एस एम फ़रीद भारतीय
विधायक, प्रधान और पंचायत चुनाव जीतने और इनके अगल बगल रहने वाले मुस्लमानों सुन लो, समझ लो, जो अब हासिल की है जीत वो नहीं, असल मैं मुश्किल मंज़िल तो अब शुरू हुई है, ये इम्तिहान मैं दाख़िला मिला है, यहीं से असल इम्तिहान शुरू होगा...?
देश की सरकार ने ये पद क्यूं शुरू किये हैं ये पद बिना मुनाफ़े के पद है, ये बड़ी ज़िम्मेदारी से निगरानी रखने वाले पद हैं, सरकार को जब लगा कि देश और राज्य की सरकारें जो काम ईमानदारी से जनता की ज़रूरत के लिए करना चाहती हैं उनको कुछ बेईमान होने ही नहीं देते, वजह सही से काम की निगरानी ना होना, तब सोच विचार कर ये नगर व ज़िला पंचायत के पद जारी किये गये, इनका इतिहास क्या है आगे हम आपको बताते हैं.
असल मैं पंचायत का चयन पांच वशिष्ठ लोगों का चुनाव हो है, जो सभी समस्याओं को आसानी से सुलझा सकें, पंचायत ‘महाभारत’ और ‘रामायण’ काल से भी पहले, पंचायत किसी क्षेत्र में चुने पांच प्रतिष्ठित व्यक्तियों की एक निकाय होती थी।इसका निश्चित क्षेत्र एक गाँव हुआ करता था, गाँव इसलिए कि यह एक स्वाभाविक और मूल इकाई थी, गाँव इसलिए भी कि इसके ऊपर की सभी इकाइयों का रूप बदलता रहता।देश और राज्य की सीमाएं बड़ी-छोटी होती रहीं।भाषा और सत्ता के आधार पर देश और राज्य की व्यवस्था में परिवर्तन होता रहा, पर गाँव आज भी एक स्थिर इकाई बना रहा, भौगिलिक एवं सामाजिक दोनों तरह से यह इन सभी बदलावों से अछुता रहा.
पंचायत के पंच के रूप में पांच व्यक्तियों को चुनने के लिए भी एक निश्चित मापदंड था, वे गाँव के ऐसे पांच प्रतिष्ठित व्यक्ति होते जो अपने अलग-अलग गुणों के लिए जाने जाते हों, वे पांच गुणों वाले व्यक्ति होते थे, सोच समझ कर काम करने वाले, दूसरों की रक्षा में हमेशा आगे आने वाले, किसी भी काम को व्यवस्थित ढंग से करने वाले, किसी भी शारीरिक श्रम वाले काम में अधिक रूचि रखने वाले, तथा वे जो घर-गृहस्थी त्याग कर गाँव के बाहर सन्यासी की तरह जीना पसंद करते थे, ऐसे पांच अलग-अलग गुणों वाले बुजुर्ग व्यक्तियों को समाज में आदरभाव से देखा जाता था, ये पंचायत के रूप में गाँव में रहने वाले लोगों के बीच का मतभेद दूर करने, गाँव की रक्षा, गाँव का विकास, समुदायपरक समाधान निकलते जो सबको मान्य होता, मुगलों के शासनकाल तक अनवरत चलती रही, परन्तु अंग्रेजों के आते ही इसमें रुकावट आने लगी, उन्हें इसके स्वायत्त इकाई का स्वरुप बिल्कुल अनुकूल नहीं लगा, अतः इसके साथ उन्होंने छेड़-छाड़ शुरू कर दी.
यह दखलंदाजी इतनी बढ़ गई कि 1786 में ब्रिटिश पार्लियामेंट में, इसके सदस्य लार्ड वर्क ने जो उस समय भारत के गर्वनर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के विरुद्ध भारत में गांव की व्यवस्था तोड़ने का महाभियोग प्रस्ताव ले आए, आगे चलकर इसी गांव स्तर की पंचायत व्यवस्था के विषय में तत्कलीन गर्वनर जनरल मेंटकॉफ़ ने 1830 में ब्रिटिश पार्लियामेंट की जो रिपोर्ट भेजी थी उसमें लिखा, ‘’ग्राम समुदाय छोटे-छोटे गणराज्य है, जो अपने लिए सभी आवश्यक सामग्री की व्यवस्था कर लेते हैं, ये सभी प्रकार के बाहरी दबावों से मुक्त हैं, इनके अधिकारों और प्रबंधों पर कभी कोई हस्तक्षेप नहीं हुआ, एक के बाद एक साम्राज्य आते गए, क्रांतियाँ एवं परिवर्तन हुए पर ग्राम-समुदाय की व्यवस्था उसी तरह बनी रही.
1786 में लार्ड वर्क द्वारा ब्रिटिश पार्लियामेंट में लाये महाभियोग के साथ ही अंग्रेजों ने भारत के गांवों की तोड़ी गई व्यवस्था को कई बार कई तरह के अधिनियम बनाकर ऊपर से जोड़ने के प्रयास किये, इन विफलताओं के कई कारण थे पर सबमें समान कारण था अंग्रेजों की हर स्थिति में नकेल अपने हाथ में रखने की साजिश, स्वायत्त शासन की पहली शर्त होती है स्वनियंत्रित भारत के राज्यों में पंचायत राज संस्थाओं के लिए अभी भी विचारणीय है.
अंग्रेजों के जमाने में क्या हुआ और क्या नहीं यह तो अकादिम विशेषण का विषय है, हमें तो आज की परिस्थतियों का विचार करना है, पर आज जो हो रहा है वह हमारे जीवन के सीधे छूता है, इसलिए वर्तमान में पंचायती व्यवस्था के बारे में जानकारी हमारे लिए उपयोगी एंव लाभकारी है और जरूरी भी बन जाती है.
पंचायती राज ऐक्ट का गठन 1947 में हुआ था जिसके बाद 1949 में पंचायतों की स्थापना हुई थी। हालांकि यूपी में 1994 में 73वां संविधान संशोधन ऐक्ट लागू होते ही यूपी पंचायत राज अधिनियम-1947 और यूपी क्षेत्र पंचायत व जिला पंचायत अधिनियम-1961 में संशोधन कर संवैधानिक व्यवस्था की गई। आरक्षण व्यवस्था लागू की गई थी। इसके बाद राज्य निर्वाचन आयोग का गठन हुआ और फिर 1995 में पहली बार पंचायत चुनाव कराए गए, तीसरा चुनाव 2005 में, चौथा चुनाव 2010 में और पांचवा चुनाव 2015 में संपन्न हुआ था.
1947 में आजादी मिलने के साथ ही राज्यों में अंतरिम सरकार का गठन हुआ, इसके तुरंत बाद सबसे पहले उत्तरप्रदेश में और उसके बाद बिहार में स्थानीय स्वशासन को सशक्त बनाने, गाँव के लोगों की उसमें भागीदारी बढ़ाने कल्याणकारी योजनाओं में गति लाने तथा स्थानीय स्तर पर छोटे-छोटे विवादों के आपस में सुलझाने के उद्देश्य से बिहार पंचयत राज अधिनियम 1947 का गठन हुआ, इस अधिनियम को 1948 में पूरे राज्य में लागू किया गया, इस अधिनियम के अंतर्गत ग्राम पंचायत का कार्यकाल 3 वर्ष, उम्मीदवारों की उम्र सीमा कम से कम 25 वर्ष तथा मतदाताओं की उम्र सीमा 21 वर्ष निर्धारित की गई, बाद में ग्राम पंचायत का कार्यकाल 5 वर्ष उनके उम्मीदवारों की उम्र सीमा कम से कम 21 वर्ष और मतदाताओं की उम्र सीमा कम से कम 18 वर्ष निर्धारित की गई जो आज भी लागू है, संयुक्त बिहार (झारखण्ड सहित) में ग्राम पंचायतों का चुनाव वर्ष 1952, 1955, 1958, 1962, 1965, 1972 एवं 1978 में हुआ.
देश में पंचायत राज को सशक्त बनाने, व्यवस्थित विकास की जिम्मेदारी देने तथा लोकोपयोगी बनाने के लिए राष्ट्र तथा राज्य स्तर पर कई कमिटियों का गठन किया गया, इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण बलवंत राय मेहता कमिटी, अशोक मेहता तथा सिंधवी कमिटी हैं, 1957 में निर्वाचित प्रतिनिधियों को भागीदारी देने तथा प्रशासन की भूमिका केवल कानूनी सलाह देने तक सीमित रखने से सम्बन्धित सुझाव दिए, त्रिस्तरीय पंचायती राज का शुभारम्भ भी यहीं से हुआ, अधिकांश राज्यों ने इसी के आलोक में अपने अधिनियम बनाये.
बिहार में भी त्रिस्तरीय पंचायत राज प्रारंभ करने हुए बिहार पंचायत समिति/ जिला परिषद अधिनियम, 1961 पारित किया यगा क्योंकि बिहार पंचायत राज अधिनियम, 1947 में ग्राम पंचायतों का गठन, कार्य, शक्ति आदि का पहले से ही प्रावधान था.
इन अधिनियमों के तहत सर्वप्रथम भागलपुर में 1964 में त्रिस्तरीय पंचायतों का गठन हुआ, मूल मिलकर आठ जिलों परिषद तथा इन जिलों के 214 प्रखडों में पंचायत समितियों ने कार्य प्रारंभ किया।पंरतु 1976 के बाद चुनाव न होने के करण जिला परिषद एंव पंचायत समितियां स्वतः भंग हो गया, केवल ग्राम पंचायतें ही कार्यरत रहीं, इन दोनों अधिनियमों के अंतर्गत पूरे राज्य में फिर से 1978 में ग्राम पंचायतों, का 1979 में पंचायत समितियों का और 1980 में जिला परिषदों का चुनाव हुआ, ये सभी पंचायतें पांच वर्ष की अवधि पूरी होने के बाद भी बिना चुनाव के बने रहे, ग्राम पंचायत इसलिए बने रहे कि इसके अधिनियम में है वैसा प्रावधान था और पंचायत समिति इसलिए कि सरकार शुरू में अपने अधिकार के उपयोग से और बाद में अधिसूचना के माध्यम से उन्हें जीवन दान देती रही, यह स्थिति माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेशानुसार 24 फरवरी 1997 से समाप्त हुई, तब से लेकर 2001 की चुनाव तक यही स्थिति बनी रही.
पंचायत का वर्तमान स्वरुप 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा गठित सिंधवी कमिटी की देन है, इसी कमिटी की सिफारिशों की पृष्ठभूमि में 73वें संविधान के माध्यम से भारतीय संविधान में पंचायत राज को 1950 में संविधान बनने में एंव लागू होने के समय स्वतः मिल जाना चाहिए था वह 42 वर्षों बाद के संशोधन के माध्यम से 1992 में मिला, यह संशोधन 24 अप्रैल 1993 से पुरे देश में लागू हुआ, इस संशोधन द्वारा पंचायत राज को संवैधानिक दर्जा देने के साथ-साथ सारे देश में इस व्यवस्था में एकरूपता लाने का प्रयास भी शामिल है.
सिंधवी कमिटी ने जो सुझाव दिये वो मुख्य सुझाव इस प्रकार हैं...?
स्थानीय स्वशासन को संविधान द्वारा मान्यता दी जाए.
पंचायतराज को कर लगाने का अधिकार दिया जाए.
वित्तीय व्यवस्था को सक्षम बनाने के लिए स्वतंत्र वित्त आयोग का गठन किया जाए.
पंचायत राज संस्थाओं का नियत समय पर चुनाव कराने हेतु स्वतंत्र निर्वाचन आयोग का गठन किया जाए.
पंचायत राज के रिक्त पदों को छह माह के अंदर चुनाव कराकर भरना आवश्यक किया जाए.
केवल प्रयत्क्ष चुनाव से ही प्रतिनिधियों का चुनाव कराने का प्रावधान किया जाए.
न्याय पंचायत का समावेश किये जाने पर विचार किया जाए.
निर्वाचित प्रतिनिधियों एवं पदधारकों के लिए प्रशिक्षण का प्रावधान किया जाए.
पंचायतराज के निर्वाचित प्रतिनिधियों को सभी विकास कार्यों की जिम्मेवारी सौंपी जाए ताकि ग्रामीण स्तर के सभी कायों पर पंचायत राज संस्थाओं का पूर्ण नियन्त्रण हो.
इस प्रकार पंचायत एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में शुरू होकर बहुत सारे अधिनियमों के दायरों से होते हुए पंचायत राज संस्था के रूप में हमारे सामने है.
संस्था या व्यवस्था तो एक माध्यम मात्र होती है, इसकी सार्थकता तो इसके व्यवहार में होती है, जनता ने जिन्हें चुनना था, चुन लिया, आम जन की भलाई के लिए विकल्पों का चुनाव तो अब चुनाव में जीत कर आये हुए प्रतिनिधियों को करना है.
हमने कहा था कि ये असल इम्तिहान है तब आपको बता दें ये निगरानी के साथ हकूकुल इबाद वाला पद है, जिसको क़ुरआन मैं अल्लाह ने पूरी तफ़्सील ब्यान कर सुनने और मांफ़ करने से मना कर दिया है, ऐसे पदों पर उनकी भी ज़िम्मेदारी होती है जिनको हमने देखा भी नहीं होता, बहुत से यतीम और मासूम नाबालिग होते हैं, तब उनको ख़ुश रखना ही ज़रूरी नहीं बल्कि विकास के नाम पर जो पैसा मिला है उसका पूरी ईमानदारी से ख़र्च होना ज़रूरी है, ये मुस्लमान के लिए बड़ी ज़िम्मेदारी का काम है, अंग्रेजों ने ये सब समझते हुए ही इसमें बदलाव किये थे, उनका मक़सद मोमिन को कमीशन रूपी ना मांफ़ होने वाले गुनाह हकूकुल इबाद का हराम खिलाकर दुआओं की कबूलियत से दूर करना था, विधायक को तो पैसा मिलता है, मगर बाकी पदों पर ऐसा कुछ नहीं यही सोच का विषय है.
हमने बता और समझा दिया अब मानना या मानना अपने हाथ है, रमज़ान के मुक़द्दस महीने मैं वैसे मिली है ये ज़िम्मेदारी, अल्लाह अपना रहम करे.
आमीन.
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