"एस एम फ़रीद भारतीय"
भारत का इतिहास पढ़ लें, जब जब देश के राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां बनी हैं, तब तब देश का मुस्लिम बंटा है और इसका सीधा फ़ायदा संघ की पार्टियों को हुआ है.
इस लिहाज़ से अगर देखा जाये तब मुस्लिमों के बंटवारे वाले वोट ने अपने को उस मुक़ाम पर पहुंचा दिया है जिस मुक़ाम पर आज वो ख़ुद को परेशान और
लाचार महसूस कर रहा है, दूसरा पहलू जिसपर ग़ौर ना किया है और ना अब किया जा रहा है, जब जब मुस्लिमों और दबे कुचले ग़रीब मज़दूरों पर परेशानियां आई हैं तब तब राज्यों की पार्टियों के नेताओं की परछाई भी पीड़ितों के पास आपको दिखाई नहीं देगी, बशर्ते अगर कहीं चुनाव ना हो तो.
तीसरे जो दल अपनी जाति की हिस्सेदारी तय कर सत्ता पर काबिज़ हुए उन्ही ने मुस्लिमों को अपने राज्यों में बराबर वाली हिस्सेदारी से दूर रखा है, इसकी सबसे बड़ी मिसाल यूपी, बिहार और बंगाल को मान सकते हैं, इन राज्यों में मुस्लिमों को संख्या बल पर हिस्सेदारी ना देकर अपनी जात बिरादरी के नेता को मुस्लिम हितैषी बनाकर पेश किया और मुस्लिमों ने हमेशा ही उसे सर आंखों पर बिठाया ही नहीं दिल से अपना नेता माना भी मगर बदले में मुस्लिमों को मिला क्या...?
कभी माया ने भाजपा से हाथ मिलाया तो मुस्लिमों ने अपने को ठगा सा महसूस किया और कभी मुलायम ने भाजपा से हाथ मिलाया तब भी मुस्लिमों ने अपने को ठगा सा तो महसूस किया मगर चुनाव आते आते इनको मांफ़ भी कर दिया.
यही हाल बंगाल का रहा जब ममता ने मुस्लमानों का वोट लेकर भाजपा के साथ सत्ता सुख भोगा और मुस्लमानों को ये समझाती रहीं कि ये वक़्त की ज़रूरत थी, बेशक वक़्त की ज़रूरत थी लेकिन ज़रूरत किसकी थी मुस्लिमों ने इस बारे में कभी किसी से कोई सवाल नहीं किया, जबकि वो ज़रूरत देश की नहीं संघ परिवार की थी जो बड़ी मुश्किल से अपना सारा धन बल लगाकर भी सत्ता तक नहीं पहुंचे थे और अब वो कंगाली की तरफ़ जा रहे थे तब बंगाली ने कंगाली को दूर करने के लिए ज़रूरत को पूरा किया.
मगर इस सबके बदले देश के मुस्लिमों को मिला क्या, कुछ की शहादत कुछ के साथ माली लूट और कुछों के साथ इज़्ज़त और दौलत दोनों की लूटें, तब भी मुस्लिमों ने अपने को सब्र के दायरे में रखा जबकि कोई रहनुमा किसी पार्टी का मुस्लिमों की लड़ाई लड़ने नहीं आया, अगर कोई आया भी तो वो थे नि स्वार्थ मानवाधिकारवादी, जिनमें प्रमुख नाम जस्टिस राजेंद्र सच्चर, आई के गुजराल, प्रशांत भूषण, रवि भूषण, राम जैठमलानी, कुलदीप नैय्यर, अरूण सूरी, वाई पी छिब्बर आदि रहे, मगर इनको शायद मुस्लिम जानते भी नहीं होंगे क्यूंकि इन्होंने वोट की राजनीति नहीं की...!
अभी भी वक़्त है जब मुस्लिम अपने को इस वोट रूपी दलदल से निकालकर देश के हित के लिए खड़ा कर सकता है, रास्ता सीधा है अपना रहबर चुने और अपना ही रहनुमा भी होना चाहिए, दो सीट हों मगर अपने दम पर हों राजनीति करो राजनीति की सीढ़ी बनना बंद करो बस बहुत हो चुका, राजनीति कहती है कि इस राह में सब अपने है भाजपा हो या कांग्रेस सीधे बात करो सहारा क्यूं, क्यूंकि यही नफ़रत के बीज हमको राजनीति से रोककर अंधकार की गहरी खाई में लेजा रहे हैं....!
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