Tuesday, 14 January 2020

मानवाधिकार क्या हैं क्यूं कुचल रही है सरकार...?

"एस एम फ़रीद भारतीय"

गाँधीजी ने व्यापक हड़ताल का आह्वान किया, रोलेट एक्ट गांधीजी के द्वारा किया गया राष्ट्रीय लेवल का प्रथम आंदोलन था, 24 फरवरी 1919 के दिन गांधीजीने मुंबई में एक "सत्याग्रह सभा" का आयोजन किया था और इसी सभा में तय किया गया और कसम ली गई थी की रोलेट एक्ट का विरोध 'सत्य'और 'अहिंसा' के मार्ग पर चलकर किया जाएेगा, गांधीजी के इस सत्य और अहिंसा के मार्ग का विरोध भी कुछ सुधारवादी नेताओं की और से किया गया था, जिसमें सर डी.ई.वादी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, तेज बहादुर सप्रु, श्री निवास शास्त्री जैसे नेता शामिल थे, किन्तु गांधीजी को बड़े पैमाने पर होमरूल लीग के सदस्यों का समर्थन मिला था.

हड़ताल के दौरान दिल्ली आदि कुछ स्थानों पर भारी हिंसा हुई, इस पर गांधी जी ने सत्याग्रह को वापस ले लिया और कहा कि भारत के लोग अभी भी अहिंसा के विषय में दृढ रहने के लिए तैयार नहीं हैं.

13 अप्रैल को सैफुद्दीन किचलू और सत्यपाल की गिरफ्तारी के विरोध में जलियाँवाला बाग में लोगों की भीड़ इकट्ठा हुई, अमृतसर में तैनात फौजी कमांडर जनरल डायर ने उस भीड़ पर अंधाधुंध गोलियाँ चलवाईं, हजारों लोग मारे गए, भीड़ में महिलाएँ और बच्‍चे भी थे, यह घटना ब्रिटिश हुकूमत के काले अध्‍यायों में से एक है जिसे जालियाँवाला बाग हत्याकांड के नाम से जाना जाता है.

तब 10 दिसम्बर 1917 को रॉलेट एक्ट की स्थापना हुई थी, इस समिति के द्वारा लगभग 4 महीनों तक “खोज” की गई और रॉलेट समिति की एक रिपोर्ट में भारत के जाबाज देशभक्तों द्वारा स्वतंत्रता के लिए किये गए बड़े-बड़े और छोटे आतंकपूर्ण कार्यों को बढ़ा-चढ़ाकर, बड़े उग्र रूप में प्रस्तुत किया गया था, नौकरशाही के दमन चक्र, मध्यादेश राज, युद्धकाल में धन एकत्र करने और सिपाहियों की भर्ती में सरकार द्वारा कठोरता बरते जाने के कारण अंग्रेजी शासन के खिलाफ भारतीय जनता में तीव्र असंतोष पनप रहा था, देश भर में उग्रवादी घटनाएं घट रही थीं, इस असंतोष को कुचलने के लिए अंग्रेजी सरकार रौलट एक्ट लेकर आई.

सरकार ने 1916 में न्यायाधीश सिडनी रौलट की अध्यक्षता में एक समिति गठित की, जिसे आतंकवाद को कुचलने के लिए एक प्रभावी योजना का निर्माण करना था, रौलट कमेटी के सुझावों के आधार पर फरवरी 1918 में केंद्रीय विधान परिषद में दो विधेयक पेश किए गए, इनमें से एक विधेयक परिषद के भारतीय सदस्यों के विरोध के बाद भी पास कर दिया गया.

भारत मे नागरिक अधिकार आन्दोलन की शुरुआत स्वतंत्रता के पहले ही हो गई थी वर्ष १९३६ मे सिविल लिबर्टीज यूनियन (सीएलयू) (CLU) का गठन हुआ था इसके गठन मे पंडित जवाहरलाल नेहरू की प्रमुख भूमिका रही पर आजादी मिलने के कुछ वर्षों के भीतर ही सीएलयू (CLU) निष्क्रिय एवं अंततः समाप्त हो गई इसका मुख्य कारण नेहरू एवं अन्य अधिकांश नेताओं का यह खयाल था कि स्वतंत्रता मिल जाने और लोकतांत्रिक संविधान लागू नो जाने के बाद नागरिक अधिकार आन्दोलन की आवश्यकता नही रह गई है.

इसके बाद १९६० के दशक मे कुछ संगठन बने इनमे पश्चिम बंगाल मे एसोसिएशन फार द प्रोटेक्शन आफ डेमोक्रेटिक राइट्स (एपीडीआर) (APDR), आन्ध्र प्रदेश मे आन्ध्र प्रदेश सिविल लिबर्टीज कमेटी (एपीसीएलसी) (APCLC), और पंजाब मे एसोसिएशन फार द डेमोक्रेटिक राइट्स (एएफडीआर) (AFDR), प्रारंभिक है, इन संगठनों ने ग्रामीण इलाको मे दमन और शोषण के मुद्दे उठाए तथा राज्य की शक्ति से संघर्ष भी किया, लेकिन व्यापक रूप से राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकार आन्दोलन को स्वरूप देने एवं राज्य व्यवस्था के वास्तविक चरित्र का खुलासा करने मे इनकी भूमिका सीमित ही रही.

देश मे पहला राष्ट्रीय स्तर का मानवाधिकार संगठन जयप्रकाश नारायण की पहल और प्रेरणा से १९७५ मे बना यह था पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) (PUCL) एंड डेमोक्रेटिक राइट्स (पीयूसीएलडीआर) (PUCLDR) जिसने हर भारतवासी को सम्मान से जीने का अधिकार दिलाया, सैकड़ों कैसों की जांच पीयूसीएल ने कर दोषियों को सज़ा दिलाई, वहीं 1984 कांड के दोषियों को कड़ी सज़ा के लिए कठघरों के पीछे पहुंचाया जो अपने आप में एक मिसाल है.

पीयूसीएल ने देश का कोई ऐसा केस नहीं जो मानवाधिकार हनन से जुड़ा हो और उसके ख़िलाफ़ आवाज़ ना उठाई हो, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन राज्य मानवाधिकार आयोगों का गठन इसी पीयूसीएल ने कराया, देश के सभी मानवाधिकार आयोगों की बुनियाद पीयूसीएल की ही देन है वो महिलाओं के लिए हो, अल्पसंख्यकों के लिए हो या फ़िर दबे कुचलों के लिए.

बाकी ख़ुसासा फिर कभी 
जय हिंद जय भारत

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