Thursday, 30 August 2018

बाबर अखंड भारत का वीर...?

"एस एम फ़रीद भारतीय "
बाबर का जन्म फ़रगना घाटी के अन्दीझ़ान नामक शहर में हुआ था जो अब उज्बेकिस्तान में है, जो उस समय अखंड भारत था, वो अपने पिता उमर शेख़ मिर्ज़ा, जो फरगना घाटी के शासक थे तथा जिसको उसने एक ठिगने कद के तगड़े
जिस्म, मांसल चेहरे तथा गोल दाढ़ी वाले व्यक्ति के रूप में वर्णित किया है, तथा माता कुतलुग निगार खानम का ज्येष्ठ पुत्र था, हालाँकि बाबर का मूल मंगोलिया के बर्लास कबीले से सम्बन्धित था पर उस कबीले के लोगों पर फारसी तथा तुर्क जनजीवन का बहुत असर रहा था, वे इस्लाम में परिवर्तित हुए तथा उन्होने तुर्केस्तान को अपना वासस्थान बनाया, बाबर की मातृभाषा चग़ताई भाषा थी पर फ़ारसी, जो उस समय उस स्थान की आम बोलचाल की भाषा थी, में भी वो प्रवीण था, बाबर ने चगताई में "बाबरनामा" के नाम से अपनी जीवनी लिखी.
आज से मात्र 1255-60 वर्ष पहले तक अखंड भारत की सीमा में अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल, तिब्बत, भूटान, बांग्लादेश, बर्मा, इंडोनेशिया, कंबोडिया, वियतनाम, मलेशिया, जावा, सुमात्रा, मालदीव और अन्य कई छोटे-बड़े क्षेत्र हुआ करते थे, हालांकि सभी क्षेत्र के राजा अलग अलग होते थे लेकिन कहलाते थे सभी भारतीय जनपद.
आज इस संपूर्ण क्षेत्र को अखंड भारत इसलिये कहा जाता है क्योंकि अब यह खंड खंड हो गया है और, आज जिसे हम भारत कहते हैं, दरअसल उसका नाम हिन्दुस्तान है, जहां इंडियन लोग रहते हैं जिन्होंने मिलकर भारत को जाति, भाषा, प्रांत और धर्म के नाम पर और भी खंड-खंड कर दिया है ओर किया जा रहा है.
बाबर का भारत पर आक्रमण मध्य एशिया के शक्तिशाली उज्ज्बेको से बार-बार पराजय , शक्तिशाली सफवी वंश तथा उस्मानी वंश के भय का प्रतिफल था, बाबर के उजबेक सरदार शैबानी खा की बार बार पराजय ने उसे पैतृक सिंहासन को प्राप्त करने का विचार छोडकर दक्षिण-पूर्व (अर्थात भारत) में अपना भाग्य आजमाने के लिए विवश कर दिया.
इस कड़ी में बाबर ने 1504 ई. में काबुल पर अधिकार कर लिया और परिणामस्वरूप उसने 1507 ई. में पादशाह की उपाधि धारण की, बादशाह से पूर्व बाबर “मिर्जा” की पैतृक उपाधि धारण करता था, बाबर ने जिस समय भारत पर आक्रमण किया उस समय बंगाल, मालवा, गुजरात, सिंध, कश्मीर, मेवाड़, दिल्ली खानदेश , विजयनगर एवं विच्चिन बहमनी रियासते आदि अनेक स्वतंत्र राज्य थे.
बाबर ने अपनी आत्मकथा “ बाबरनामा ” (Baburnama) में केवल पाँच मुस्लिम शासको – बंगाल ,दिल्ली, मालवा, गुजरात और बहमनी तथा दो हिन्दू शासको “मेवाड़ और विजयनगर” का ही उल्लेख किया है, बाबर ने अपनी आत्मकथा “बाबरनामा” में विजयनगर के तत्कालीन शासक “कृष्णदेव राय” को समकालीन भारत का सबसे शक्तिशाली राजा कहा है.
बाबर को भारत आने का निमन्त्रण पंजाब के सूबेदार दौलत खा लोदी तथा इब्राहिम के चाचा आलम खा लोदी ने दिया था, राणा सांगा द्वारा बाबर को भारत पर आक्रमण का उल्लेख सिर्फ बाबर ने स्वयं अपनी आत्मकथा में किया है इसके अलावा किसी भी स्त्रोत में इस साक्ष्य की पुष्टि नही हो पायी है.
बाबर ने पानीपत विजय से पूर्व भारत पर चार बार आक्रमण किया था, इस प्रकार पानीपत विजय उसका भारत पर पांचवा आक्रमण था, 
बाबर ने भारत पर पहला आक्रमण 1519 ई. में “बाजौर” पर किया था और उसी आक्रमण में ही उसने भेरा के किले को भी जीता था, बाबर ने अपनी आत्मकथा में कहा है कि इस किले (भेरा) को जीतने में उसने सर्वप्रथम बारूद अर्थात तोपखाने का प्रयोग किया था.

पानीपत के प्रथम युद्ध (21 अप्रैल 1526) में बाबर की विजय का मुख्य कारण उसका तोपखाना और कुशल सेनापतित्व था, पानीपत के प्रथम युद्ध (First battle of Panipat) में बाबर ने उज्बेको की युद्ध निति “तुलगमा युद्ध पद्दति ” तथा तोपों को सजाने में “उस्मानी विधि” का प्रयोग किया था, दो गाडियों के बीच व्यवस्थित जगह छोडकर उसमे तोपों को रखकर चलाने को उस्मानी विधि कहा जाता था, इस विधि को उस्मानी विधि इसलिए कहा जाता था क्योंकि इसका प्रयोग उस्मानियो ने सफवी शासक शाह इस्माइल के खिलाफ युद्ध में किया था.
पानीपत के प्रथम युद्ध में बाबर के तोपखाने का नेतृत्व उस्ताद अली और मुस्तफा खा नामक दो योग्य तुर्की अधिकारियों ने किया था, पानीपत के युद्ध में इब्राहिम लोदी की पराजय का मुख्य कारण एकता का अभाव, अकुशल सेनापतित्व तथा अफगान सरदारों की उससे क्शुब्द्ता थी,
पानीपत का युद्ध परिणाम की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण नही था, फलस्वरूप इस युद्ध ने भारत के भाग्य को नही बल्कि लोदियो के भाग्य का निर्णय किया.

पानीपत युद्ध के विजय के उपलक्ष्य में बाबर ने काबुल के प्रत्येक निवासी को एक एक चाँदी का सिक्का दान में दिया था | अपनी उदारता के कारण बाबर को “कलन्दर” भी कहा जाता है |
राजपूतो के विरूद्ध बाबर द्वारा लड़े गये खानवा के युद्ध का मुख्य कारण बाबर का भारत में रहने का निश्चय था.

राणा सांगा और बाबर के बीच शक्ति प्रदर्शन आगरा से 40 किमी दूर खानवा नामक स्थान पर 17 मार्च 1527 में हुआ था, इस युद्ध में राणा सांगा की ओर से हसन खां मेवाती , महमूद लोदी , आलम खा लोदी तथा मेदिनी राय ने भाग लिया था, बाबर ने अपने सैनिको का मनोबल बढाने के लिए जिहाद का नारा दिया था तथा मुस्लमानो पर लगने वाले तमगा कर की समाप्ति की घोषणा की.
बाबर ने खानवा के युद्ध में विजय प्राप्ति के बाद गाजी (योद्धा एवं धर्म प्रचारक दोनों) की उपाधि धारण की, बाबर ने 29 जनवरी 1528 में चंदेरी पर अधिकार हेतु मेंदिनीराय पर आक्रमण किया जिसमे वह विजयी हुआ, यह विजय बाबर के लिए मालवा जीतने में सहायक सिद्ध हुई, बाबर ने इस युद्ध में भी जिहाद का नारा दिया था और युद्ध के पश्चात राजपूतो के सिरों की मीनार बनवाई थी, चंदेरी के युद्ध में राजपूत स्त्रियों ने जौहर व्रत किया था.
बाबर ने 06 मई 1529 को घाघरा के युद्ध में बिहार और बंगाल की संयुक्त अफगान सेना को पराजित किया, इस युद्ध के पश्चात बाबर का भारत पर स्थायी अधिकार हो, अब उसके साम्राज्य की सीमा सिन्धु से लेकर बिहार तक तथा हिमालय से लेकर ग्वालियर तक फ़ैल गया था, 26 दिसम्बर 1530 को आगरा में बाबर की मृत्यु हो गयी और उसे आगरा में “नूर अफगान” बाग़ में दफना दिया गया परन्तु बाद में उसे काबुल में उसी के द्वारा चुने गये स्थान पर दफनाया गया.
कुछ इतिहासकार बाबर की मृत्यु का कारण इब्राहिम लोदी की माँ द्वारा दिए गये विष को मानते है, बाबर ने सर्वप्रथम “सुल्तान” की परम्परा को तोडकर अपने को “बादशाह ” घोषित किया था जबकि इससे पूर्व के शासक अपने को सुल्तान कहकर पुकारते थे.
बाबर बागो को लगाने का बड़ा शौकीन था, उसने आगरा में ज्यामितीय विधि से एक बाग़ लगवाया जिसे “नुरे-अफगान” कहा जाता था परन्तु अब इसे “आराम-बाग़” कहा जाता है, बाबर ने सड़को को नापने के लिए “गज-ए-बाबरी” नामक माप का प्रयोग किया था जो कालान्तर तक चलता रहा, बाबर की आत्मकथा का अनुवाद अब्दुर्रहीम खानखान ने फारसी और श्रीमति बेबरीज ने अंग्रेजी में किया था.
बाबरनामा मुग़ल बादशाह बाबर की आत्मकथा है, बाबर ने इसे तुर्की भाषा में लिखा था, ऐतिहासिक दृष्टि से यह ग्रन्थ बड़ा ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है, इसका अनुवाद कई भाषाओं में भी हो चुका है, 'बाबरनामा' की यह विशेषता है कि बाबर ने इसमें अपने चरित्र का इतना रोचक चित्र प्रस्तुत किया है कि इसे पढ़ने वाला आश्चर्य में पड़ जाता है, बाबर ने इसमें अपने जीवन की अनेक घटनाओं को विस्तार से लिखा है.
'बाबरनामा' के माध्यम से बाबर द्वारा भारत में किये गए युद्धों की जानकारी मिलती है। बाबर ने अपने आक्रमण के समय भारत की राजनीतिक दशा का भी विवरण दिया है। उसने 'बाबरनामा' में उत्तर और दक्षिण भारत के राजवंशों के बारे में भी जानकारी दी है, पानीपत और खानवा के युद्ध में अपनाई गई 'तुलुग्मा युद्ध प्रणाली' की भी वह जानकारी देता है, 'बाबरनामा' में बाबर ने लिखा है कि "हिन्दुतानियों ने खुलकर उससे दुश्मनी निभायी.
'बाबरनामा' नाम से जानी जाने वाली पुस्तक का मूल शीर्षक 'तुजुक-ए-बाबरी' है, मात्र तेरह वर्ष की आयु में ही बाबर ने सत्ता के लिए संघर्ष शुरू कर दिया था, अपनी आत्मकथा में उसने समरकंद से क़ाबुल (अफ़ग़ानिस्तान) और फिर दिल्ली तक किए गए सत्ता-संघर्ष को बेहतरीन ढंग से लिखा है, यह पुस्तक न सिर्फ़ उसके अनुभवों का दर्पण है, बल्कि तत्कालीन समाज के बारे में एक दस्तावेज भी है, 'तुजुक-ए-बाबरी' में बाबर ने अपनी अद्भुत साहित्यिक क्षमता, प्रकृति प्रेम और रुचि का परिचय दिया है, जिसे पढ़कर ही जाना जा सकता है, इस पुस्तक से यह पता चलता है कि स्थितियों ने बाबर को भले ही योद्धा बना दिया था, किंतु उसके अंदर भी एक सुरुचिपूर्ण कला-प्रेमी व्यक्तित्व था.
बाबर के खुद लिखे हुए संस्मरणों का हिन्दी अनुवाद बाबरनामा के नाम से साहित्य अकादमी ने 1974 में प्रकाशित किया था, अनुवादक युगजीत नवलपुरी हैं, ये संस्मरण अपनी कहानी स्वयं कहते हैं और अँगरेजी संस्मरण की भूमिका में एफजी टैलबोट ने लिखा है कि विद्वानों ने इन संस्मरणों को संत अगस्टीन और रूसो की स्वीकारोक्तियों के समकक्ष स्थान दिया है.
इस किताब में बादशाह बाबर हिन्दुओं को काफिर तो जरूर लिखते हैं, लेकिन कहीं भी ऐसे वर्णन नहीं मिलते हैं, जिससे यह साबित हो कि मंदिरों को तोड़कर मस्जिदों का निर्माण करना उनका खास शगल रहा हो, बाबर की आत्मकथा का तुर्की भाषा से अँगरेजी में अनुवाद एएस बेवरिज ने किया है, जिसमें कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं है कि बाबरी मस्जिद का निर्माण उनके फौजी जनरल मीर बाकी ने उनके कहने पर कराया था, बाबर लड़ाई लड़ते हुए अवध भी गये.
इस किताब में सरयू नदी का जिक्र आया है पर किताब में कहीं भी न तो अयोध्या का जिक्र है और न भगवान राम का, अलबत्ता बाबर ने हिन्दुओं को बुतपरस्त के रूप में जरूर दर्शाया है, बाबरनामा पृष्ठ 480 पर बाबर ने लिखा है-'सोमवार को अवध की ओर कूच हुआ, दस कोस चल कर सरू (सरयू) किनारे फतेहपुर (यह स्थान आजमगढ़ जिले का नाथपुर होना चाहिए) के गाँव कालरा में उतर गया, यहाँ कई दिन बड़े चैन से बीते, बाग हैं, नहरें हैं, बड़ी अच्छी-अच्छी काट के मकान हैं, पेड़ हैं, सबसे बढ़कर अमराइयाँ हैं, रंगबिरंगी चिड़ियाँ हैं-जी बहुत लगा.'
' फिर गाजीपुर की ओर कूच का हुकुम हुआ...जो लोग पहले ही चल निकले थे, वे राह भटक गए, फतेहपुर (नाथपुर) की बड़ी झील, ताल रतोई नाथपुर जा पहुँचे' आगे लिखा है कि रात झील पर बिताने के बाद पौ फटते ही हम चले, आधा रास्ता चलकर मैं आसाइश में बैठा और उसे उजानी खिंचवाया.
' कुछ और ऊपर खलीफा शाह मोहम्मद दीवाना के बेटे को लाया, वह बाकी (मीर बाकी) के पास से लखनूर (लखनऊ) का पक्का हाल लाया था, उन्होंने (विद्राही शेख बायजीद और बीबन) सनीचर तेरहवीं (21मई) को हमला किया पर लड़ाई से वे कुछ कर न सके.'
पृष्ठ 481 पर बाबर ने लिखा है, 'आज हम दस कोस चले, सगरी परगने में सरू (सरयू) के किनारे जलेसर (चकसर, जिला आजमगढ़) नाम के गाँव में उतरे,' आगे लिखते हैं- 'जुमेरात को सबेरे वहाँ से चले, ग्यारह कोस चलकर परसरू (मूल सरयू) पार की और किनारे पर ही उतरे, रात को मैं परसरू में नहाने गया, लोग पानी पर मशालें दिखा रहे थे, मछलियाँ मशालों के पास उतर आती थीं.
इस ढंग से बहुत मछली पकड़ी गईं, मैंने भी पकड़ी, जुमा (शुक्रवार) को उसी नदी से फूटी एक बहुत सी पतली धार के किनारे उतरे, लशकर के आने-जाने से धार गंदली होने का अंदेशा था, इसलिए मैंने उसे कुछ ऊपर ही बंधवा कर नहाने के लिए एक दह-दर-दह बनवा दिया, रात को वहीं रहे, सबेरे चले और टौंस (फैजाबाद के ऊपर घाघरा से निकली नदी) पार करके उसके किनारे उतरे,' इसी इलाके में मंगल के रोज बाबर ने ईद मनाने की बात भी की है, बाबर ने हिन्दुस्तान का लंबा-चौड़ा वर्णन किया है, पृष्ठ 352 पर उसने लिखा है-
'मेरी जीत के दिनों में यहाँ पाँच मुसलमान बादशाह और दो काफिर थे। इनका सब ओर मान था और ये किसी के मातहत न थे। जंगलों, पहाड़ों में और भी बहुत से राय और राजा थे पर उनका उतना मान न था। चलती इन्हीं सात की थी।' काफिरों में उन्होंने बीजानगर के राजा का और चित्तौड़ के राणा सांगा का जिक्र किया है।
बाबर ने लिखा है- 'हिन्दुस्तान कमाल का मुल्क है। हमें तो बात-बात पर अचंभा होता है। दूसरी ही दुनिया है। जंगल, पहाड़, नदी-नाले, रेगिस्तान, शहर, खेत, जानवर, पेड़-पौधे, लोग, बोलियाँ, बरसातें, हवाएँ, सब और ही और हैं, कुछ बातों में तो काबुल का गर्म-सैर (मौसम) यहाँ से मिलता-जुलता है। पर उन कुछ बातों को छोड़ बिल्कुल निराला है। सिंध पार करते ही मिट्टी, पानी, पेड़, चट्टान, लोग, उलूस, उनकी रायें और बातें, उनकी सोच-समझ, उनके रंग-ढंग और रस्म-रिवाज सब और ही ढंग के मिलने लगते हैं।'

हिन्दुस्तान के पहाड़ों, नदियों, शहरों, देहातों, जंगली जानवरों, चिड़ियों, घड़ियालों, मछलियों के साथ-साथ फलों, फूलों का उन्होंने लंबा वर्णन किया है। यह भी बताया है कि यहाँ समय किस तरह से नापा जाता है और हिन्दुस्तानी नाप-तौल कैसे करते हैं। एक जगह उन्होंने लिखा है कि भारत में सौ पदुम का एक सांग (शंख) का होना यह बताता है कि हिन्दुस्तानी बहुत मालदार हैं।
पृष्ठ 369 पर बाबर लिखते हैं, 'अक्सर हिन्दुस्तानी बुत पूजते हैं, वे हिन्दू कहलाते हैं। तनासुख (ब्रह्मांश आत्मा) के आवागमन यानी पुनर्जन्म का सिद्धांत मानते हैं। सब कारीगर, मजूर और ओहदेदार हिन्दू हैं। हमारे मुल्कों में घुमंतू लोगों के हर कबीले का अलग नाम है। पर यहाँ तो बसे हुए लोगों में कितने ही अलग-अलग नाम हैं (जात-पात के नाम) और हर हुनर का आदमी अपना ही धंधा करता है।'

पृष्ठ 370 पर बाबर ने लिखा है-'जफरनामा में मुल्ला शरक ने कहा है कि तैमूर बेग ने संगीन मस्जिद बनवाई तो आजरबायजान (अजरबैजान, फारस (ईरान), हिन्दुस्तान और दूसरे मुल्कों के 200 संगतराशों से काम लिया। (यह तादाद उन्हें बहुत बड़ी लगी) पर आगरा की मेरी इमारतों पर रोजाना आगरा के ही 680 संगतराश काम करते थे। आगरा, सीकरी, बियाना, धौलपुर, ग्वालियर और कोइल के मेरे मकानों में रोजाना 1491 संगतराश लगे थे।'
बाबर ने लिखा है कि हिन्दुस्तान और उसके लोगों की जो बातें अब तक पक्के तौर पर मालूम हुईं, लिख दीं। आगे लिखने की जो भी देखूँ सुनूँगा, लिख दूँगा.

जाहिर है कि बाबर ने भारत के मंदिरों, देवताओं, पवित्र धार्मिक स्थानों का वर्णन नहीं किया है। यह बात भी अपने-आप में विचित्र लगती है कि रामचरित मानस जैसा कालजयी ग्रंथ लिखने वाले गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहीं भी बाबरी मस्जिद का उल्लेख नहीं किया। बाबरी मस्जिद 1528 ई.में बनाई गई। अकबर 1565 ई. में गद्दी पर बैठा था और रहीम खानखाना अकबर के दरबार में थे.
वही समय मीरा बाई का भी है, जिनका तुलसीदास के साथ पत्र-व्यवहार हुआ था।
आज का भारत युवा, जागरूक और प्रगतिकामी भारत है। हमें यह सोचना चाहिए कि आस्था के नाम पर इतिहास को बदला नहीं जा सकता। इसे पीछे छोड़कर हमें आगे देखना चाहिए। यही आधुनिक भारत का तकाजा है.

तो सवाल यह उठता है कि उस समय के किसी भी भक्त कवि ने बाबरी मस्जिद का जिक्र क्यों नहीं किया। उनसे पहले कबीरदास धार्मिक जड़ता और कूप-मंडूकता की निंदा कर चुके थे। उनकी कविताओं में मंदिर-मस्जिद, मुल्ला-मौलवी जैसे तमाम शब्दों का प्रयोग हुआ है या तो भक्त कवि बेहद आत्मकेंद्रित थे या फिर राम मंदिर को तोड़कर बाबरी मस्जिद बनाने का काम बहुत पहले नहीं हुआ होगा.
बहरहाल यह भी सही है कि कई देशों में एक समुदाय ने दूसरे समुदाय के धार्मिक स्थानों पर अपने धार्मिक केंद्रों का निर्माण किया है, दिल्ली में कुतुबमीनार को ही देखें तो उसके बाहर यह लिखा हुआ मिलेगा कि कैसे जैन और बौद्ध मंदिरों को तोड़ कर लाई गई सामग्री से यहाँ निर्माण हुआ, मथुरा, काशी और अयोध्या हिन्दुओं के ही नहीं, जैनों और बौद्धों के भी महत्वपूर्ण नगर माने जाते हैं.
अब सवाल ये है जब बाबर अखंड भारत का निवासी था तब बाबर विदेशी कहां हुआ, ओर जैसे आज प्रजातंत्र मैं वोटों से सत्ता हासिल की जाती है तब उस दौर मैं शक्ति से सत्ता हासिल की जाती थी ओर बाबर के साथ सभी मुग़लों ने वही किया, मगर आज भी अमेरिका ताक़त के बल पर दुनियां मैं अपनी हुकूमत जमाना चाहता है अपने चहेतों चापलूसों को सत्ता सुख दिला रहा है तब अमेरिका से हम इंसानियत की बात करने की बजाये उसके कामों को सलाह ते हैं क्यूं...?
पूर्व की केंद्र सरकार ने अयोध्या को छोड़कर सभी धार्मिक स्थलों को 1947 के पहले की स्थिति में रखने का कानून पास किया है, मगर आस्था के नाम पर एक बार यह सिलसिला शुरू हो गया तो पता नहीं कहाँ जाकर रुकेगा, आज का भारत युवा, जागरूक और प्रगतिकामी भारत है, हमें यह सोचना चाहिए कि आस्था के नाम पर इतिहास को बदला नहीं जा सकता। इसे पीछे छोड़कर हमें आगे देखना चाहिए, यही आधुनिक भारत का तक़ाजा है...

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