एक ज़माना था जब पत्रकारिता या अपना ही मज़ा हुआ करता था, तब ख़बरों के लिए पाठकों मैं ही नहीं बल्कि पत्रकारों मैं भी एक ज़बरदस्त होड़ लगा करती थी ख़बर सबसे अच्छी मेरी ख़बर हो और लोग ख़बरों की सच्चाई से ही पत्रकार की सच्चाई और ईमानदारी का अंदाज़ा लगाया करते थे, साथ ही कुछ ऐसे चाटूकार पत्रकार भी हुआ करते थे, जो अपने अख़बार मैं किसी नेता, विधायक, मंत्री या अधिकारी की ख़बर के छप जाने पर ख़ुद अपना अख़बार हाथ मैं लेकर उसको बताने और दिखाने ख़ुद जाया करते थे, ऐसे पत्रकारों को चापलूस कहा जाता था.
कुछ पत्रकार ऐसे भी थे जो किसी नेता या बड़े अधिकारी की प्रेसवार्ता मैं अपने बच्चों को भी उंगली पकड़कर ले जाया करते और तब सबकी निगाहें उनकी तरफ़ उठने पर कहते कि ये साहब से मिलने की ज़िद कर रहा था, दूसरा इसको देख साथ चलने की ज़िद करने लगा, तब शक वाली हंसी के साथ मामला शांत हो जाता और उसके बाद शुरूआत होते लगे हुए नाश्ते पर टूट पड़ने की, ऐसे टूटकर पड़ते कि सब कर्मचारी हैरानी से हर बार देखकर इसे पत्रकारवार्ता के बाद अपनी चर्चा का विषय कई दिन तक बनाये रहते.
इसी हालात मैं मैने एक घटना के बाद पत्रकारिता की दुनियां मैं क़दम रखा, इससे पहले मैं सोशलवर्क किया करता था, मालूम तो देखकर बहुत कुछ था मगर खुलकर तब सामने आया जब इस पेशे मैं मैने खुलकर क़दम रखा, उससे पहले कुछ अख़बारों मैं मेरे लेख ही बस छपा करते थे, कभी दहेज पर, कभी शिक्षा और वेश्यावृत्ति पर, तो कभी बाल मज़दूर पर लेख लिखे.
मैने पत्रकारिता कि दुनियां मैं अपने एक अज़ीज़ के कहने पर क़दम रखा, और अल्लाह का करम ये हुआ कि अख़बार भी देश का सबसे बड़ो मैं गिने जाने वाले अख़बारों मैं से एक दा हिंदू से शुरूआत की, मगर कुछ वक़्त बाद इसलिए छोड़ दिया कि अख़बार मैं बड़ी ख़बर को भी सही जगह नहीं मिल पाती थी, तब एक दिल्ली के साऱप्ताहिक मैं बतौर सम्पादक काम मिला, वहां से पत्रकारिता को ठीक से समझने का मौक़ा मिला, और वहीं से मालूम हुआ कि एक हिंदी दैनिक को यूपी मैं ब्यूरो चीफ़ चाहिए बारह पेज का दैनिक था, वहां जाकर मिले कुछ शर्तों के साथ नियुक्ति मिल गई और मेरठ ब्यूरो चीफ़ बनकर गये.
दूसरे ही दिन एक पत्रकारवार्ता थी सीएमओ मेरठ की जानिब से वहां मेरठ ब्यूरो के साथ जाना हुआ, जब हम पहुंचे तब वहां हमारी आमद को दर्ज किया गया वो भी इस ख़ातिर कि मैं प्रदेश ब्यूरो था, ख़ैर बैठे रहे नाश्ता लगाया जा रहा था, हम इंतज़ार मैं प्रेसवार्ता कब शुरू होगी मगर ये क्या प्रेसवार्ता की बजाये, हमारे हाथों मैं लिफ़ाफ़े पकड़ाकर बोला गया कि इनको अपने आफ़िस जाकर खोलें और अब नाश्ता कर लें, सब पत्रकार बड़ी तेज़ी से ये सुनते ही नाश्ते की तरफ़ दौड़े, हमारे मेरठ ब्यूरो ने कहा सर आप भी चलें तब मैने कहा मुझे पान का मज़ा आ रहा है आप जा सकते हैं और ये सब मैं बर्दाश्त नहीं करता.
तब मेरे ब्यूरो ने कहा तब आफ़िस चलते हैं सर ये मुझे भी पसंद नहीं लेकिन अब तक मजबूरी थी, मैने कहा पत्रकारवार्ता का क्या होगा फिर...?
बोले सर इस लिफ़ाफ़े मैं पत्रकारवार्ता ही तो है अब कोई वार्ता नहीं होगी, मैं सोच मैं पड़ गया ये कैसी पत्रकारवार्ता है यार, फिर कहा चलो देखते हैं क्या है, और हम आफ़िस के लिए चल दिये, उस वक़्त मेरे पास बुलेट मोटरसाईकिल हुआ करती थी, जो मेरी जान भी और अपने अलग लुक की वजह से मेरी पहचान भी थी.
ख़ैर आफ़िस आये ब्यूरो से कहा सीएमओ की ख़बर को पहले तैयार करें, मैं भी देखता हुँ आप अपने अंदाज़ मैं लिखें मैं अपने, और जैसे ही मैने लिफ़ाफ़ा खोला तब उसमें प्रेस नोट के साथ एक आधा गांधी जी का नोट भी रखा मिला, यानि पांच सौ रूपया...?
मेरा तो दिमाग़ ही चक रा गया कि ये क्या है यार, ये कहीं भूल से तो नहीं रख दिया गया, तब मैने अपने ब्यूरो से पूंछना चाहा मगर, तभी मेरे दिमाग की घंटी बजी कि अभी चुप रहो, ख़बर तैयार करके लाने दो, तब मैने नीचे जाकर उस नोट की एक फ़ोटो कॉपी तैयार की और अपनी ख़बर को लिखना शुरू किया, मुझे याद है मैने तब हैडिंग लगाया था, " मेरठ सीएमओ की नज़र मैं पत्रकार की कीमत पांच सौ रूपये" सबको एक बराबर तौलते हैं सीएमओ और सरकारी विभाग.
ब्यूरो भी अपनी ख़बर बनाकर लाये हमने उसको मोड़कर लिफ़ाफ़े में रखा और शाबासी देते हुए कहा कि बिल्कुल हक़ अदा करना चाहिए और कहा सुबह ये ख़बर मुख्य पृष्ठ पर सबसे उपर आयेगी, देखकर ख़बर पढ़कर आपकी तबियत ख़ुश हो जायेगी, बस फिर क्या था हमारे ब्यूरो साहब गदगद तुरंत फ़ोन मिलाकर सीएमओ साहब को हमारे हवाले से ख़बर सुना दी और वादा भी कर लिया शाम की चाय पर हमको साथ ले जाने का, हमने कहा पहले ख़बर लगकर आने दो तब कल देखते हैं, सीएमओ साहब हो सकता ख़ुद चलकर आयें.
हमारी ख़बर सुबह सुबह जब सामने आई तो सबसे पहले हमारे ब्यूरोचीफ़ के पैरों से ज़मीन निकल गई, क्यूंकि ख़बर के साथ उस नोट की फ़ोटो भी लगी थी और हमने हुबहू पूरा वाकिया ब्यान किया था जो प्रेसवार्ता के दौरान घटा था, अब क्या था तहलका मच गया, सीएमओ साहब ने ब्यूरो को फ़ोन लगाया और कहा कि यार ये क्या छपा है, कौन है ये आदमी इसने तो सारे मैं तहलका मचा दिया, डीएम साहब के यहां से बुलावा आया है, हमारे ब्यूरो चुप कहें तो क्या कहें, क्यूंकि उनकी भी पोल खुली थी और उनकी क्या सभी पत्रकारों की पोल खुली थी.
आज सोशल मीडिया पर आज देखें ऐसे ऐसे लोग सम्पादक बने बैठे हैं जिनको ख़बर लिखना तो क्या ख़बर को सही से पढ़ना भी नहीं आता, मैं ये किसी को नीचा दिखाने की गरज़ से नहीं कह रह, बल्कि मेरा मक़सद है कि जब ख़बर को आप सही से पढ़ पाओगे तभी समझ भी पाओगे और तभी आप ख़बर को ख़बर का रूप दे सकते हैं...
ऐसे ही दो तीन अख़बारों ने राष्ट्रीय ख़बरों को लोकल की ख़बर मैं तब्दील कर पत्रकारिता को ब्रेक लगा दिया है, पहले अख़बारों मैं एक शहर की ख़बर को कई राज्यों मैं पढ़ा जाता था और आज अपने ज़िले से बाहर की ख़बर ढूंढ़ने से मिलती है, ये सच्चाई है पत्रकारिता के व्यवसायिककरण की ख़बर और अख़बार व्यवसाय बना गया है, सूचना विभाग की मेहरबानी पर अफ़सर जी रहे हैं, अख़बार आज मुख़बिर और जासूस का काम कर रहे हैं, पहले ख़बर इंसाफ़ के लिए और भ्रष्टाचार को रोकने के साथ पोल खोलने के लिए होती थी, और आज दलाली, चापलूसी और मुख़बिर का काम करती है...!
बाकी फिर कभी...!
एस एम फ़रीद भारतीय
लेखक, सम्पादक व
मानवाधिकार सलाहकार
जय हिंद
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