Saturday 19 October 2019

क्यूं आया सर सैय्यद पर कुफ़्र का फ़तवा जाने कुछ अहम बातें...?

"एस एम फ़रीद भारतीय"
सर सय्यद के ” ह्रदय -परिवर्तन ” अर्थात अकीदा परिवर्तन के पीछे एक और कारण बताया जाता है, 1877 ई. में वोइसराय लार्ड लिटन ने ” धार्मिक एक्य सम्मलेन ” बुलवाया आर्य समाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती ने वहां इस्लाम और इसाई धर्मों की जमकर आलोचना की, सर सय्यद का कमज़ोर ईमान इस आलोचना से लडखडा गया और उन्होंने दयानंद सरस्वती के सामने घुटने टेक दिए, इसके बाद उनकी यह कोशिश रही कि किस तरह इस्लाम को वेदों और दयानंद सरस्वती के विचारों के अनुकूल मोड़ा जाये.

अंग्रेजों की चाहुकारिता और दयानंद सरस्वती की भक्ति ने मिलकर सर सय्यद से कुछ नए अकीदों की रचना करवा दी, जो नीचे पेश किये जा रहे हैं.
(1 ) फरिश्तों का कोई अस्तित्व नहीं, चीज़ों में जो कुदरती खैर की कुव्वत होती है, उसी का नाम ”फ़रिश्ता” है.
(२ )जन्नत का कोई अस्तित्व नहीं है, अपनी नेकियों पे खुश होने का नाम ही जन्नत है.
(3)दोज़ख का कोई अस्तित्व नहीं, बल्कि अपनी बुराइयों पर कुढ़ने का नाम ही दौज़ख़ है.
(4 )हदीसों की हर बात को आँख मूँद कर भरोसा नहीं करना चाहिए, चाहे वह सही हैन याने बुखारी और मुस्लिम शरीफ ही क्यों न हों.
(5 )और तो और–सर सय्यद ने कमाल के दिव्यज्ञान का मुजाहिरा करते हुए यह भी फरमा दिया कि ”शबे मेराज” की घटना और नबुव्वत के पूर्व आप ( सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम ) के ह्रदय का धोना, ये घटनाएँ सिर्फ एक सपना (ख़्वाब) हैं.
(6) खुदा का दीदार इस लोक में या उस लोक में किसी को भी होना असंभव है.

इन सबसे आगे बढ़कर नाज़ुबिल्लाह ख़ाना काबा को चार दीवारों का डब्बा भी इन्हीं सर सैय्यद साहब ने कहा था, उस खाना काबा को जिसकी हिफ़ाज़त अल्लाह ने ख़ुद अपने हाथों मैं ली है, आगे कहते थे कि क़ाबे की तरफ़ मुंह करना ज़रूरी नहीं है.
वहीं हज़रत ईसा अलेयहि सलाम को बिन बाप की पैदाईश भी मानने से इनकार इन्ही सर सैय्यद ने किया था, यानि एक तरहां क़ुरआन को झुटलाया गया.
बाबा आदम के बारे मैं भी कुछ ऐसे ही ख़्यालात सर सैय्यद के हुआ करते थे कि आदम नाम नहीं इंसान की पहचान है, अब आप सोचें ऐसे इंसान पर आलिमों ने अगर कुफ़र का फ़तवा दिया तो क्या ग़लत किया...?
ऐसे ही इस्लाम-विरोधी, मूर्खतापूर्ण अकीदों का यह नतीजा निकला कि ओलमा ए हक ने एक स्वर से उनको ”काफिर” यानि कुफ़र करने वाला घोषित कर दिया, चूँकि कुरान और हदीस का इनकार खुला कुफ्र है, इस लिहाज़ से सर सय्यद पूरी तरह इस फ़तवे के योग्य नज़र आते हैं.
अंग्रेजों और उनके पिट्ठू मुसलमानों ने इस फ़तवे के आते ही ओलमा और इस्लाम को आधुनिक शिक्षा का विरोधी घोषित कर दिया ! उन्होंने यह दुष्प्रचार फैलाया कि चूँकि इस्लाम ज्ञान-विज्ञानं और आधुनिकता का विरोधी है और सर सय्यद मुसलमानों को ज्ञान-विज्ञानं की आधुनिक शिक्षा दिलाना चाहते थे इसलिए कठ मुल्लाओं ने उनको काफिर घोषित कर दिया, जबकि सच्चाई ऐसी नहीं थी.
सच्चाई यह है कि इस्लाम या ओलामाओं ने कभी भी अंग्रेजी या किसी और भाषा तथा आधुनिक ज्ञान -विज्ञानं की शिक्षा प्राप्त करने से कभी मना नहीं किया, हजरत मोहम्मद मुस्तफ़ा  सल्लल्लाहो अलैहे व सल्लम ने फ़रमाया–” इल्म हासिल करो, चाहे तुम्हे चीन जाना पड़े .”. ज़ाहिर है, चीन में इल्मे दीन नहीं, बल्कि इल्मे-दुनिया ही मिल सकता है जो ज्ञान-विज्ञान और दर्शन के अंतर्गत आता है, सय्यद जलालुद्दीन अफगानी साहब, जिन्होंने सर सय्यद पर कुफ्र का फतवा दिया था, स्वयं ज्ञान-विज्ञानं और उच्च शिक्षा के प्रबल समर्थक थे और जिस चीन की मिसाल क़ुरआन मैं दी गई है आज वही चीन आपकी हमारी और सारी दुनियां की नज़रों मैं कि वो कैसा इल्म रखते हैं और अपने इल्म से कैसे दुनियां को चौंका रहा है.
उसी तरह शाह अब्दुल अज़ीज़, जो उस ज़माने के प्रख्यात विद्वान थे, उनसे जब मुसलमानों ने आधुनिक शिक्षा के ताल्लुक से फतवा माँगा तो उन्होंने जवाब दिया कि अंग्रेजी कालेज में जाना, पढ़ना और अंग्रेजी ज़बान सीखना इस्लाम की दृष्टि में जायज़ है और इस्लाम इसे हासिल करने से कभी नहीं रोकता.
इसलिए सर सय्यद के समर्थकों के ये आरोप बे बुनियाद साबित हो जाते हैं कि उन पर जो कुफ्र का फतवा लगा था, वह उनके आधुनिक शिक्षा देने और मुसलमानों को पढ़ाने लिखाने की वजह से लगा था, सच्चाई यही है कि सर सय्यद जिस तरह कुरान की मनमानी व्याख्या कर रहे थे और देश के मुसलमानों -ख़ास कर पढ़े -लिखे तबके में गुमाराहियत का ज़हर भर रहे थे, उसी के आलोक में उन पर यह फतवा आयद हुआ था.
बल्कि यही नहीं, वे मुसलमानों को उन अंग्रेजों की वफादारी पे आमादा कर रहे थे, जो उस वक़्त कृसेडी मानसिकता के तहत पूरी दुनिया से इस्लाम को मिटा देने के लिए ज़बरदस्त मुहिम छेड़े हुए थे और तुर्की से कमाल पाशा के नापाक हाथों से खिलाफत को ख़त्म करवा कर उन्होंने अपना यह मकसद काफी हद तक प्राप्त भी कर लिया था.
अगर शत्रु-खेमा किसी मुसलमान की तारीफ़ कर रहा है तो यकीन मानिये कि वह मुसलमान (? ) निश्चित रूप से दुश्मन का एजेंट है, मुस्तफा कमाल पाशा की हरकतें  दुनियां के सामने है, जो उसने तुर्की के आधुनिकीकरण के नाम पर अंजाम दी थीं, सर सय्यद ने भी आधुनिक शिक्षा का लबादा ओढ़ कर ऐसे अक़ाएद पेश किये जिसने इस्लाम की पूरी की पूरी विचारधारा को ही शीर्षासन करा दिया था.
यही माजरा हम आज भी देखते हैं जब पश्चिमी मीडिया और नेतृत्व एक स्वर में मलाला, रुश्दी, तसलीमा, तारीक़ फ़तह या यासर अराफात की तारीफ़ करता है या करता था, ये सभी हजरात पश्चिम के एजेंट हैं और पश्चिम द्वारा इनको हाई लाइट किया ही इसलिए जाता रहा है ताकि ये लोग मुस्लिम नाम रखकर मुसलमानों को ही धोखा देंगे और इस्लाम की जड़ों को खोखली कर कर के दुश्मनों के एजेंडे को पूरा करने में उनकी दरपर्दा मदद करते रहेंगे.
आधुनिक बनाने या आधुनिक शिक्षा हासिल करने के लिए इस्लाम को त्यागना और उसको मटियामेट करना ज़रूरी नहीं है, इन हजरात ने यही गुनाह किया है और यही इनकी मुखालिफत की वाहिद वजह है.
अल्लाह हमको सही रास्ते पर चलने वाला बनाये आमीन...!

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