Friday, 20 December 2019

NRC और CAA को समझने के लिए असम आन्दोलन को समझें...?

NRC पर सरकार अब सफ़ाई पेश कर रही है कह रही है ये असम वालों की मांग
पर सुप्रीम कोर्ट के आदेशों व निर्देशानुसार लाया गया बिल है...?

"एस एम फ़रीद भारतीय"
सहमत मान लिया ये NRC असमी आंदोलनकारियों की मांग और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों व निर्देशानुसार लाया गया एक्ट है, ये भी मान लिया कि इससे घबराने की ज़रूरत फ़िलहाल बाकी देश के नागरिकों को नहीं है, मगर साहब और साहब के बहुमत ही अक़्लमंद कानून के ज्ञानी साथियों ये तो बता दो असमी मांग क्या कर रहे थे और आप उनको दे क्या रहे हो...?

चलिए हम भी थोड़ा अपने कम दिमाग से आपको समझ लेने के साथ समझा भी देते हैं, भारतीय राजनीति में असम आंदोलन क्षेत्रीय और जातीय अस्मिता जुड़े बड़े आन्दोलनों में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है, इस आंदोलन के दौरान असम के भू-क्षेत्र में बाहरी लोगों, खास तौर पर बांग्लादेश से आये लोगों को असम से बाहर निकालने के लिए ज़बरदस्त गोलबंदी हुई, इस आंदोलन की एक विशिष्टता यह ही थी कि इसे कई स्थानों पर ग़ैर-असमिया लोगों का भी समर्थन मिला.

इस आंदोलन ने राष्ट्रीय स्तर पर बहिरागतों के कारण स्थानीय समुदायों को होने वाली मुश्किलों और असुरक्षा-बोध के मसले पर रोशनी डाली, लेकिन इसके साथ ही इसने इस ख़तरे को भी रेखांकित किया कि भाषाई और सांस्कृतिक अस्मिता की परिभाषा जितनी संकुचित होती है, दूसरी भाषाओं और संस्कृतियों को अन्य या बाहरी घोषित करने की प्रवृत्ति मज़बूत होती चली जाती है.

कहते हैं असम में बाहरी लोगों के आने का एक लम्बा इतिहास रहा है, औपनिवेशिक प्रशासन ने हज़ारों बिहारियों और बंगालियों को यहाँ आकर बसने, यहाँ के चाय बागानों में काम करने और ख़ाली पड़ी ज़मीन पर खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया, उस समय असम की जनसंख्या बहुत कम थी, ऐसे में असम के भूमिपतियों ने बंगाली जोतदारों और बिहारी मज़दूरों का खुलकर स्वागत किया, 1939 से 1947 के बीच मुसलमान साम्प्रदायिक शक्तियों ने भी बंगाली मुसलमानों को प्रोत्साहित किया कि वे असम में जाकर बसें.

उन्हें लगता था कि ऐसा करने से देश विभाजन की स्थिति में वे बेहतर सौदेबाज़ी कर सकेंगे, विभाजन के बाद नये बने पूर्वी पाकिस्तान से पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा के साथ-ही-साथ असम में भी बड़ी संख्या में बंगाली लोग आये, 1971 में पूर्वी पाकिस्तान (बाद में बांग्लादेश) में मुसलमान बंगालियों ख़िलाफ़ पाकिस्तानी सेना की हिंसक कार्रवाई के कारण वहाँ के तकरीबन दस लाख लोगों ने असम में शरण ली, बांग्लादेश बनने के बाद इनमें से अधिकतर लौट गये, लेकिन तकरीबन एक लाख लोग वहीं रह गये, 1971 के बाद भी बड़े पैमाने पर बांग्लादेशियों का असम में आना जारी रहा, ऐसे में असम के किसानों और मूलवासियों को यह डर सताने लगा कि उनकी ज़मीन-जायदाद पर बांग्लादेश से आये लोगों का कब्ज़ा हो जाएगा.

जनसंख्या में होने वाले इस बदलाव ने मूलवासियों में भाषाई, सांस्कृतिक और राजनीतिक असुरक्षा की भावना पैदा कर दी, इसने असम के लोगों और ख़ास तौर पर वहाँ के युवाओं को भावनात्मक रूप से उद्वेलित किया, असम के लोगों को लगने लगा कि बाहरी लोगों, ख़ास तौर पर बांग्लादेशियों के कारण वे अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक बन जाएँगे जिससे राज्य की अर्थव्यवस्था और राजनीति पर उनकी कोई पकड़ नहीं रह जाएगी, लोगों का यह डर पूरी तरह ग़लत भी नहीं था, 1971 की जनगणना में असम में असमिया भाषा बोलने वाले सिर्फ़ ५९% प्रतिशत ही लोग थे, इसमें भी बहुत से बंगाली शामिल थे जिन्होंने एक पीढ़ी से ज़्यादा समय से यहाँ रहने के कारण यह भाषा सीख ली थी, इन्हीं कारणों से 1980 के दशक में ग़ैर-कानूनी बहिरागतों के ख़िलाफ़ असम में एक ज़ोरदार आंदोलन चला.

उल्लेखनीय है कि उन्नीसवीं सदी और खासतौर पर आज़ादी बाद यह क्षेत्र खास तरह के राजनीतिक पुनर्जागरण के दौर से गुज़रा जिसने असम लोगों में अपनी भाषा, संस्कृति, साहित्य, लोक कला और संगीत के प्रति गर्व की भावना पैदा की, राज्य की सांस्कृतिक, भाषाई और धार्मिक विविधता को देखते हए यह एक जटिल प्रक्रिया थी, एकीकृत असमिया संस्कृति की तरफ़दारी करने वाले बहुत से लोगों का यह भी मानना रहा है कि आदिवासी इलाकों को अलग से विशेष अधिकार देकर या मेघालय, मिजोरम, नगालैण्ड और अरुणाचल प्रदेश जैसे अलग राज्यों को निर्माण करके केंद्र सरकार ने एक व्यापक असमिया पहचान के निर्माण में रुकावट डालने का काम किया है, इसीलिए असम के युवाओं में केंद्र के प्रति एक नकारात्मकता और आक्रोश की भावना रही है.

पचास के दशक से ही गैर-कानूनी रूप से बाहरी लोगों का असम में आना एक राजनीतिक मुद्दा बनने लगा था, लेकिन 1979 में यह एक प्रमुख मुद्दे के रूप में सामने आया, जब बड़ी संख्या में बांग्लादेश से आने वाले लोगों को राज्य की मतदाता सूची में शामिल कर लिया गया, 1978 में मांगलोडी लोकसभा क्षेत्र के सांसद की मृत्यु के बाद उपचुनाव की घोषणा हुई, चुनाव अधिकारी ने पाया कि मतदाताओं की संख्या में अचानक ज़बरदस्त इज़ाफ़ा हो गया है, इसने स्थानीय स्तर पर लोगों में आक्रोश पैदा किया, यह माना गया कि बाहरी लोगों, विशेष रूप से बांग्लादेशियों के आने के कारण ही इस क्षेत्र में मतदाताओं की संख्या में ज़बरदस्त बढ़ोतरी हुई है.

तब ऑल असम स्टूडेंट यूनियन (आसू) और क्षेत्रीय राजनीतिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक संगठनों से मिलकर बनी असम गण संग्राम परिषद ने बहिरागतों के ख़िलाफ़ आंदोलन छेड़ दिया, गौरतलब है कि एक छात्र संगठन के रूप में आसू अंग्रेज़ों के ज़माने से ही अस्तित्व में था, उस समय उसका नाम था अहोम छात्र सम्मेलन, लेकिन 1940 में यह संगठन विभाजित हुआ और 1967 में इन दोनों धड़ों का फिर से विलय हो गया और संगठन का नाम ऑल असम स्टूडेंट्स एसोसिएशन रखा गया, लेकिन फिर इसका नाम बदलकर ऑल असम स्टूडेंट यूनियन या आसू कर दिया गया.

आसू द्वारा चलाये गये आंदोलन को असमिया भाषा बोलने वाले हिंदुओं, मुसलिमों और बहुत से बंगालियों ने भी खुल कर समर्थन दिया, आंदोलन के नेताओं ने यह दावा किया कि राज्य की जनसंख्या का 31 से 34 प्रतिशत भाग बाहर से ग़ैर-कानूनी रूप से आये लोगों का है, उन्होंने केंद्र सरकार से माँग की कि वह बाहरी लोगों को असम आने से रोकने के लिए यहाँ की सीमाओं को सील कर दे, ग़ैर-कानूनी बाहरी लोगों की पहचान करे और उनके नाम को मतदाता सूची से हटाये और जब तक ऐसा न हो असम में कोई चुनाव न कराये.

आंदोलन ने यह माँग भी रखी कि 1961 के बाद राज्य में आने वाले लोगों को उनके मूल राज्य में वापस भेजा जाए या कहीं दूसरी जगह बसाया जाए, इस आंदोलन को इतना ज़ोरदार समर्थन मिला कि 1984 में यहाँ के 16 संसदीय क्षेत्रों से 14 संसदीय क्षेत्रों में चुनाव नहीं हो पाया, 1979 से 1985 के बीच राज्य में राजनीतिक अस्थिरता रही, राष्ट्रपति शासन भी लागू हुआ, लगातार आन्दोलन होते रहे और कई बार इन आंदोलनों ने हिंसक रूप अख्तियार किया, राज्य में अभूतपूर्व जातीय हिंसा की स्थिति पैदा हो गई, लम्बे समय तक समझौता-वार्ता चलने के बावजूद आंदोलन के नेताओं और केंद्र सरकार के बीच कोई सहमति नहीं बन सकी, क्योंकि यह बहुत ही जटिल मुद्दा था, यह तय करना आसान नहीं था कि कौन ‘बाहरी’ या विदेशी है और ऐसे लोगों को कहाँ भेजा जाना चाहिए.

केंद्र सरकार ने 1983 में असम में विधानसभा चुनाव कराने का फ़ैसला किया, लेकिन आंदोलन से जुड़े संगठनों ने इसका बहिष्कार किया, इन चुनावों में बहुत कम वोट डाले गये, जिन क्षेत्रों में असमिया भाषी लोगों का बहुमत था, वहाँ तीन प्रतिशत से भी कम वोट पड़े, राज्य में आदिवासी, भाषाई और साम्प्रदायिक पहचानों के नाम पर ज़बरदस्त हिंसा हुई जिसमें तीन हज़ार से भी ज़्यादा लोग मारे गये.

चुनावों के बाद कांग्रेस पार्टी की सरकार ज़रूर बनी, लेकिन इसे कोई लोकतांत्रिक वैधता हासिल नहीं थी, 1983 की हिंसा के बाद दोनों पक्षों में फिर से समझौता-वार्ता शुरू हुई, 15 अगस्त 1985 को केंद्र की राजीव गाँधी सरकार और आंदोलन के नेताओं के बीच समझौता हुआ जिसे असम समझौते के नाम से जाना गया, इसके तहत 1951 से 1961 के बीच आये सभी लोगों को पूर्ण नागरिकता और वोट देने का अधिकार देने का फ़ैसला किया गया, तय किया कि जो लोग 1971 के बाद असम में आये थे, उन्हें वापस भेज दिया जाएगा.

वहीं 1961 से 1971 के बीच आने वाले लोगों को वोट का अधिकार नहीं दिया गया, लेकिन उन्हें नागरिकता के अन्य सभी अधिकार दिये गये, असम के आर्थिक विकास के लिए पैकेज की भी घोषणा की गयी और यहाँ ऑयल रिफ़ाइनरी, पेपर मिल और तकनीक संस्थान स्थापित करने का फ़ैसला किया गया, केंद्र सरकार ने यह भी फ़ैसला किया कि वह असमिया-भाषी लोगों के सांस्कृतिक, सामाजिक और भाषाई पहचान की सुरक्षा के लिए विशेष कानून और प्रशासनिक उपाय करेगी, इसके बाद, इस समझौते के आधार पर मतदाता-सूची में संशोधन किया गया. 

विधानसभा को भंग करके 1985 में ही चुनाव कराए गये, जिसमें नवगठित असम गण परिषद को बहुमत मिला, पार्टी के नेता प्रफुल्ल कुमार महंत, जो कि आसू के अध्यक्ष भी थे, मुख्यमंत्री बने, उस समय उनकी उम्र केवल 32 वर्ष की थी.

असम-समझौते से वहाँ लम्बे समय से चल रही राजनीतिक अस्थिरता का अंत हुआ, लेकिन 1985 के बाद भी यहाँ एक अलग बोडो राज्य के लिए आंदोलन चलता रहा, इसी तरह भारत से अलग होकर असमिया लोगों के लिए एक अलग राष्ट्र की माँग को लेकर उल्फा का सक्रिय, भूमिगत और हिंसक आंदोलन भी चलता रहा.

असम आंदोलन और असम समझौते के अनुभव से पता चलता है कि बाहरी लोगों को ग़ैर-कानूनी रूप से कहीं बसने से रोकना तो आवश्यक है, लेकिन एक बार जो बस गया उसे हटाना एक बहुत मुश्किल काम है, इसके अलावा पिछली कई पीढ़ियों से राज्य में बस चुके लोगों को सिर्फ़ उनकी धार्मिक या भाषाई पहचान के आधार पर विदेशी का दर्जा देने से एक तरह की कट्टरता को ही प्रोत्साहन मिलता है.

असम आंदोलन के दौरान पहले भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इसे मुसलमानों के ख़िलाफ़ अभियान का रंग देने की कोशिश की थी, उल्लेखनीय है कि जिस मुद्दे को लेकर असम आंदोलन शुरू हुआ था, वह मुद्दा और उससे जुड़ी शिकायतें अभी तक पूरी तरह दूर नहीं हो पायी हैं, इसके अलावा असम के समाज में दूसरी पहचानों के प्रति असहिष्णुता की भावना बढ़ी है, ऐसा सिर्फ़ ‘मुसलमान बंगालियों’ के संदर्भ में ही नहीं हुआ है, बल्कि आदिवासी लोगों की माँगों के ख़िलाफ़ भी एक तरह की कट्टरता पनपी है.

ये तो था इतिहास असम के आन्दोलन का जिसके लिए हज़ारों जाने गई, मगर आप यानि आज की सरकार उनको दे क्या रही है ? घुमा फिराकर झुनझुना यानि NRC भी लागू होगा जो असमिया लोगों की मांग है और CAA भी लागू होगा, जिसमें असम में बाहरी हिंदू तो रहेंगे क्यूं आपको विश्वास है आज नहीं तो कल वो आपके हो जायेंगे, मगर मुस्लिमों को या तो निकालकर वापस करेंगे या वोटों के अधिकार से वंचित कर देंगे, इसमें भी आप अपनी बल्ले बल्ले देख रहे हैं, यानि एक कानून से तो कुछ लोग बाहर दूसरे कानून से निकलने वालों से भी कई गुना असम में ही वो भी पक्की नागरिकता के साथ, कितनी कमाल की बात है, देश और असमी नागरिक सरकार से मांग रहे हैं दूध और सरकार दे रही है मठठा यानि छाछ...?

साहब की टीम ने अपने सामने सब देश वासियों को शायद बेवकूफ़ समझ लिया है, या यूं कहें जो सत्ता में होता है वही अक़्लमंद है बाकी देश बेवकूफ़...?

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