(बने घर को बार बार गिराकर बारबार बनाते हैं सैफ़ी समाज के ज़्यादातर लोग)
"एस एम फ़रीद भारतीय"
आज एक ख़ुशी की ख़बर सैफ़ी समाज के नौजवान की
पढ़कर अचानक ही एक पुराना लेख याद आ गया जो लिखा तो था मगर मेरी लापरवाही मैं कहीं गुम हो गया, लेख था बने घर को बार बार गिराकर बार बार बनाते है सैफ़ी समाज के ज़्यादातर लोग...?
चलिए फिर से कुछ नये मसाले के साथ शुरू करते हैं, सबसे पहले तो सैफ़ी पोस्ट के संस्थापक सम्पादक जनाब मुस्लिम सैफ़ी को शादी की ढेर सारी मुबारकबाद जिसके वो हक़दार हैं, इस हक़दारी की कई वजह और भी हैं जैसे निकाह की कबूलियत के बाद शरई तौर पर आज दुल्हा दुल्हन दोनों ही ने अपने वालिदेन को अपने बुरे कामों से आज़ाद कर दिया जो सबसे ज़्यादा सुकून देने वाला है।
निकाह के बाद इंसान की नेकी और बदी का अपना अलग खाता खुल जाता है जो पहले वालिदेन के खाते के साथ जुड़ा होता है और नेकी बदी मैं वालिदेन भी बराबर के शरीक होते हैं, अब निकाह के बाद नेकी के कामों मैं वालिदेन तरबियत और पैदाईश की ज़िम्मेदारी की वजह से शरीक किये जायेंगे, लेकिन बदी के कामों की ज़िम्मेदारी अब औलाद की अपनी निजी होगी जो सुकून के साथ ज़िम्मेदारी का सबक सिखाने वाला क़दम है.
अब आते हैं असल मक़सद यानि लेख पर जो सैफ़ी समाज की कई फ़ितरतों मैं से एक रही है और यही वो सबसे बड़ी वजह है जिसने इस समाज को कभी आपस मैं जुड़ने नहीं दिया, इस फ़ितरत मैं ख़ुद की मैं भी जुड़ी होती है और ये मैं इसको कहीं का नहीं छोड़ती, वो मैं क्या है क्यूं है डालते हैं इसी पर एक नज़र...?
इस्लाम में मैं को सिर्फ़ पैदा करने वाली ज़ात के लिए रखा गया है क्यूंकि जहां मैं होती है वहां एकता ख़त्म हो जाती है, यही वजह है कि अगर एकता को इंसान के अंदर तलाश करना है तब उसकी चाल चलन के साथ बोलचाल पर ख़ास ध्यान देना चाहिए, अगर कोई इंसान मैं का ज़्यादा इस्तेमाल करे या बात बात पर मिसाल में मैं कहे तब समझ लो कि ये बात सर्व समाज की नहीं बल्कि समाज के कंधे का इस्तेमाल कर ख़ुद की कर रहा है.
दूसरे लेख जिस लिया लिखा कि इमारत को बार बार गिराकर बार बार बनाने की आदत है ज़्यादातर लोगों को जो कामयाब होकर भी नाकामी की वजह है, सैफ़ी समाज के नामकरण से लेकर आज तक का इतिहास उठाकर देख लें, इस समाज के लोगों की ज़ुबान और ख़्यालात बहुत बड़े होंगे, लेकिन ज़मीन पर कुछ नज़र नहीं आयेगा सिर्फ़ हवा हवाई होंगे, अगर ज़मीन पर कुछ दिखेगा तो वो होगा 6 अप्रेल को सैफ़ी डे के नाम पर बड़े बड़े आरज़ी तम्बूओं में दावत का दौर...!
वजह अगर किसी ने किसी मुहिम को अपनी सोच से अपने क़बीले की फ़ला बेहबूदगी के लिए शुरू किया है तो सामने वाले सैफ़ी का काम होगा उस काम को नकारना यानि बने बनाये काम को बिगाड़ना और कुछ वक़्त बाद कुछ हम ख़्यालों की टोली बनाकर फिर से उस काम की शुरूआत करना.
ये किसी एक फ़ील्ड मैं नहीं है बल्कि हर उस फ़ील्ड मैं होता है जो इस क़बीले की तरक्की के लिए किया जाये, अगर अपना ज़ाति कोई काम किसी सैफ़ी ने शुरू किया उसको गिराने बिगाड़ने के ज़ोर तो पूरे लगायेगा मगर सामने से नहीं पीछे रहकर.
लेकिन कबीले की भलाई के काम मैं थोड़ी सी तरक्की सामने आते ही पेट में दर्द शुरू हो जायेगा कि यार ये इस काम को इतनी सफ़लता के साथ पूरी टीम की एकजुटता से क्यूं कर रहा है मैं क्यूं इससे पीछे हुँ, और यही मैं इसके दिमाग़ में अब फ़ितूर बनकर गश्त करने लगती है, अब ये टीम को तोड़ने के काम शुरू करता है और अपने पक़सद में कामयाब होने के बाद तोड़ फोड़ कर, उसी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा हो जाता है एक बड़ा हमदर्द बनकर, यही पहचान है उस शख़्स की कि यही था उस साज़िश के पीछे और जो बाकी अलग हुए वो किसी तरहां बहकावे के शिकार थे...!
किसी का इस कड़वे सच से दिल दिखा हो तो मांफ़ी चाहूंगा...
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