"एस एम फ़रीद भारतीय"
बीबीसी और अन्य ख़बरी चैनलों के हवाले से जो ख़बर सामने आ रही है वो यही है कि अयोध्या मैं मस्जिद के लिए कहीं भी कोई ज़मीन नहीं देने दी जायेगी, यानि अगर
ज़मीन दी गई तो उसपर भी एक नया विवाद होगा, यानि बाबरी मस्जिद का हक़ तो मुस्लिम समाज से गया अब कोई और मस्जिद अयोध्या मैं नई तामीर नहीं करने दी जायेगी नाम चाहे मस्जिद का कुछ भी हो.
इस आवाज़ के बाद क्या लगता है चलिए इसपर फिर से रोशनी डालते हैं, 9 नवम्बर तक तो देश मैं विवाद था बाबरी मस्जिद और 9 नवम्बर के बाद नया विवाद होगा नई मस्जिद की ज़मीन यानि मंदिर मस्जिद पर राजनीति चलती रहेगी, क्यूंकि सुप्रीम कोर्ट ने जो फ़ैसला सुनाया है वो जल्दबाज़ी का फ़ैसला है हम आज ऐसा भी कह सकते हैं, क्यूंकि सुप्रीम कोर्ट ने मस्जिद के लिए ज़मीन कौनसी होगी कहां होगी ये नहीं बताया है.
सूत्रों के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद मस्जिद निर्माण के लिए सरकारी जमीन की तलाश तेज हो गई, सदर तहसील के लेखपालों को फैसला आने के तत्काल बाद मौखिक आदेश दिया गया है, सुप्रीम कोर्ट का पांच एकड़ जमीन मस्जिद निर्माण के उपलब्ध कराने का आदेश है, नगर निगम क्षेत्र में पांच एकड़ जमीन नजूल के पास भी एक साथ एक जगह मिल पाना बहुत मुश्किल है.
अयोध्या में चर्चा ये भी है कि प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत 636 आवासों के लिए बमुश्किल नजूल की जमीन मिल सकी थी, सौ आवासों के लिए करीब ढाई एकड़ जमीन ब्रह्मकुंड गुरुद्वारा के पास मिल पाई है, वहीं स्टूडियो अपार्टमेंट के लिए पिछले दो वर्ष से अयोध्या-फैजाबाद विकास प्राधिकरण नजूल से जमीन खरीदने के प्रयास में है, लेकिन नहीं मिल पा रही है, प्रशासनिक सूत्र बताते हैं कि नगर निगम क्षेत्र में पांच एकड़ सरकारी जमीन मिल पाना बहुत मुश्किल है.
ऐसा तभी सभंव हो सकेगा जब नगर निगम का सीमा में विस्तार किया जाये, बहुत समय पहले से करीब 25 ग्राम पंचायतों को नगर निगम में शामिल किये जाने का प्रस्ताव शासन प्रशासन के पास विचाराधीन है, अब उन्हीं ग्राम पंचायतों को खतौनी-खसरा के आधार पर जल्द से जल्द लेखपालों से बताने को कहा जा रहा है.
कोर्ट द्वारा ऐसी सरकारी जमीन का आदेश दिया गया जिसकी लोकेशन एवं सड़क ठीक हो, यूं तो माझा क्षेत्र में सरकारी जमीन बहुत है, पर उनकी लोकेशन ठीक नहीं है.
हमें तहसील सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार पांच एकड़ सरकारी जमीन अच्छी लोकेशन पर मिल पाना बहुत मुश्किल है, कहते हैं अगर ये मुश्किल ना होता तो भगवान राम की सबसे बड़ी प्रतिमा लगाने के लिए मीरापुर मांझा में किसानों से जमीन खरीदने की प्रक्रिया शुरू ना हुई होती.
यूं तो कोर्ट के फैसले के बाद मस्जिद के लिए जमीन देने के लिए हिंदू और मुस्लिम दोनों ही सामने आए हैं, इनमें से एक तो खुद को मीर बाक़ी का रिश्तेदार बताने वाले रजी हसन हैं जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सभी से स्वीकार करने की बात कही, साथ ही उन्होंने कहा कि मस्जिद के निर्माण के लिए यदि सरकार पहल करती है तो वह सहनवां में अपनी जमीन देने को तैयार हैं.
एक निजी स्कूल के चेयरमैन डॉ. संजय तिवारी भी जमीन देने के लिए सामने आए हैं, 14 कोसी परिक्रमा मार्ग के निकट उनकी जमीन है, उनका कहना है कि यदि सरकार चाहे तो मस्जिद के लिए उनकी जमीन भी ले सकती है.
अब सवाल उठता है कि मान लो सरकारी प्रयास और कोर्ट के डर से कहीं ज़मीन मिल भी गई तब उसपर मुस्लिमों को मस्जिद तामीर करना या कोई और इमारत बनाना आसान हो, इसका क्या भरोसा कि जो लोग आज पांच एकड़ का विरोध कर रहे हैं वो कल सड़क पर हंगामा करने के लिए नहीं उतरेंगे, कल कोई नया विवाद खड़ा नहीं होगा, कोर्ट मैं इसको चुनौती नहीं दी जायेगी, कल कोई नई पार्टी नये नाम से इस ज़मीन को कोई मुद्दा नहीं बनायेगी...?
अब सबरीमाला मंदिर की मिसाल हमारे सामने है जब संगीनों के साय मैं देश के सबसे पुराने केस अयोध्या पर फ़ैसला दिया जा सकता है तब सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला पर अपने हाथ क्यूं खड़े किये क्यूं फ़ैसला सुनाने मैं अपने को कमज़ोर महसूस किया जबकि सबकी निगाहें अयोध्या के बाद इस फ़ैसले पर भी टिकी थीं, मगर सुप्रीम कोर्ट ने ख़ुद माना कि अदालत ज़रूर सुप्रीम है लेकिन बेंच सुप्रीम नहीं है इसको बड़ी बेंच के पास जाना होगा.
जबकि ये मामला भी अयोध्या की तरहां ही राजनीति का हिस्सा रहा, यहां भी सबरीमाला पर बीजेपी ने दक्षिण में अपने पैर जमाने के मौके की तरह देखा और बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट के महिलाओं के हक में फैसले के विरोध में भी हजारों बीजेपी कार्यकर्ताओं ने केरल राज्य सचिवालय की ओर मार्च किया, महिला अधिकार संगठनों ने इसे मुद्दा बनाया साथ ही भूमाता ब्रिगेड की तृप्ति देसाई ने भी सबरीमाला मंदिर आने की बात कही.
सबरीमाला मामला क्या है...?
सबरीमाला मंदिर करीब 800 साल से अस्तित्व में है और इसमें महिलाओं के प्रवेश पर विवाद भी दशकों पुराना है। वजह यह है कि भगवान अयप्पा नित्य ब्रह्मचारी माने जाते हैं, जिसकी वजह से उनके मंदिर में ऐसी महिलाओं का आना मना है, जो मां बन सकती हैं। ऐसी महिलाओं की उम्र 10 से 50 साल निर्धारित की है। माना गया कि इस उम्र की महिलाएं पीरियड्स होने की वजह से शुद्ध नहीं रह सकतीं और भगवान के पास बिना शुद्ध हुए नहीं आया जा सकता.
1990 में जनहित याचिका दाखिल की गई
इस साल एस. महेंद्रन नाम के एक शख्स ने कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल की, यह याचिका मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर थी, साल 1991 में कोर्ट ने याचिका पर फैसला सुनाया कि महिलाओं को सबरीमाला मंदिर नहीं जाने दिया जाएगा.
पीठ को सौंप दिया था और जुलाई, 2018 में पांच जजों की बेंच ने मामले की सुनवाई शुरू की थी, जिसपर महिलाओं के हक में आया था ये ऐतिहासिक फैसला.
जब 28 सितंबर, 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश की अनुमति दे दी, कोर्ट ने साफ कहा कि हर उम्र वर्ग की महिलाएं अब मंदिर में प्रवेश कर सकेंगी, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हमारी संस्कृति में महिला का स्थान आदरणीय है, यहां महिलाओं को देवी की तरह पूजा जाता है और मंदिर में प्रवेश से रोका जा रहा है, यह स्वीकार्य नहीं है.
केरल के सबरीमाला विवाद को लेकर दाखिल पुनर्विचार याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने बड़ी बेंच को मामला रेफर कर दिया 28 सितंबर 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने विवाद पर फैसला सुनाते हुए सभी महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की इजाजत दी थी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में व्यापक स्तर पर विरोध-प्रदर्शन हुए थे, फैसले को लेकर कई जगह हिंसा भड़की थी.
लेकिन पुनर्विचार याचिका पर फैसला देते हुए सीजेआई रंजन गोगोई ने कहा कि याचिकाकर्ता इस बहस को पुनर्जीवित करना चाहता है कि धर्म का अभिन्न अंग क्या है?
सीजेआई ने यह भी कहा कि धार्मिक प्रथाओं को सार्वजनिक आदेश, नैतिकता और भाग 3 के अन्य प्रावधानों के खिलाफ नहीं होना चाहिए, सबरीमाला पुनर्विचार याचिका में 5 जजों की में से सीजेआई रंजन गोगोई जस्टिस इंदु मल्होत्रा और जस्टिस खानविलकर ने बहुमत में फैसला दिया है, जबकि जस्टिस फली नरीमन और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने अलग से इस निर्णय के खिलाफ अपना फैसला दिया है.
क्या सुप्रीम कोर्ट को सबरीमाला पर अपने पहले फ़ैसले पर अटल नहीं रहना चाहिए था, क्या सुप्रीम कोर्ट को नहीं चाहिए कि वो वहां की सरकार को इसपर राजनीति बंद कर कड़ाई से पालन करने के लिए कहें, यही सवाल अयोध्या के फ़ैसले पर भी तो लागू होते हैं, वहां महिलाओं की पूजा के अधिकार का मामला है तो यहां अयोध्या मैं इबादत के साथ गिराई गई इबादतगाह का, जो किसी दूसरी इबादतगाह को तोड़कर तो नहीं बनाई गई थी, सुप्रीम कोर्ट की जो सोच सबरीमाला मैं है वो बाबरी मस्जिद मैं क्यों नहीं...!
सोचना आपको है...?
नोट- इस लेख मैं कुछ अंश नवभारत टाइम्स से लिया गया है.
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