ज़ियाउद्दीन बरनी (जन्म - 1285; मृत्यु - 1357) भारत का इतिहास लिखने वाले पहले ज्ञात मुसलमान, जो दिल्ली में सुल्तान मुहम्मद बिन तुग़लक़ के नदीम (प्रिय साथी) बनकर 17 वर्षों तक रहे.
ज़ियाउद्दीन बरनी का जन्म 1285 ई. में सैय्यद परिवार मे हुआ था, ज़ियाउद्दीन बरन आधुनिक बुलन्दशहर के रहने वाले थे, इसीलिए अपने नाम के साथ बरनी लिखते थे, इनका बचपन अपने चाचा 'अला-उल-मुल्क' के साथ व्यतीत हुआ, जो अलाउद्दीन ख़िलजी के सलाहकार
थे, बरनी ने 46 विद्धानों से शिक्षा ग्रहण की थी, ज़ियाउद्दीन बरनी को मुहम्मद तुग़लक़ के शासन काल में 17 वर्ष तक संरक्षण में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, फ़िरोज़शाह तुग़लक़ के शासन काल में उन्हें कुछ समय तक जेल में भी रहना पड़ा.
इनकी ज़िंदगी का अंतिम पड़ाव बड़ा ही दर्दनाक था, उनकी जायदाद को जब्त कर उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया था, अपने आखिरी वक़्त में दर्दनाक ज़िंदगी से आजादी के लिए फिर मान्यता प्राप्त करने के लिए बरनी ने सुल्तान फ़िरोज़ की तारीफ़ में 'तारीख़-ए-फ़िरोज़शाही' एवं 'फ़तवा-ए-जहाँदारी' की रचना की थी.
बरनी ने अपनी रचना 'अमीर' एवं 'कुलीन वर्ग' के लोगों को समर्पित की, ज़ियाउद्दीन बरनी ने चार विद्वानों ‘ताजुल मासिर’ के लेखक ख्वाजा सद्र निजामी, ‘जवामे उल हिकायत’ के लेखक मौलादा सद्रद्दीन औफी, ‘तबकाते नासिरी’ के लेखक मिनहाजुद्दीन सिराज एवं ‘फाथनामा’ के लेखक कबीरुद्दीन इराकी को सच्चा इतिहासकार माना है।
दरबार के अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर बरनी ने 1357 में तारीख़-ए-फ़िरोज़ शाही (फ़िरोज़ शाह का इतिहास) लिखा, एक उपदेशात्मक पुस्तक, जिसमें भारतीय सुल्तान के इस्लाम के प्रति कर्त्तव्यों का उल्लेख किया गया है। सूफ़ी रहस्यवाद से प्रभावित अपनी पुस्तक, फ़तवा-ए जहांदारी (संसारिक सरकार के नियम), में बरनी ने इतिहास के धार्मिक दर्शन का प्रतिपादन किया, जो महान् व्यक्तियों के जीवन की घटनाओं को दौवी विधान की अभिव्यक्ति मानता है। बरनी के अनुसार, ग़यासुद्दीन बलबन(शासनकाल, 1266-87) से लेकर फ़िरोज़शाह तुग़लक़ (शासनकाल,1351-88) ने अच्छे इस्लामी शासक के लिए उनके द्वारा दिए गए दिशा-निर्देशों का पालन किया और फले-फूले, जबकि उन नियमों का उल्लंघन करने वाले असफल रहे.
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