Sunday 3 September 2017

औरतें मस्जिद मैं नमाज़ क्यूं ना पढ़ें ??

ये सवाल आजकल काफ़ी ज़ोर शोर से पूंछा जाता है कि "क्या औरतें मस्जिद में नमाज़ पढ़ सकती है??"
कुछ जवाब क़ुरआन ओर हदीसों के हवाले से !!
आज हिन्दुस्तान में कई मसलक के मुसलमान रहते है जैसे :- देऊबंदी, बरेलवी, अहले-हदीस, शिया वगैरह ? हिन्दुस्तान में मौजूद इन मसलकों में से सिर्फ़
अहले-हदीस मसलक के लोगों के यहां की औरतें ही मस्जिद में नमाज़ पढती है, ये लोग अपनी औरतों को ईद-उल-फ़ितर और ईद-उल-अज़हा की मौके पर ईदगाह में भी ले जाते है ताकि औरतें भी ईद की नमाज़ पढ़ सकें, ईदगाह में इमाम के पीछे सारे मर्द सफ़ (पंक्ति) बनाकर नमाज़ पढ़ते है और उनके पीछे एक परदा पड़ा होता जिसके पीछे औरतें नमाज़ पढ़ती है.
इसी वजह से मैनें इस बात के मुत्तालिक कुरआन की आयतें और हदीसे ढूढने शुरु की, काफ़ी दिनों की तलाश के बाद, काफ़ी कुछ मिला है, जो आयतें और हदीसें मुझे मिली है उनसे ये साबित होता है कि औरतें मस्जिद में नमाज़ अदा कर सकती है, इमाम के पीछे जमात के साथ नमाज़ पढ़ सकती है और ईद की नमाज़ पढने जा सकती हैं लेकिन अपने शौहर ओर वलियों की इजाज़त से !
कुरआन मजीद को मायनो के साथ पढते वक्त मुझे एक आयत मिली जिसे मैं काफ़ी वक्त से ढुढं रहा था.
"ऐ मरयम! अपने परवर्दिगार की फ़रमाब्रदारी करना और सजदा करना और रुकु करने वालों से साथ रुकु करना। सुरह आले इमरान सु. ३ : आ. ४३."

सबसे पहले इसका ज़िक्र सुरह ब.क.र सु. २. : आ. ११४
"और इससे बढकर कौन ज़ालिम है जो अल्लाह की मस्जिदों में जिक्र करने को मना करें और उन मस्जिदों को वीरान करने की कोशिश करें, ऐसे लोगो को हक नही है कि उन मस्जिदों में दाखिल हो मगर डरते हुये ऐसों के लिये दुनिया मे रुसवाई और आखिरत में बडा अज़ाब है".

सुरह ब.क.र. सु. २ : आ. ८० में "क्या तुम किताबें ईलाही के बाज़ अहकाम को मानते हो और बाज़ से इन्कार कर देते हो जो तुम में से ऎसी हरकत करे उन्की सज़ा क्या हो सकती है के दुनिया की ज़िन्दगी में तो रुसवाई हो कयामत के दिन सख्त से सख्त अज़ाब में मुब्तिला किये जायें और जो काम तुम करते हो अल्लाह उससे गाफ़िल नही।"
अब पेश है कुछ हदीसें :-
"रसुल अल्लाह सल्लाहो अलैहि वसल्लम फ़र्माया करते थे कि इस शहिदा खातुन उम्मे वरका अन्सारिया के यहां चलो हम उनकी ज़ियारत करे आपने उन्हे (उम्मे वरका) को ये दे रखा था की उन्के लिये अज़ान और अकामत कही जाये और वो खुद फ़र्ज़ नमाज़ में अपने घर व मुह्ल्ले वाली औरतों की जमात की इमामत करायें।"

हदीसों के नाम :- १) मुस्तदरिक हाकिम ३०२/१. २) सनन अबी दाऊद मये ऊजुल माबुद ३३/१. ३)
सनन दार कतनी ४०३/१. ४) सही इबने खुज़ेमा ८९/३. और कई हदीसों ब सनद सही.
"रसुल अल्लाह सल्लाहो अलैहि वसल्लम ने मस्जिद में बजमात नमाज़ पढने के लिये आने वाली औरतों के वास्ते एक खुसुसी दरवाज़ा मुकर्रर कर दिया था". "मुस्तदारिक हाकिम ३०२/१." (और इस्लाम के पहले खलीफ़ा उमर बिन खतताब रज़ीअल्लाहॊ तआलाअन्हो ने उस दरवाज़े को बरकरार रखा था)
"जब तुम्हारी औरतें तुमसे रात में नमाज़ बजमात पढने के लिये मस्जिद जाने के लिये इज़ाज़त मांगे तो तुम उन्हे इजाज़त दे दों"। "सही बुखारी ११९/१."
"अल्लाह की बन्दियों को तुम अल्लाह की मस्जिदों में जाकर नमाज़ पढने से मत रोको"। "हाशिया सही बुखारी अज़ शेख अहमद अली सहारनपुरी ११९/१ हाशिया न. १२"
"मर्द घर की औरतों और खवातीन को मस्जिद में आकर नमाज़ पढने से हर्गिज़ हर्गिज़ मना न करें"।
"मुसनद अहमद ४९, ३६/३"
"हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसुद रज़ीअल्लाहो तआलाअन्हो से मरवी है औरत की अपने घर में पढी हुई नमाज़ दुसरी जगह पढी हुई नमाज़ से बेहतर है लेकिन अगर वो नमाज़ अपने घर के बजाय मस्जिदे हराम यानि खाने-काबा और मस्जिदे नबवी में पढे तो वो घर में पढी हुई नमाज़ से बेहतर है और वो औरत अपने पांव में मोज़ा पहन कर निकले"।
"मौज़्ज़म कबीरुल तीबरानी व सनद सही ३३९/९."

"मर्द के लिये सबसे अफ़ज़ल सफ़े अव्वल है और औरत के लिये सबसे अफ़ज़ल पिछली सफ़ है"। "तर्जुमाने इस्लाम" ८६-८७.
"रसुल अल्लाह सल्लाहो अलैहि वसल्लम ने हमको हुक्म दिया कि हम नौजवान हायज़ा (हैज़, माहवारी वाली) और गैर-शादीशुदा औरतों को ईद-उल-फ़ितर और ईद-उल-अज़हा के दिन ईदगाह लेकर जायें तो वो औरतें जो शरई ऊजुल की वजह से नमाज़ नही पढ सकती नमाज़ की जगह से अलग रहें लेकिन खैर और मुसलमानों की दुआ मे हाज़िर हों.
हज़रत उम्मे अतिया फ़र्माती है की मैनें पुछा "ऐ अल्लाह के रसूल हम में से कुछ औरतें वो है जिनके पास चादर या बुर्का नही है तो आपने फ़र्माया तो उसकी बहन उसे अपनी चादर या बुर्का पहनाकर ले जायें"। "सही मुस्लिम मये शरह नुबी १७९, १८०/६."
"रसूल अल्लाह सल्लाहो अलैहि वसल्लम ईद की नमाज़ में औरतों को खास तौर पर सदके का हुक्म फ़र्माते थे और औरतें अपने ज़ेवरात तक सदके में दिया करती थी"। मुत्विका अलैह (सही बुखारी और सही मुस्लिम दोनों में इन्ही अल्फ़ाज़ो में मौजुद)
"हज़रत आयशा सिद्दिका रज़ीअल्लाहो तआलाअन्हा से रिवायत है की मोमिन औरतें फ़जर की नमाज़ में नबी करीम सल्लाहो अलैहि वसल्लम के साथ जमात में हाज़िर हुआ करती थी वो अपनी चादरों लिपटी रह्ती थी फ़िर नमाज़ के बाद अपने घरों को फ़िर इस लौटती की कोई फ़िर पहचान नही सकता"। "बुखारी, मुस्लिम"
"नबी करीम सल्लाहो अलैहि वसल्लम मस्जिद में थोडी देर ठहरे रहते ताकि औरतें मस्जिद से बइत्मिनान बाहर निकल जायें"। "सही बुखारी, अबुदाऊद."
"हज़रत अनस रज़िअल्लाहो तआलाअन्हो से रिवायत है कि रसुलें अकरम सल्लाहो अलैहि वसल्लम ने फ़र्माया मैं नमाज़ शुरु करता हूं और इसको लम्बी पढना चाहता हूं लेकिन किसी बच्चे के रोने की आवाज़ सुनता हूं तो नमाज़ मुख्तसिर कर देता हूं इसलिये मुझे मालुम है कि बच्चे की रोने की वजह से इसकी मां को तकलीफ़ और बैचेनी होगी।" "सही बुखारी और मुस्लिम"
"इमाम की गलती पर जमात में शरीक औरतें टोकती थी"

"मर्दों के लिये सुबहानल्लाह कहना और औरतों के लिये हाथ पर हाथ मारना।" "सही बुखारी व मुस्लिम"
"हज़रत उम्मे हश्शाम बिनते हारसा बिल अल अमान रज़ीअल्लाहो तआलाअन्हा फ़र्माती है कि मैनें सुरह काफ़ वल कुरआनो मजीद रसुल अल्लाह सल्लाहो अलैहि वसल्लम की ज़बान मुबारक से सुनकर हिफ़्ज़ किया था जिसे आप हर जुमा मिम्बर पर खुतबे के दौरान पढा करते थे।" "सही मुस्लिम" (इस हदीस से मालुम हुआ की जुमे की नमाज़ और खुत्बे जुमा में मर्दों के साथ औरतें भी रहा करती थी)
इन सब ह्दीसों को देखने और पढने के बाद कोई गुन्जाईश नही बचती है, अल्लाह ने औरत और मर्द को बराबर हक दिये है, दोनो की नमाज़ में कोई फ़र्क नही है,
अब भी आप लोगो को यकीन नही है तो ज़रा आप मेरे इन सवालों का कुरआन और हदीस की रोशनी में जवाब दीजिये.

"अगर औरत को मर्द के पीछे मस्जिद में नमाज़ पढना मना होता तो" मस्जिदे हराम यानि खाने काबा में औरतें मर्दों के पीछे नमाज़ क्यौं पढती है?
मस्जिदे नबवी में मर्द के पीछे नमाज़ क्यौं पढती हैं?
हज के मैदान में औरत मर्द के साथ क्यौं मौजुद होती है? 
उन्हे तो बिल्कुल अलग - अलग रहना चाहिये था. अल्लाह ने औरतों के लिये अलग से वक्त क्यौं नही बताया?

सफ़ा मरवाह औरतें मर्दों के साथ क्यौं दौडती है? 
अगर औरत का मर्द के साथ नमाज़ पढना मना होता तो अल्लाह पाक मर्द और औरत को अलग - अलग वक्त बताता दौडने के लिये, जबकि ऐसा कुछ भी नही है.

औरत तवाफ़ मर्द के साथ क्यौं करती है?
खाने-काबा भी तो एक मस्जिद है और उसमें भी औरत मर्द के साथ जाती है और उसके साथ तवाफ़ करती है ऐसा क्यूं ?अगर औरत का मस्जिद में जाना मना होता तो अल्लाह पाक तवाफ़ करने को क्यौं कहते?

जब हज के इतने अहकामों में औरत मर्द के साथ मौजुद होती है और इन अहकामों के बिना हज पुरा नही होता है, जब अल्लाह ने हज के वक्त औरत और मर्द में फ़र्क नही किया तो हम कौन होतें है फ़र्क करने वाले, तो मेरी मुसलमानों से गुज़ारिश है की मस्जिद में बाजमात नमाज़ पढना औरत का हक है वो उसे दीजिये.
अल्लाह ने रमज़ान के पुरे रोज़े रखने के बाद रोज़दार के लिये ईद के दिन को तोहफ़ा कहा है और इस तोहफ़े पर औरतों का भी उतना ही हक जितना मर्दों का है तो औरतों को उनका हक दो वर्ना कयामत के दिन अल्लाह के सामने ये औरतें तुम्हारा गिरेबान पकड कर सवाल करेंगी और उस दिन तुम्हारे पास कोई जवाब नही होगा.
ख़ैर कुल मिलाकर बहुत से सवाल जवाब हैं लेकिन सबका जवाब भी एक ही है कि औरतें अगर अपने शौहर ओर वली से इजाज़त मांगें तो दे देनी चाहिए ज़िक्र ये भी है वरना औरतों को कोई हक़ नहीं वो अपने शौहर के हुकुम के बिना कोई क़दम उठाये...!
अल्लाह हम सबको कुरआन और हदीस को पढकर, सुनकर, उसको समझने की और उस पर अमल करने की तौफ़िक अता फ़रमाये.
आमीन, सुम्मा आमीन

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