Saturday 6 June 2020

असली सैफ़ी कौन...?

सैफ़ी नाम के असल हक़दारों से एक परिचय...?

"एस एम फ़रीद भारतीय"
दाऊदी बोहरा समुदाय की विरासत फ़ातिमी इमामों से जुड़ी है, जो अपने को नबी ए करीम मुहम्मद सल्ललाहु अलेयहि वसल्लम (570-632) के असल वंशज मानते हैं, यह समुदाय मुख्य रूप से इमामों के प्रति ही अपना अक़ीदा (श्रद्धा) रखता है.

सुलेमानी जिन्हें सुन्नी बोहरा भी कहा
जाता हैं, हनफी इस्लामिक क़ानून पर अमल करते हैं, जबकि दाऊदी बोहरा समुदाय इस्माइली शिया समुदाय का उप-समुदाय हैं और दाईम-उल-इस्लाम के क़ायदों को अमल में लाता है.

आम धर्मगुरुओं के मुकाबले सैयदना का अपने समुदाय में एक अलग ही रुतबा है, एक तरह से वे अपने समुदाय के शासक हैं, मुंबई में अपने भव्य और विशाल आवास सैफ़ी महल में अपने विशाल कुनबे के साथ रहते हुए वे हर आधुनिक भौतिक सुविधाओं का तो उपयोग करते हैं, लेकिन अपने सामुदायिक अनुयायियों पर शासन करने के उनके तौर तरीके मध्ययुगीन राजाओं-नवाबों की तरहां ही हैं, उनकी नियुक्ति भी योग्यता के आधार पर या लोकतांत्रिक तरीके से नहीं, बल्कि वंशवादी व्यवस्था के तहत होती है, जो कि इस्लामी उसूलों के अनुरूप नहीं हैं.

बोहरा शिया और सुन्नी दोनों होते हैं, दाऊदी बोहरा शियाओं से समानता रखते हैं, वहीं सुन्नी बोहराहनफी इस्लामिक कानून को मानते हैं, भारत में 20 लाख से ज्यादा बोहरा समुदाय की आबादी है.

दाऊदी बोहरा समुदाय मुख्य रूप से इमामों के प्रति ही अपना अकीदा (श्रद्धा) रखता है, दाऊदी बोहराओं के 21वें और अंतिम इमाम तैयब अबुल कासिम थे, उनके बाद 1132 से आध्यात्मिक गुरुओं की परंपरा शुरू हो गई, जो दाई-अल-मुतलक सैयदना कहलाते हैं, दाई-अल-मुतलक का मतलब होता है-सुपर अथॉरिटी यानी सर्वोच्च सत्ता, जिसके निजाम में कोई भी भीतरी या बाहरी शक्ति दखल नहीं दे सकती या जिसके आदेश-निर्देश को कहीं भी चुनौती नहीं दी जा सकती, सरकार या अदालत के समक्ष भी नहीं.

बोहरा' गुजराती शब्द 'वहौराउ' अर्थात 'व्यापार' का अपभ्रंश है, यह समुदाय मुस्ताली मत का हिस्सा है, जो 11वीं शताब्दी में उत्तरी मिस्र से धर्म प्रचारकों के माध्यम से भारत में आया था, दाऊदी बोहरा समुदाय को आम तौर पर पढ़ा-लिखा, मेहनती, कारोबारी और समृद्ध होने के साथ ही आधुनिक जीवनशैली वाला है लेकिन साथ ही धर्मभीरू समुदाय माना जाता है, अपनी इसी धर्मभीरुता के चलते वह अपने धर्मगुरू के प्रति पूरी तरह समर्पित रहते हुए उनके हर उचित-अनुचित आदेशों का निष्ठापूर्वक पालन करता है.

देश-विदेश में जहां-जहां भी बोहरा धर्मावलंबी बसे हैं, वहां सैयदना की ओर से अपने दूत नियुक्त किए जाते हैं, जिन्हें आमिल कहा जाता है, ये आमिल ही सैयदना के फरमान को अपने समुदाय के लोगों तक पहुंचाते हैं और उस पर अमल भी कराते हैं, स्थानीय स्तर पर सामाजिक और धार्मिक गतिविधियों पर भी इन आमिलों का ही नियंत्रण रहता है, एक निश्चित अवधि के बाद इन आमिलों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर तबादला भी होता रहता है.

बोहरा धर्मगुरू सैयदना की बनाई हुई व्यवस्था के मुताबिक बोहरा समुदाय में हर सामाजिक, धार्मिक, पारिवारिक और व्यावसायिक कार्य के लिए सैयदना की रज़ा (अनुमति) अनिवार्य होती है और यह अनुमति हासिल करने के लिए निर्धारित शुल्क चुकाना होता है.

शादी-ब्याह, बच्चे का नामकरण, विदेश यात्रा, हज, नए कारोबार की शुरुआत, मृतक परिजन का अंतिम संस्कार आदि सभी कुछ सैयदना की अनुमति से और निर्धारित शुल्क चुकाने के बाद ही संभव हो पाता है, यही नहीं, सैयदना के दीदार करने और उनका हाथ अपने सिर पर रखवाने और उनके हाथ चूमने (बोसा लेने) का भी काफी बड़ा शुल्क सैयदना के अनुयायियों को चुकाना होता है.

इसके अलावा समाज के प्रत्येक व्यक्ति को अपनी वार्षिक आमदनी का एक निश्चित हिस्सा दान के रूप में देना होता है, आमिलों के माध्यम से इकट्ठा किया गया यह सारा पैसा सैयदना के खजाने में जमा होता है, बेहिसाब दौलत के मालिक हैं सैयदना दाई-अल-मुतलक यानी सैयदना दाऊदी बोहरों के सर्वोच्च आध्यात्मिक धर्मगुरू ही नहीं बल्कि समुदाय के तमाम सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक और पारमार्थिक ट्रस्टों के मुख्य ट्रस्टी भी होते हैं, इन्हीं ट्रस्टों के ज़रिए समुदाय की तमाम मस्जिदों, मुसाफिरखानों, शैक्षणिक संस्थानों, अस्पतालों, दरगाहों और कब्रिस्तानों का प्रबंधन और नियंत्रण होता है.

इनके ट्रस्टों की कुल संपत्ति पचास हज़ार करोड़ रुपए से अधिक की बताई जाती है, बोहरा समाज के सुधारवादी आंदोलन से जुडे कार्यकर्ताओं का कहना है कि इन ट्रस्टों के आय-व्यय तथा समाज के लोगों से अलग-अलग तरीक़े से जुटाए गए धन का कोई लोकतांत्रिक लेखा-जोखा समाज के लोगों के सामने पेश नहीं किया जाता, जबकि सैय्यदना के समर्थकों का दावा है कि इस पैसे का इस्तेमाल शैक्षणिक संस्थानों और अस्पतालों के संचालन तथा अन्य पारमार्थिक कार्यों में ख़र्च किया जाता है.

इन ट्रस्टों की कुल संपत्ति पचास हजार करोड़ रुपए से अधिक की बताई जाती है, बोहरा समाज के सुधारवादी आंदोलन से जुडे कार्यकर्ताओं का कहना है कि इन ट्रस्टों के आय-व्यय तथा समाज के लोगों से अलग-अलग तरीके जुटाए गए धन का कोई लोकतांत्रिक लेखा-जोखा समाज के लोगों के सामने पेश नहीं किया जाता, जबकि सैयदना के समर्थकों का दावा है कि इस पैसे का इस्तेमाल शैक्षणिक संस्थानों और अस्पतालों के संचालन तथा अन्य पारमार्थिक कार्यों में खर्च किया जाता है.

सैयदना की बनाई हुई व्यवस्था का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति या उसके परिवार की बराअत (सामाजिक बहिष्कार) का फ़रमान सैयदना की ओर से जारी कर दिया जाता है, सैयदना के आदेश के मुताबिक समाज से बहिष्कृत व्यक्ति या परिवार से समाज का कोई भी व्यक्ति किसी भी स्तर पर संबंध नहीं रख सकता, बहिष्कृत व्यक्ति अपने परिवार में या समाज में न तो किसी शादी में शरीक हो सकता है और न ही किसी मय्यत (शवयात्रा) में, बहिष्कृत परिवार में अगर किसी की मृत्यु हो जाए तो उसके शव को बोहरा समुदाय के कब्रस्तान में दफनाने भी नहीं दिया जाता.

भारत में दाऊदी बोहरा मुख्यरूप से गुजरात में सूरत, अहमदाबाद, बडोदरा, जामनगर, राजकोट, नवसारी, दाहोद, गोधरा, महाराष्ट्र में मुंबई, पुणे, नागपुर औरंगाबाद, राजस्थान में उदयपुर, भीलवाड़ा, मध्य प्रदेश में इंदौर, बुरहानपुर, उज्जैन, शाजापुर के अलावा कोलकाता, चेन्नई, बेंगलुरू, और हैदराबाद जैसे महानगरों में भी बसे हैं। पाकिस्तान के सिंध प्रांत के अलावा ब्रिटेन, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, दुबई, मिस्र, इराक, यमन व सऊदी अरब में भी उनकी खासी तादाद है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इंदौर में बोहरा समाज के प्रवचन में हिस्सा लेने पहुंचे थे, उनके साथ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सहित तमाम नेता भी वहां गये थे.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समाजसेवा के क्षेत्र में बोहरा समाज के योगदान को लेकर खूब सराहना की थी, हमने ऊपर बताया है कि आखिर कौन हैं बोहरा समाज, जिनके कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मोदी पहुंचे, यह दूसरा मौका है, जब पीएम मोदी बोहरा मुसलमानों के कार्यक्रम में पहुंचे थे, इससे पहले जब वह गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब इस समाज के कार्यक्रम में पहुंचे थे, मुसलमानों के इस वर्ग का संघ और नरेंद्र मोदी से शुरू ही से गहरा रिश्ता रहा है, कहा जाता है कि गुजरात में सीएम रहते मोदी को इस वर्ग का समर्थन हासिल था, दंगों के बाद कुछ वक़्त के लिए इस तबके में नाराज़गी उभरकर सामने आई थी, मगर बाद में असलियत बताने पर दूर भी हो गई थी. 

अलबत्ता तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ज़रूर 1960 के दशक में गुजरात के सूरत शहर में दाऊदी बोहरा समुदाय के एक शिक्षा संस्थान का उद्घाटन करने गए थे, जहां 51वें सैय्यदना ताहिर सैफ़ुद्दीन से उनकी मुलाक़ात हुई थी, उस मुलाक़ात की तस्वीर को सैय्यदना और उनके निकटतम अनुयायी आज तक प्रचारित करते हैं, मगर असल मैं ये भाजपा और संघ के वफ़ादार हैं.

नये नाम सैफ़ी के सामने आने के बाद, पिछले कुछ वर्षों से सैय्यदना के आदेश पर समाज के प्रत्येक व्यक्ति (नवजात बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक) का सैफ़ी परिचय पत्र तैयार किया जाने लगा है, आधार कार्ड की तर्ज़ पर कंप्यूटर से बनाए जाने वाले इस आईटीएस (इदारतुल तारीफ़ अल शख्सी) कार्ड के ज़रिए ही हर व्यक्ति समाज की मस्जिद, जमाअतख़ाना, मुसाफिरख़ाना, क़ब्रिस्तान आदि स्थानों पर प्रवेश कर सकता है.

इस कार्ड के ज़रिए एक तरह से समाज के हर व्यक्ति की हर सामाजिक गतिविधि की निगरानी की व्यवस्था की जाती है, जिस किसी भी व्यक्ति की कोई भी गतिविधि धर्मगुरू वर्ग की कसौटी पर ज़रा भी संदेहास्पद पाई जाती है, उसका आईटीएस कार्ड ब्लाक कर दिया जाता है, कार्ड ब्लॉक हो जाने पर उस व्यक्ति का समाज की मस्जिद, जमाअतख़ाना, मुसाफ़िरख़ाना क़ब्रिस्तान आदि जगहों पर प्रवेश ख़ुद ही निषिद्ध हो जाता है. 

बोहरा सैय्यदना की ओर से यह किसी व्यक्ति के सामाजिक बहिष्कार की आधुनिक व्यवस्था ईजाद की गई, उदयपुर, मुंबई, पुणे, सूरत, गोधरा आदि शहरों में सैकडों बोहरा परिवार इस समय सामाजिक बहिष्कार के शिकार भी हो चुके हैं.

इस लेख का मक़सद 1975 मैं बने शेख से सैफ़ी समाज को जागरूक करना है, अब सोचना असल सैफ़ी नाम का हक़दार कौन है, नये सैफ़ियों पर कोई भी राजनैतिक पार्टी भरोसा क्यूं नहीं करती और भाजपाई और संघी वोट मांगने क्यूं नहीं जाते, क्यूंकि सैफ़ी बोहरा के सैय्यदना का फ़रमान उनके हक़ मैं जाता है.

अगले लेख मैं शेख से सैफ़ी क्यूं बने इसका खुलासा करने की कोशिश करूंगा, इस लेख मैं कोई भी बात बढ़ा चढ़ाकर नहीं की गई है, जो लिखा है पूर्ण जानकारी के बाद सच लिखा है,
किसी को कुछ कहना या जानना है तब +919808123436 पर व्हाटसऐप या कॉल करें, एस एम फ़रीद भारतीय.

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