Thursday, 21 October 2021

मुसलमान ना तो अनपढ़ हैं और ना ही जाहिल हैं...?

आज भी दुनियां के अज़ीम अविष्कारों के पीछे मुस्लमानों का ही हाथ है, लेकिन ये दुनियां में मशहूर होने से पहले ही अजीबो-ग़रीब हादसों का शिकार हो गये...?

एस एम फ़रीद भारतीय
दोस्तों, आपने अकसर सुना होगा कि मुसलमान का इल्म से कुछ लेना देना नहीं और ये तो विज्ञान के बारे मैं जानते भी नहीं, ये तो पंचर लगाने वाली क़ौम के साथ सिर्फ़ बीवी के पीछे लगे रहकर बच्चे पैदा करने वाली क़ौम है, इसका असर हमारे ज़हनों पर पड़ा भी है, आज हम और हमारी नई नस्ल की औरतें दो से ज़्यादा बच्चे पैदा करने मैं शर्म महसूस करते हैं, जिस नसबंदी के कानून के लिए सैंकड़ों क़ुर्बान हुए आज वो प्लानिंग से लागू है, चलिए आपको कुछ अहसास ए कमतरी से बाहर निकालने की कोशिश करते हैं...?

"डाक्टर हसन कामिल अल-सबाह"...?
लेबनान से ताल्लुक रखने वाला अज़ीम मुस्लिम वैज्ञानिक डाक्टर हसन कामिल अल-सबाह ने 1930 के अंदर सोलर सेल की इब्तिदाई इन्वेंशन की जिसकी जदीद शक्ल हम दुनियाभर के अंदर सोलर पैनल की शक्ल में देख सकते हैं, यानि के वो इलेक्ट्रिक सेल ईजाद न करते तो आज जो मशीनज़ हमें ख़ला (space) के अंदर दिखाई देते हैं वो भला कैसे काम करते क्योंकि ये मशीन अपने उपर लगे सोलर पैनल से सूरज के जरिए इलेक्ट्रिसिटी हासिल करती है.

इन्होंने ही लिक्वाईड क्रिस्टल का नज़रिया पेश किया जो के आज हमारे हर एक टीवी सेट, लैपटॉप या मोबाईल वगैराह की स्क्रीन है.
वहीं उनका बनाया गया वेल्डिंग का तरीका आज भी हैवी इंडस्ट्रीज के अंदर इस्तेमाल होता है.
लेकिन इस अजीम शख्स को जिसे अरब का एडीसन भी कहा जाता है, इन्हें अमेरिका के अंदर एक रोड आक्सीडेंट में  प्लानिंग के साथ मारा गया, किसी शख्स ने जान बुझकर इसकी गाड़ी को टक्कर मारकर खाई में गिरा दिया और वो शख्स आज तक नहीं पकड़ा जा सका है.

"डाक्टर सामिया मेमनी"...?
आमतौर पर हमारे मआशरे में ये धारणा है के ख़्वातीन विज्ञान के मैदान में बिल्कुल दिलचस्पी नहीं रखती, लेकिन हक़ीक़त तो ये है के जदीद मुस्लिम वैज्ञानिकों में ख़्वातीन भी शामील रही है, सऊदी डाक्टर सामिया मेमनी ने दिमाग के पेचीदा और खतरनाक सर्जरी को कैमेरे के जरिए मुमकिन बनाकर इसके ख़तरात को कम किया और उनके सन 2000 में तैयार करदा इन्वेंशन को आज यूरोप के लेबोरटरीज में मेडिकल फिल्ड के अंदर जदीद इन्वेंशन के तौर पर इस्तेमाल करते हुए आज हम सब लोग देख सकते हैं.

लेकिन इनकी तश्दुद जदा लाश न्यूयॉर्क के एक सड़क के किनारे पड़े एक फ्रिज के अंदर मिली, इनकी रिसर्च पेपर को छुपा या चुरा लिया गया इसलिए आज तक आपने उन का नाम तक नहीं सुना होगा...?

"डाक्टर समेरा मौसा"...?
मुस्लिम ख़्वातीन वैज्ञानिकों का ज़िक्र हो और समेरा मौसा का ज़िक्र न हो तो ये एक बहुत बड़ी नाइंसाफी होगी, 1917 के अंदर पैदा होने वाली मिस्री न्युक्लियर वैज्ञानिक जिन्हें मिस्र में न्युक्लियर की मां भी कहा जाता है, उनके वैसे तो बहुत से अविष्कार हैं, मगर उनका सबसे खास अविष्कार बहुत कम लागत में बनने वाला एट्मबम फार्मूला था, इसके अलावा वो मेडिकल फील्ड के अंदर न्युक्लियर साइंस की मदद से कैंसर की इलाज को इतना ज्यादा सस्ता करने जा रही थी के एक सिरदर्द की गोली के ख़र्च के मुताबिक ही कैंसर का इलाज होता, मगर मग़रिब के फिरऔन भला ये कैसे बर्दाश्त करते कि इनकी मेडिकल माफ़िया की दवाओं की कम्पनियां डूब जायें, जो कैंसर जैसी बीमारी के इलाज पर महंगी तरीन दवाएं बेचकर पैसा कमा रही है, सो उन्हें भी कत्ल कर दिया गया, जब वो अमेरिका के दौरे पर गई थीं.

"डाक्टर नबील अल-कलीनी"
डाक्टर नबील अल कलीनी का तालुक भी मिस्र से ही था, ये एक हक़ीक़ी हीरो के तौर पर अपने मुल्क से मुहब्बत करने वाला वैज्ञानिक थे, क़ाहिरा युनिवर्सिटी की विज्ञान  डिपार्टमेंट  की तरफ से इन्हें Czechoslovakia भेजा गया था कि वो वहां मजीद तजरूबात करें और जब इन्होंने वहां तजरुबात का आगाज किया तो इनकी रिसर्च ने पूरी  Czechoslovakia के अंदर धूम मचा दी, हर एक इनकी ज़हानत पर दाद देने पर मजबुर हो गया, मगर जैसे ही ये ख़बर आलमी अख़बारात की हेडलाइन बनी, तो 27 जनवरी 1975 की सुबह सोमवार के दिन फ्लैट मैं टेलीफोन की घंटी बजी, फोन पर कुछ बातचीत के बाद वो बाहर निकले और फिर आज तक नहीं लौटे...?

यह्या अल-मशद नामी अटॉमिक वैज्ञानिक को फ्रांस के अंदर क़त्ल कर दिया गया, इसी तरह ईरान के बहुत से वैज्ञानिक जिनका तालुक खासतौर पर डिफेंस टेक्नोलॉजी से था, इन्हें मौसाद ने जान बुझकर निशाना बनाकर कत्ल कर दिया और आज मुस्लिम कौम के बारे में ये धारणा है कि ये कोई जाहिल और फ़साद फैलाने वाली कौम है, इसने विज्ञान के मैदान कुछ भी नहीं किया यानी के जदीद दौर के कोई भी अविष्कार मुस्लमानो ने नहीं किए, जिनका रोना आज हमारे मुल्क के दानिश्वरो के ज़बानी आपको सुनने को मिलता रहता है, मगर ऐसा नहीं है बस हमें बताया नहीं जाता, आपने इन अज़ीम वैज्ञानिकों के कारनामों और इनके पुर असरार मौत का जिक्र मिडिया या किसी दानिश्वर की ज़ुबानी सुना है कभी...?

और शायद हम जानना भी नहीं चाहते बस जो कुछ किसी ने बताया वो हमने मान लिया, खुद कभी हमने रिसर्च या खोजबीन की ही नहीं.

याद रहे जब भी किसी कौम पर ज़वाल आता है, तो सबसे पहले उनके अंदर जाहिलों की तादाद में इज़ाफ़ा हो जाता है, वो इल्म की मुखालिफ होकर कारोबारी बन जाते हैं, इनके इल्म का मक़सद ज़ाति मफाद का तहफ्फुज़ होता है ना कि अख़लाकी और समाज़ी जिंदगी के अंदर सुधार लाना.

अगर किसी को लंदन के म्युजियम में जाने का इतेफाक हो तो वहां पर इस्लाम के आगाज़ से लेकर पिछली सदी तक की हर तरह की किताबें, टूल्स और मुस्लमानो के तैयार करदा नक्शे देखने को मिलेंगे, मगर वहां कौन जाए और उनपर रिसर्च करें, पूरी यूरोप की लाइब्रेरियां मुस्लमानो की किताबों से भरी पड़ी है और बर्तानिया के अंदर पिछली सदी तक के सैंकड़ों हज़ारों नुस्ख़े मौजूद हैं.

बहुत ही मज़े के साथ ये बात कही जाती है के हिंदुस्तान मे मुगल दौर के अंदर जब मुस्लमान सिर्फ इमारतें बना रहे थे उस वक्त मग़रिब के अंदर आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी बन रही थी, लेकिन क्या कभी उन लोगों ने बताया के ये इमारतें और बड़े बड़े महल बिना किसी इंजीनियर के बन सकते हैं...? केमिस्ट्री के इल्म के बगैर शिशा, सीमेंट और रंग वगैराह बनाई जा सकते है जो उन इमारतों में इस्तेमाल की जाती थी...? क्या हिसाब किताब और mathamatics के बगैर एक बड़े मुल्क का निज़ाम चलाया जा सकता है...? क्या वहां पर सड़कें बनाई जा सकती है...? फसलों और बागों का निज़ाम, आबपाशी, पुल और सुरंगें वगैराह बगैर किसी इल्म और तजुर्बे के बनाई जा सकती है...??

लेकिन हमें तो सब मालुम है कि ये तो सारे मुस्लमानो की ही दौर में हुई थे और कौनसी किताब के अंदर लिखा देखा है कि मुस्लमानो को ये इल्म मग़रिब वाले आकर सिखाते थे...?

उससे भी ज़्यादा मज़े से ये बात भी कही जाती है कि जब इंग्लैंड के अंदर जिंदगी बचाने वाली दवाओं को तैयार किया जा रहा था तो उस वक्त हिंदुस्तान के अंदर औरतें ज़चगी के दौरान मर रही थी, यानि के हिंदुस्तान के अंदर निज़ामे सिहत सिरे से मौजूद ही नहीं था, काश उन लोगों ने थोड़ी सी भी तहक़ीक़ कर ली होती तो पता चलता कि दिल्ली के सुल्तानों के ज़माने में एक बहुत बड़ा हेल्थ का इन्फ्रास्ट्रक्चर मौजूद था, हकीमों की तरबियत के इदारे भी थे, हर इलाके में हुकूमत के जेरे निगरानी तबीब हुआ करते थे.

लेकिन हमारे ज़हनो के अंदर ये डाल दिया गया है कि हम कुछ भी नहीं थे और न अब कुछ हैं, जबकि कुरऑन हमें बार बार ग़ौर व फ़िक्र की दावत दे रहा है, मगर हम कुरऑन की कहां मानने वाले हैं, इसको तो हमने सवाब की नियत से पढ़ने के साथ अलमारियों में क़ैद कर रखा है, इसको तो हम उस वक्त निकालते हैं जब इसकी क़सम खानी हो या बेटीयों को रुखसत करना हो...?

आज हमारी नज़र में सिर्फ मग़रिबी ही सब कुछ है और ये सोच हमारी नस्ल के अंदर ज़हर की तरह भरी जा रही है और जो लोग इस सोच को मुस्लिम मुआशरे के अंदर पैदा कर रहे हैं, खुदारा इन को पहचानने की कोशिश करें, अपने को अहसास ए कमतरी से बाहर निकालें, अपने दीन और दुनियां के इल्म के बारे मैं जाने और दूसरों को भी बतायें.

इसी बात पर अल्लामा मुहम्मद इक़बाल ने कहा था...?
अपनी उम्मत पर क़्यास अक़वाम मगरिब से न कर,
ख़ास है तरकीब में क़ौमे रसूले हाशमी ﷺ

देखते हैं कितने लोग शेयर करते हैं...?

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