Tuesday 26 September 2017

वो ख़लीफ़ा जिसकी दुश्मन भी तारीफ़ करते हैं हज़रत उमर रज़ि ?

एस एम फ़रीद भारतीय
हजरत उमर इब्न अल-ख़त्ताब ( अरबी में ﻋﻤﺮ ﺑﻦ ﺍﻟﺨﻄّﺎﺏ ) ई. (586–590 – 644) आप नबी ऐ करीम जनाब हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सलल्ललाहो अलेयहिवसल्लम के ख़ास चार सहाबा (साथियों) में से एक थे, हज़रत अबु बक्र सिद्दीक रज़ि के बाद मुसलमानों के दूसरे खलीफा चुने गये, मुहम्मद साहब ने ही आपको फारूक नाम की उपाधि दी थी, जिसका मतलब सच और झूंठ में
फर्क करने वाला, मुहम्मद साहब के अनुयाईयों में आपका रुतबा हज़रत अबू बक्र रज़ि के बाद आता है.
हज़रत उमर ख़ुलफा-ए-राशीदीन में दूसरे ख़लीफा चुने गए, हज़रत उमर ख़ुलफा-ए-राशीदीन में सबसे सफल ख़लीफा भी साबित हुए, मुसलमान इनको फारूक-ए-आज़म तथा अमीरुल मोमिनीन भी कहते हैं, यूरोपिय लेखकों ने आपके बारे में कई किताबें लिखी हैं तथा उमर महान (Umar The Great) की उपाधी से आपको नवाज़ा है.
दुनियां के मशहूर लेखक माइकल एच. हार्ट ने अपनी मशहूर किताब दि हन्ड्रेड (The 100: A Ranking of the Most Influential Persons in History) सौ दुनिया के सबसे प्रभावित करने वाले लोग में हज़रत उमर रज़ि को शामिल किया है.
हज़रत उमर रज़ि का जन्म मक्का में हुआ था, आप कुरैश ख़ानदान से थे, जहालियत के दिनों में ही लिखना पढ़ना सीख लिया था, जो कि उस ज़माने में अरब लोग लिखना पढ़ना बेकार का काम समझते थे, इनका क़द बहुत ऊंचा, रौबदार चेहरा और गठीला शरीर था, उमर रज़ि मक्का के मशहूर पहलवानों में से एक थे, जिनका पूरे मक्का में बड़ा दबदबा था, उमर रज़ि सालाना पहलवानी के मुकाबलों में हिस्सा लेते थे, आरम्भ में हज़रत उमर इस्लाम के कट्टर शत्रु थे, और मुहम्मद साहब को जान से मारना चाहते थे, उमर शुरू में बुत परस्ती यानि मूर्ति पूजा करते थे.
आपका इस्लाम क़बूल करना
उमर मक्का में एक अच्छे ख़ाते पीते परिवार से थे, बहुत बहादुर तथा दिलेर इंसान थे, उमर मुसलमानों को पसन्द नहीं करते थे, ना ही मुहम्मद साहब के मिशन को, परन्तु पैगम्बर मुहम्म्द साहब एक शाम काबे के पास जाकर अल्लाह से दुआ किया कि अल्लाह उमर को या अम्र अबू जहल दोनों में से जो तुझको प्यारा हो हिदायत दे, यह दुआ उमर के हक़ में क़बूल हुई, उमर एक बार पैगम्बर साहब के कत्ल के इरादे से निकले थे, रास्ते में नईम नाम का एक शख़्स मिला जिसने उमर को बताया कि उनकी बहन तथा उनके पति इस्लाम ला चुके हैं, उमर गुस्से में आकर बहन के घर चल दिये, वह दोनों घर पर कुरआन पढ़ रहे थे, उमर उनसे कुरआन मांगने लगे मगर उनहोंने मना कर दिया, उमर क्रोधित होकर उन दोनों को मारने लगे.

मगर उनकी बहन ने कहा हम मर जाएंगे लेकिन इस्लाम नहीं छोड़ेंगे, बहन के चेहरे से खून टपकता देखकर उमर को शर्म आयी तथा ग़लती का अहसास हुआ, कहा कि मैं कुरआन पढ़ना चाहता हूँ, इसको अपमानित नहीं करूंगा वायदा किया, जब उमर ने कुरआन पढ़ा दो बोले यक़ीनन ये ईश्वर की वाणी है किसी मनुष्य की रचना नहीं हो सकती, एक चमत्कार की तरह से उमर कुरआन के सच को कबूल कर लिया तथा मुहम्मद सअव साहब से मिलने गये, मुहम्मद साहब को बहुत ख़ुशी हुई ओर हजरत उमर इस्लाम में दाखिल हो गये.
मुसलमानों खुशी की लहर दौड़ गई उमर के इस्लाम लाने पर, उमर ने एलान किया कि अब सब मिलके नमाज़ काबे में पढ़ेंगे जो कि पहले कोई सोच भी नहीं सकता था, उमर इस्लाम के दुश्मन थे लेकिन अब वह इस्लाम के सरंक्षक बन गये, उमर को इस्लाम में देखकर मुहम्मद साहब के दुश्मनों में कोहराम मच गया, अब इस्लाम को उमर नाम की एक तेज़ तलवार मिल गई थी जिससे सारा मक्का थर्राता था.
आपकी मदीने की हिजरत (प्रवास)
मक्का वालों ने कमज़ोर मुसलमानों पर सितम तेज़ कर दिये जिसको देखकर मुहम्मद साहब ने अल्लाह से दुआ की तो अल्लाह ने मदीने जाने का हुक्म दिया, सारे मुसलमान छुपकर मदीने की तरफ हिजरत यानि प्रवास करने लगे, मगर उमर बड़े दिलेर थे अपनी तलवार ली धनुष बाण लिया, काबा के पास पहुँच कर तवाफ किया, दो रकअत नामाज़ पढ़ी फिर कहा "जो अपनी माँ को अपने पर रुलाना चाहता है, अपने बच्चों को अनाथ तथा अपनी पत्नी को विधवा बनाना चाहता है इस जगह मिले." किसी का साहस नहीं हुआ कि उमर को रोके, हज़रत उमर ने ऐलान करके हिजरत की.

मदीना इस्लाम का एक नया केन्द्र बन चुका था, सन हिजरी इसलामी कैलंडर का निर्माण किया जो इस्लाम का पंचांग कहलाता है, 624 ई में मुसलमानों को बद्र की जंग लड़ना पड़ा जिसमें हज़रत उमर ने भी अहम् किरदार निभाया, बद्र की जंग में मुसलमानों की फतह हुई तथा मक्का के मुशरिकों की हार हुई, बद्र की जंग के एक साल बाद मक्का वाले एकजुट होकर मदीने पे हमला करने आ गए, जंग उहुद नामक पहाड़ी के पास हुई.
जंग के शुरू में मुस्लिम सेना भारी पड़ी लेकिन कुछ वजह से मुस्लिमों की हार हुई, कुछ लोगों ने अफवाह उड़ा दी कि मुहम्मद साहब शहीद कर दिये गये तो बहुत से मुस्लिम घबरा गए, उमर ने भी तलवार फेंक दी तथा कहने लगे अब जीना बेकार है, कुछ देर बाद पता चला की ये एक अफवाह है तो दुबारा खड़े हुए, इसके बाद खन्दक की जंग में साथ-साथ रहे.
हज़रत उमर ने मुस्लिम सेना का नेत्रत्व किया अंत में मक्का भी फतह हो गया, इसके बाद भी कई जंगों का सामना करना पड़ा, उमर ने उन सभी जंगो में नेत्रतव किया.
मुहम्म्द साहब की वफ़ात (मृत्यु)
8 जून सन् 632 को मुहम्मद साहब दुनिया को अलविदा कह गये, उमर तथा कुछ लोग ये विश्वास ही ना रखते थे कि मुहम्मद साहब की मुत्यु भी हो सकती है, ये ख़बर सुनकर उमर अपने होश खो बैठे, अपनी तलवार निकाल ली तथा ज़ोर-ज़ोर से कहने लगे कि जिसने कहा कि नबी की मौत हो गई है मै उसका सर तन से जुदा कर दूंगा, इस नाज़ुक मौके़ पर तभी हज़रत अबू बक्र रज़ि ने मुसलमानों को एक खु़तबा अर्थात भाषण दिया जो बहुत मशहूर है:
फिर क़ुरआन की आयत पढ़ कर सुनाई:
हज़रत अबु बक्र से सुनकर तमाम लोग गश खाकर गिर गये, उमर भी अपने घुटनों के बल गिर गये तथा इस बहुत बड़ें दु:ख को कबूल कर लिया.

एक ख़लीफा के रूप में ?
जब हज़रत अबु बक्र को लगा कि उनका वक़्त नज़दीक है तो उन्होंने अगले खलीफा के लिए हज़रत उमर को चुना, उमर उनकी असाधारण इच्छा शक्ति, बुद्धि, राजनीतिक चालबाज़ी, निष्पक्षता, न्याय और गरीबों और वंचितों लोगों के लिए देखभाल के लिए अच्छी तरह से जाने जाते थे, हज़रत अबु बक्र को पूरी तरह से उमर की शक्ति और उनको सफल होने की क्षमता के बारे में पता था, उमर का उत्तराधिकार इस प्रकार के रूप में दूसरों के किसी भी रूप में परेशानी नहीं था.

हज़रत अबु बक्र ने अपनी मृत्यु के पहले ही हज़रत उसमान को अपनी वसीयत लिखवाई कि उमर उनके उत्तराधिकारी होंगे, अगस्त, सन् 634 ई में हज़रत अबु बक्र की मृत्यू हो गई, उमर अब ख़लीफा हो गये तथा एक नये दौर की शुरुवात हुई.
अल्लाह हम सबको नबी की सुन्नत ओर सहाबा के नक़्शेक़दम पर चलने वाला बना दे आमीन...

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