएसएस ने भारत छोड़ो आंदोलन को विफल करने की कोशिश की ओर अंग्रेज़ों का साथ दिया, जनसंघ (जो अब भाजपा है) के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी, संघ परिवार और वीर सावरकर अंग्रेजों के सहयोगी थे, कांग्रेस पार्टी ने ये दावा किया है.
पार्टी को प्रवक्ता आनंद शर्मा ने दावा किया है कि मुखर्जी ने बंगाल के तत्कालीन गवर्नर को इस बारे में पत्र लिखा था और बताया था कि भारत छोड़ो आंदोलन का मुकाबला कैसे किया जाए.
उन्होंने कहा कि संघ ने भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल नहीं होने का फैसला किया और आदेश जारी किया कि संघ का कोई सदस्य इसमें भाग नहीं लेगा.
शर्मा के अनुसार मुखर्जी द्वारा बंगाल के ब्रिटिश गवर्नर को लिखे पत्र में यह उल्लेख है। उन्होंने कहा कि भाजपा और प्रधानमंत्री ने सरदार पटेल को अपना बनाने की कोशिश की। कांग्रेस प्रवक्ता ने साथ ही यह भी कहा कि संघ को लेकर पटेल की राय का पता भारत सरकार की एक सरकारी विज्ञप्ति से चलता है जिसने संघ और हिंदू महासभा पर प्रतिबंध लगाया था। शर्मा ने कहा, ‘मोदीजी को याद रखना चाहिए कि भारत की आजादी के बाद उनके साथी और उनकी पार्टी भारत की आजादी, भारत के संविधान, भारत के लोकतंत्र के प्रत्यक्ष लाभार्थी हैं जिसने उन्हें, उनके साथियों, उनकी पार्टी को सशक्त किया.
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