Sunday, 4 November 2018

लेखक कमलेश्वर के अनुसार बाबरी मस्जिद राममंदिर अंग्रेज़ों की एक चाल...?


एस एम फ़रीद भारतीय
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के अयोध्या में राम मंदिर के बारे में दिए गए बयान से राजनीति...

संघ के प्रमुख मोहन भागवत के अयोध्या में राम मंदिर के बारे में दिए गए बयान से राजनीति एक बार फिर गरमा गई है, कोलकाता में एक सभा को संबोधि‍त करते हुए भागवत ने कहा कि अगर भव्य मंदिर बनाना है तो बलिदान देने की तैयारी भी रखनी होगी, हालांकि, मंदिर निर्माण के
समय को लेकर उन्होंने कोई बयान नहीं दिया, हां इतना ज़रूर कहा कि राम मंदिर उनके जीवनकाल में बनेगा.

भागवत के बयान के बाद शीर्षस्थ उपन्यासकार स्वर्गीय कमलेश्वर के सन् 2000 में प्रकाशित बहुचर्चित उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ की चर्चा करना समीचीन होगा,  जिसमें तथ्यों के हवाला देते हुए बताया गया है कि अयोध्या में न कभी बाबरी मस्जिद नाम की मस्जिद थी और न ही राम मंदिर.

कहने का मतलब अयोध्या में जिस विवादित रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद को लेकर सन् 1949 से देश में विवाद और दंगे-फ़साद हो रहे हैं, जिसके चलते लाखों हिंदू और मुसलमान आज भी एक दूसरे के दुश्मन बने हुए हैं, वहां न बाबरी मस्जिद थी और न ही राम मंदिर। क़िताब का सारांश यह है कि भारत में हिंदू और मुसलमानों में विवाद की बीज अंग्रेज़ों ने एक साज़िश के तहत बोया था, जिसकी परिणति सन् 1947 में देश के विभाजन के रूप में हुई थी।
कमलेश्वर ने इस उपन्यास पर काम रामजन्मभूमि आंदोलन शुरू होने के बाद किया था और 10-12 साल के रिसर्च, स्टडी और ऐतिहासिक तथ्यों की छनबीन के बाद ‘कितने पाकिस्तान’ को लिखा है। उन्होंने क़िताब में बताने की कोशिश की है कि वहां बाबरी मस्जिद या राम मंदिर नहीं था।
उपन्यास को नामवर सिंह, विष्णु प्रभाकर, अमृता प्रीतम, राजेंद्र यादव, हिमांशु जोशी और अभिमन्यु अनत जैसे साहित्यकारों-लेखकों ने विश्व-उपन्यास कहते हुए उसकी जमकर तारीफ की थी। उस समय क़रीब-क़रीब हर प्रमुख हिंदी ही नहीं अंग्रेज़ी अख़बार में इसकी समीक्षा भी छपी थी।
अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के कार्यकाल में क़िताब को साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया था। उस समय एचआरडी मिनिस्टर हिंदुत्व और राम मंदिर आंदोलन के पैरोकार डॉ. मुरली मनोहर जोशी थे। ज़ाहिर है अगर कमलेश्वर के निष्कर्ष से सरकार को किसी भी तरह की आपत्ति होती, तो कम से कम क़िताब को सरकारी पुरस्कार नहीं दिया जाता। अमूमन यह माना जाता है कि कोई सरकार किसी क़िताब को पुरस्कृत तब करती है जब वह सरकार क़िताब में लिखी हर बात से सहमत होती है।
कमलेश्वर ने बड़ी ख़ूबसूरती से समय और किरदार की सीमाओं से परे ‘कितने पाकिस्तान’ की रचना की है। मुख्य किरदार अदीब यानी लेखक ‘समय की अदालत’ लगाता है, जिसमें महात्मा गांधी, मोहम्मद अली जिन्ना, जवाहरलाल नेहरू, अली बंधु, लार्ड माउंटबेटन, बाबर, हुमायूं, औरंगजेब, कबीर जैसे सैकड़ों ऐतिहासिक किरदारों ने ख़ुद अपने-अपने बयान दर्ज कराए हैं।
यही नहीं अदालत में कई दर्जन विश्व-प्रसिद्ध इतिहासकारों ने भी हर विवादास्पद घटनाओं पर अपना बयान दिया है। सभी बयानात इतिहास, अंग्रेज़ों द्वारा तैयार गजेटियर, पुरातात्विक दस्तावेज़ों और नामचीन हस्तियों की आत्मकथाओं में उपलब्ध जानकारियों पर आधारित हैं। इनकी प्रमाणिकता पर संदेह नहीं किया जा सकता।
‘कितने पाकिस्तान’ में कई चैप्टर अयोध्या विवाद को समर्पित हैं। उपन्यास के मुताबिक अयोध्या में मस्जिद बाबर के भारत पर आक्रमण करने से पहले ही मौजूद थी। बाबर 20 अप्रैल 1526 को इब्राहिम का सिर क़लम करके आगरा की गद्दी पर बैठा था और हफ़्ते भर बाद 27 अप्रैल 1526 को उसके नाम का ख़ुतबा पढ़ा गया।
क़िताब के मुताबिक, अयोध्या की मस्जिद (बाबरी मस्जिद नहीं)  में एक शिलालेख बनाया गया था, जिसका जिक्र ब्रिटिश अफ़सर ए फ़्यूहरर ने कई जगह किया है। फ़्यूहरर ने 1889 में आख़िरी बार उस शिलालेख को पढ़ा था, जिसे बाद में अंग्रेज़ों ने नष्ट करवा दिया। शिलालेख के मुताबिक अयोध्या में मस्जिद का निर्माण इब्राहिम लोदी के शासन में उसी के आदेश पर 1523 में शुरू हुआ और 1524 में मस्जिद पूरी हुई।
इतना ही नहीं, शिलालेख के मुताबिक, मस्जिद किसी मंदिर को तोड़कर नहीं, बल्क़ि ख़ाली जगह पर बनाई गई थी। इसका यह भी मतलब होता है कि अगर विवादित स्थल पर राम या किसी दूसरे देवता का मंदिर था, जिसके अवशेष खुदाई करने वालों को मिले हैं, तो वह 14वीं सदी से पहले नेस्तनाबूद कर दिया गया होगा या ख़ुद ही नष्ट हो गया होगा। उसे कम से कम बाबर या मीरबाक़ी ने नहीं तोड़वाया जैसा कि इतिहासकारों का एक बड़ा तबक़ा और हिंदूवादी नेता दावा करते आ रहे हैं।
दरअसल, ‘कितने पाकिस्तान’ के मुताबिक लोदी के शिलालेख को नष्ट करने में अंग्रेज़ अफ़सर एचआर नेविल ने अहम भूमिका निभाई। सारी ख़ुराफ़ात और साज़िश का सूत्राधार नेविल ही था। बाद में उसने ही आधिकारिक तौर पर फ़ैज़ाबाद का गजेटियर तैयार किया था। नेविल की साज़िश में एक और दूसरा गोरा अफ़सर कनिंघम भी शामिल था, जिसे ब्रिटिश हुक़ूमत ने हिंदुस्तान की पुरानी इमारतों की हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी दी थी। कनिंघम ने बाद में लखनऊ का गजेटियर तैयार किया था।
क़िताब के मुताबिक दोनों अफ़सरों ने धोखा और साज़िश के तहत गजेटियर में दर्ज किया कि 1528 में अप्रैल से सितंबर के बीच एक हफ़्ते के लिए बाबर अयोध्या आया और राम मंदिर को तोड़कर वहां बाबरी मस्जिद नींव रखी। यह भी लिखा कि अयोध्या पर हमले के दौरान लड़ाई में बाबर की सेना ने एक लाख चौहत्तर हज़ार हिंदुओं को मार दिया।
फ़ैज़ाबाद के गजेटियर में आज देखें तो मिलेगा कि 1869 में, बाबर के कथित आक्रमण के क़रीब साढ़े तीन सौ साल बाद, अयोध्या-फ़ैज़ाबाद की आबादी महज़ दस हज़ार थी, जो 1881 में बढ़कर साढ़े ग्यारह हज़ार हो गई। सवाल उठता है कि जिस शहर की आबादी इतनी कम थी वहां बाबर या उसकी सेना ने इतने लोगों की हत्या कैसे की या फिर इतने मरने वाले कहां से आ गए? यहीं तथ्य बाबरी मस्जिद के बारे में देश में बनी मौजूदा धारणा पर गंभीर संदेह होता है।
हैरान करने वाली बात है कि दोनों अफ़सरों नेविल और कनिंघम ने सोची-समझी नीति के तहत बाबर की डायरी बाबरनामा, जिसमें वह रोज़ाना अपनी गतिविधियां दर्ज करता था, के 3 अप्रैल 1528 से 17 सितंबर 1528 के बीच 20 से ज़्यादा पन्ने ग़ायब कर दिए और बाबरनामा में लिखे ‘अवध’ यानी‘औध’ को ‘अयोध्या’ कर दिया। मगर मस्जिद के शिलालेख के फ़्यूहरर के अनुवाद को ग़ायब करना ये दोनों अफ़सर भूल गए। वह अनुवाद आज भी र्कियोल़जिकल इंडिया की फ़ाइल में महफ़ूज़ है और ब्रितानी साज़िश को बेनकाब करता है।
इतना ही नहीं बाबर के मूवमेंट की जानकारी बाबरनामा की तरह हुमायूंनामा में भी दर्ज है। लिहाज़ा, बाबरनामा के ग़ायब किए गए पन्ने से नष्ट सूचनाएं हुमायूंनामा से ली जा सकती हैं। हुमायूंनामा के मुताबिक 1528 में बाबर अफ़गान हमलावरों का पीछा करता हुआ सरयू नदी तक ज़रूर गया था,  लेकिन उसी समय उसे अपनी बीवी बेग़म मेहम और अन्य खातूनों और बेटी बेग़म ग़ुलबदन समेत पूरे परिवार के काबुल से अलीगढ़ पहुंचने की इत्तिला मिली।
लंबे समय से युद्ध में उलझने की वजह से बाबर अपने परिवार से मिल नहीं पाया था, इसलिए वह फौरन अलीगढ़ रवाना हो गया और पत्नी-बेटी और परिवार के बाक़ी सदस्यों को लेकर आगरा आया। 10 जुलाई तक बाबर उनके साथ आगरा में ही रहा। उसके बाद बाबर परिवार के साथ धौलपुर चला गया। वहां से सिकरी पहुंचा, जहां सितंबर के दूसरे हफ़्ते तक रहा।
क़िताब के मुताबिक, गोस्वामी तुलसीदास से पहले जंबूद्वीप (तब भारत या हिंदुस्तान था ही नहीं था सो इस भूखंड को जंबूद्वीप कहा जाता था) के हिंदू धर्म के अनुयायी नटखट कृष्ण, शंकर जी और हनुमान जी की पूजा किया करते थे। कहीं-कहीं गणेश की पूजा होती थी। तब राम का उतना क्रेज नहीं था। तुलसीदास सन् 1498 में पैदा हुए थे और बाबर के कार्यकाल तक वह किशोर ही थे।
वहीं पत्नी के दीवाने तुलसीदास अपनी मायावी दुनिया में मशगूल थे। उन्‍होंने रामचरित मानस की रचना बुढापे में की, जो हुमायूं और अकबर का दौर था। राम का महिमामंडन तो तुलसीदास ने किया और हिंदी (अवधी) में रामचरित मानस रचकर राम को हिंदुओं के घर-घर स्थापित कर दिया। रामचरित मानस के प्रचलन में आने के बाद ही राम हिंदुओं आराध्‍य हुए।
‘कितने पाकिस्तान’ में कमलेश्वर ने ऐतिहासिक तथ्यों का सहारा लेकर दावा किया है कि 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेज़ चौकन्ने हो गए थे और ब्रिटिश इंडिया की नई पॉलिसी बनी, जिसके मुताबिक अंग्रेज़ों ने तय किया कि अगर इस उपमहाद्वीप पर लंबे समय तक शासन करना है, तो इसे धर्म के आधार पर विभाजित करना होगा। ताकि हिंदू और मुसलमान एक दूसरे से ही लड़ते रहें और उनका ध्यान आज़ादी जैसे मुद्दों पर न जाए। इसी नीति के तहत लोदी की मस्जिद ‘बाबरी मस्जिद’ बना दी गई और उसे ‘राम मंदिर’ से जोड़कर ऐसा विवाद खड़ा कर दिया जो कभी हल ही नहीं हो। अंग्रेज़ निश्चित रूप से सफल रहे क्योंकि उस वक़्त पैदा की गई नफ़रत ही अंततः देश के विभाजन की मुख्य वजह बनी।
हालांकि यह ज़िक्र करना समीचीन होगा कि चार साल पहले ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी माना था कि अयोध्या में राम मंदिर को बाबर और उसके सूबेदार मीरबाक़ी ने 1528 में मिसमार करके वहां बाबरी मस्जिद का निर्माण करवाया। मीरबाक़ी का पूरा नाम मीरबाक़ी ताशकंदी था और वह अयोध्या से चार मील दूर सनेहुआ से सटे ताशकंद गांव का निवासी था। इसी तथ्य को आधार बनाकर हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने सितंबर में बहुप्रतीक्षित ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया था....!

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