एस एम फ़रीद भारतीय
भारत ओर भारत के मुसलमानों की एक सबसे बड़ी परेशानी कश्मीर है, ये लिखने मैं मुझे ज़रा भी गुरेज़ नहीं है ये एक कड़वा सच है.
दूसरा कड़वा सच ये भी है कि कश्मीरियों पर बहुत ज़ुल्म भी हुए हैं ओर वो इसलिए कि कश्मीर की अवॉम आज़ादी से आज तक ये तय नहीं कर पाई कि उसको करना क्या है ओर कहां उसका हित है.
मैने लिखा है भारत की परेशानी ओर भारत के मुस्लिमों की परेशानी
कश्मीर है, तब बात करते हैं कैसे भारत ओर भारत के मुस्लिमों की परेशानी कश्मीर है.
सबसे पहले भारत की परेशानी को लेते हैं कि कश्मीर से भारत या भारत की जनता को परेशानी है...?
1947-87 औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता के बाद भारत और पाकिस्तान ने कश्मीर के राजशाही राज्य के लिए युद्ध किया, युद्ध के अंत में भारत ने कश्मीर के सबसे महत्वपूर्ण भागों पर कब्ज़ा किया, जबकि वहां हिंसा की छिटपुट गतिविधियों को देखा जा सकता था लेकिन कोई संगठित उग्रवाद आंदोलन नहीं था.
इस अवधि के दौरान जम्मू और कश्मीर में विधायी चुनाव को पहली बार 1951 में आयोजित किया गया और शेख 'अब्दुल्ला की पार्टी निर्विरोध रूप से खड़ी हुई.
बहरहाल, शेख अब्दुल्ला कभी केंद्र सरकार की कृपा के पात्र बन जाते थे और कभी घृणा के और इसीलिए अक्सर ही उन्हें बर्खास्त कर दिया जाता और कभी पुनः बहाल कर दिया जाता. यह समय जम्मू और कश्मीर में राजनीतिक अस्थिरता का था और कई वर्षों तक संघीय सरकार द्वारा राज्य में राष्ट्रपति शासन को लागू किया गया.
शेख अब्दुल्ला की मृत्यु के बाद उनके बेटे फारूक अब्दुल्ला ने जम्मू और कश्मीर के मुख्य मंत्री पद को हासिल किया, फारुक अब्दुल्ला अंततः केन्द्र सरकार के साथ पक्ष में नहीं रहे और भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें बर्खास्त कर दिया था, एक साल बाद फारूक अब्दुल्ला 1987 के चुनावों के लिए सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के साथ गठबंधन करने की घोषणा की.
कथित तौर पर चुनाव में फारूक अब्दुल्ला के पक्ष में धांधली की गई, इसके बाद जिन नेताओं को चुनाव में अन्यायपूर्ण ढंग से हार मिली थी, आंशिक रूप से यह सशस्त्र विद्रोह की ओर अग्रसर हुए, पाकिस्तान ने इन समूहों को सैन्य सहायता, हथियार, भर्ती और प्रशिक्षण की आपूर्ति की.
कुछ विश्लेषकों ने बतलाया है कि जम्मू और कश्मीर में भारतीय सेना की संख्या करीब 600,000 है हालांकि अनुमान भिन्न है, ये भी सच है कि 2000 के आसपास के बाद से 'विद्रोही' कम हिंसक हो गए हैं और उसके बदले में मार्च और प्रदर्शन कर रहे हैं, कुछ समूहों ने अपने हथियार डाल दिए हैं और संघर्ष का शांतिपूर्ण ढ़ंग से निर्णय निकालने की कोशिश कर रहे हैं.
क्यूंकि कश्मीर में विभिन्न उग्रवादी समूहों के विभिन्न उद्देश्य हैं, कुछ पाकिस्तान, भारत और दोनों से पूर्ण स्वतंत्रता चाहते हैं, कुछ अन्य समूह पाकिस्तान के साथ एकीकरण करना चाहते हैं और कुछ भारतीय सरकार से अधिक स्वायत्तता चाहते हैं.
2010 के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि जम्मू और कश्मीर में 43% जनता पूरे क्षेत्र में फैले स्वतंत्रता आंदोलन के लिए सहायता के साथ स्वतंत्रता का समर्थन करती है.
एक अनुमान के लिए हम 1987 से 2018 तक ही कश्मीर मैं तैनात छह लाख सेना के ख़र्च का हिसाब तो लगायें कितना बैठता है, ये हिसाब किसी कैलकुलेटर पर भी एक या दो दिन मैं लगाना आसान नहीं होगा, बस मैं इतना कह सकता हुँ कि हमारा भारत को आर्थिक तंगी का शिकार इस कश्मीर समस्या ने भी किया है क्यूंकि सेना के ख़र्च का अगर हिसाब लगायें तब मेरा पूरा भारत उस ख़र्च हुए पैसे मैं कश्मीर से भी कई गुना ख़ूबसूरत बन जाता.
आईये अब बात मुस्लिमों की परेशानी की करते हैं, तो मेरी जो सोच है वो यही है कि सबसे पहले भारत के मुस्लिमों पर शक की निगाह कश्मीरियों की वजह से ही गई ओर उसकी वजह थी कश्मीर से कश्मीरी पंडितों का पलायन जो उन्होंने डर की वजह से ख़ुद किया या यूं कहें कि कुछ उन कट्टरपंथी लोगों ने डराया जो दुश्मन देश का समर्थन करते हैं, इसी वजह है भारत का मुस्लिम परेशानियों मै घिरा ओर ये सब कुछ भारत सरकार की ढुलमुल नीति के कारण हुआ।
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