एस एम फ़रीद भारतीय
दोस्तों अज़ीज़ो ओर साथियों लेख बड़ा हो सकता है आपकी निगाह मैं लेकिन मेरी निगाह मैं बहुत ही छोटा है ये हमारे क़बीले की आन बान ओर शान से जुड़ा लेख है मैने इसको बहुत ही छोटा करने की कोशिश की है बहुत से सवालों को छोड़ दिया है फिर भी अपनी कोई भी राय पूरा पढ़ने से पहले ना दें ये मेरी गुज़ारिश है.
जहां हम आज तक ख़ुद से ही सवाल करते आये हैं कि
हम यानि सैफ़ी क्या हैं, तब मैं एक छोटा सा परिचय ख़ुद से मतलब सैफ़ी समाज यानि क़बीले से कराना चाहता हुँ कि हम सैफ़ी हैं क्या ओर आज ये सैफ़ी पोस्ट साप्ताहिक ज़रिया है इसी सोच ओर अपने को खुद के साथ अपनी क़ौम ओर देशवासियों से रूबरू कराने का, उम्मीद है आप भी मेरी सोच से इत्तेफ़ाक़ करेंगे ?
हमेशा ही एक अजीब सी हलचल हमारे ख़ुद के अपने दिलों मैं भी रहती है कि हम सैफ़ी समाज के लोग क्या हैं ओर आज तक हम अपने हुनर का लोहा दुनियां के सामने क्यूं नहीं मनवा पाये आज मैं ऐसे ही सैकड़ों सवालों का जवाब अपनों के साथ अपने को भी देना चाहता हुँ ओर आप सभी सैफ़ी भाईयों से गुज़ारिश करता हुँ कि आप फ़क़र् के साथ कह सकते हैं कि मैं सैफ़ी हुँ, आप ओर हम ही क्यूं पूरी दुनियां ओर देश की अवाॅम को कहना चाहिए कि हमको सैफ़ियों पर फ़क्र है!
क्यूं कहना चाहिए आज मैं इसी का ख़ुलासा बड़े ही खुले दिमाग से करना चाहताआपको ये हुँ ओर आप सभी को ये भी बताना चाहता हुँ कि ये मेरी ख़ुशफ़हमी या किसी गुरूर की बात नहीं है हां इतना यक़ीन ज़रूर है कि जो मैं कहने जा रहा हुँ उससे पूरी दुनियां के लोग इत्तेफ़ाक़ करेंगे क्यूंकि मैं किसी नशे या ख़ुश फ़हमी मैं ये सब नहीं लिख रहा हुँ ओर ना ही बढ़ा चढ़ाकर लिखने की कोशिश कर रहा हुँ, मैं वही लिख रहा हुँ जो सैफ़ी समाज था है ओर शायद रहेगा भी.
कुछ लोग बहुत ही कड़वी ज़ुबान में ओ लुहार के, ओ बढ़ई के, कहकर भी पुकारते थे, कुछ लोग इससे भी गंदी ज़ुबान मैं पुकारा करते थे, कुछ ऐसे बेहुदा अल्फ़ाज़ बोलते जो सीधे दिलों पर चोट किया करते, लेकिन आख़िर करें तो क्या करें, जाएं तो कहां जाएं, सालों महीनों दिनों दिन जीतोड़ मेहनत करके किसानो के खेतों के लिए नये औज़ार बनाते कृषि यंत्रों की मरम्मत करते, मिस्त्री के लिए कमाई का इंतज़ाम, इतना सबकुछ करने के बावजूद सामाजिक और आर्थिक रूप से हमेशा दबाये जाते रहे.
इस सबसे परेशान आकर बिरादरी के लोगों ने जो लुहार ओर बढ़ई के नाम से जाने जाते थे तय किया कि क्यूं ना अपने नामों को ही बदला जाये तब बढ़ियों लकड़ी का काम करने वालो ने अपने लिए नूही नाम तज़्वीज़ किया और लोहे का काम करने वाले लुहारों ने दाऊदी नाम पर ज़ोर दिया.
लेकिन ये दोनों ही नाम नूही ओर दाऊदी इस क़बीले को अलग अलग बांटने वाले थे, जबकि ये दोनों ही काम करने वाले यानि लुहार-बढ़ई एक ही क़बीले के लोग हैं बेशक काम अलग अलग हों, तब कुछ बुज़ुर्गों की सलाह पर नाम के लिए मिटिंगें होती रही लेकिन सब बेनतीजा रहीं, तब अमरोहा में एक महासम्मेलन हुआ, बड़ी मेहनत व जिद्दोजहद ओर लाख कोशिशें करने के बाद दसियों हज़ार बिरादरी के लोगों के बीच 6 अप्रैल 1975 को स्वतंत्रता सेनानी और अल-जमियत उर्दू अख़बार के संपादक हज़रत मौलाना उस्मान फरकिलित साहब ने एक नाम तय किया "सैफ़ी" जो सब लोगों को बहुत ही पसंद आया ओर इसे तभी अपना लिया गया !
आज हम लोग इस नाम के साथ जहां अपने आप मैं फ़क्र महसूस करते हैं वहीं दिल मैं एक बात बड़े ज़ोर से खटकती भी रहती थी कि इस सैफ़ी सरनेम से पहले हम क्या थे, क्या लुहार ओर बढ़ई कोई सरनेम था या काम की पहचान ? बस तभी से अपने क़बीले के बारे मैं जानने की तमन्ना बढ़ गई ओर मैं कोशिश करने लगा कि किसी भी तरहां मालूम हो जाये हमें सैफ़ी सरनेम से पहले किस सरनेम से जाना जाता था!
काफ़ी कोशिशों के बाद मेहनत रंग लाई ओर जो कुछ सामने आया उससे बहुत सी उल्झने अपने आप सुलझती चली गई ओर दिमाग अपने आप काम करने लगा, जो कुछ जाना वही आप लोगों से साझा करने की कोशिश कर रहा हुँ ओर यक़ीन है आप भी अपने को मेरी सोच से इत्तेफ़ाक़ के लिए तैयार करेंगे.
दोस्तों जब भी मैं कहीं जाता तब मेरे दिमाग मैं एक ही सोच होती कि यहां से कुछ हमारे बारे मैं मालूम हो जाये, बातों ही बातों मैं जानने की कोशिश करता मगर कुछ तो उस वक़्त उम्र के लिहाज़ से मेरी बैचेनी को टाल देते ओर कुछ नासमझ समझकर बस अपने हिसाब से जवाब दे देते, जो मेरे गले नहीं उतरता था ओर मैं असल जवाब की तलाश मैं लगा रहता वो भी किसी लिखित सबूत के साथ, बस ये एक धुन सी बन गई थी ओर मुझको जानना था.
तब एक दिन ऐसा भी आया जब मैं जिस जगह कई बार अपने सवाल को बहुत से लोगों के सामने दोहरा चुका था वहीं मुझको सबूत के साथ अपने सवाल का मुकम्मल जवाब मिल गया ओर वो जगह थी मेरी बड़ी बहन की ससुराल यानि अलीगढ़ टनटन पारा मैं इमामुद्दीन बिल्डिंग.
हुआ यूं कि मैं एक बार जब बड़ी बहन के यहां गया तब उस वक़्त मेरे बहनोई जनाब क़ासिम साहब अपने किसी कागज़ की तलाश मैं अपने सभी कागज़ों के बक्से को खोले बैठे थे, ओर मैं वहां पहुंच गया तब मेरे बहनोई साहब ने ख़ुशी से मेरा इस्तग़्बाल करते हुए कहा कि फ़रीद साहब सही वक़्त पर आये हैं आप कुछ मेरी मदद करें इन कागज़ों को तरतीब से लगाने के साथ जिस कागज़ की मुझे तलाश है उसे ढूढने मैं, मैने कहा क्यूं नहीं लेकिन मेरी ऊर्दू इतनी अच्छी नहीं है जितनी आपकी है फिर भी मैं कोशिश करता हुँ ओर लग गया अपने बड़े बहनोई साहब के साथ.
कागज़ों को खंगालते हुए मेरे हाथ वो कागज़ लगा जिसकी मेरे बहनोई क़ासिम साहब को तो तलाश थी ही वहीं वो मेरे सवाल का जवाब भी था, वो कागज़ कासिम साहब के एक परदादा के मकान का कागज़ था जो उनको एक मुक़दमें मैं अदालत मैं जमा करना था ओर वो उस मकान का बैनामा था!
बैनामें पर जो मैने पढ़ा तो मैं दंग रह गया ओर अपने बहनोई कासिम साहब से पूंछा कि इस कागज़ मैं तो लिखा है आप लुहार नहीं नज्जार हैं आपका पेशा नज्जार ओर क़ौम मुस्लिम शेख़ लिखा हुआ है ?
तब क़ासिम साहब ने बताया कि नज्जार लुहार को ही कहा जाता है ओर हम ओर आप पक्के लुहार हैं ओर हमारा क़बीला मुस्लिम शेख़ है !
नोट ये लेख अभी पूरा नहीं है बाकी बाद मैंं इंशाअल्लाह
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