शिया के साथ सैफ़ी भी हुए खुलकर संघ के नुमाइंदे, पहले ही सैफ़ी नाम हमेशा सुर्खियों मैं रहा है, ये नाम चार सौ साल पुराना नाम है जिसको अनजाने मैं शेख कही जाने वाली बिरादरी ने 1975 मैं अपने वजूद और इतिहास को भुलाकर अपनाया, जबकि ये नाम चार सौ साल पुराना नाम है, नाम के असरात इंसान की ज़िंदगी पर नज़र आते हैं ये एक बार फिर से साबित हो चुका है, सैफ़ी नाम बोहरा समाज के लोगों का चार सौ साल पुराना नाम है, जिन्होंने सैफ़ी मस्जिदें, सैफ़ी अस्पताल और सैफ़ी कालोनियों के साथ चार सौ साल मैं ना जाने क्या क्या बनाया है, चलिए निगाह डालते हैं आज और कल के सैफ़ी नाम के हालात पर, उससे पहले आजतक की रिपोर्ट के अनुसार अशफ़ाक सैफ़ी के बारे मैं जान लेते हैं...?
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव से पहले योगी सरकार बीजेपी कार्यकर्ताओं और नेताओं को खुश करने में जुट गई है. ऐसे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आगरा में शाखा लाकर सुर्खियों में आए अशफाक सैफी को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यूपी अल्पसंख्यक आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया है. सैफी ने सोमवार को अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष के तौर पर लखनऊ में पदग्रहण कर लिया है.
आगरा के जगदीशपुरा क्षेत्र के निवासी अशफाक सैफी शुरू से बीजेपी से जुड़े हुए हैं. नब्बे के दशक में राममंदिर आंदोलन के दौरान संघ में शामिल होकर सैफी सुर्खियों में आए थे. इसके चलते मुस्लिम समुदाय के निशाने पर भी आ गए थे, लेकिन न तो उन्होंने बीजेपी से नाता तोड़ा और न ही संघ से अपना प्रेम खत्म किया है. ऐसे में अब योगी सरकार ने अशफाक सैफी को यूपी अल्पसंख्यक आयोग का चेयरमैन बनाया है.
अशफाक सैफी के जरिए आरएएस ने यूपी के मुस्लिम समुदाय को सियासी संदेश देने की कवायद की है कि बीजेपी और संघ मुसलमानों को साथ लेकर चलने के लिए तैयार है. आरएसएस और बीजेपी अपने इस सियासी मकसद में कामयाब हो पाएगी या नहीं यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा. हालांकि, अशफाक सैफी अल्पसंख्यक आयोग का चेयरमैन बनाकर बड़ा सियासी दांव चल दिया है.
अशफाक सैफी राममंदिर आंदोलन के दौरान महज एक बार आरएसएस की शाखा लगाकर नजर में आए थे. इसके बाद बीजेपी से जुड़ गए और पार्टी ने उन्हें वार्ड अध्यक्ष नियुक्त किया था. अशफाक सैफी ने सियासी तौर पर फिर मुड़कर नहीं देखा और भाजपा की जिला एवं शहर स्तर की इकाई में सक्रिय रहे हैं.
अशफाक सैफी बीजेपी के अल्पसंख्यक मंडल से प्रदेश स्तर और राष्ट्रीय संगठन में अपनी जगह बनाई. उनकी सक्रियता को देखते हुए मौलाना आजाद उर्दू अकेडमी का सदस्य भी बना दिया था और बाद में उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी गई. संघ नेता इंद्रेश कुमार के साथ भी अशफाक सैफी के गहरे रिश्ते हैं.
इंद्रेश कुमार जब आगरा आते हैं तो सैफी उनकी खातिरदारी में दिखाई दिए. ऐसा प्रतीत होता है कि सैफी को उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग का चेयरमैन बनाने में इंद्रेश का बहुत बड़ा योगदान रहा होगा. वह बीजेपी के अल्पसंख्यक मोर्चे में विभिन्न पदों पर तैनात रह चुके हैं. अशफाक सैफी पिछले 32 साल से बीजेपी से जुड़े हुए हैं, जिसके चलते पार्टी ने बड़ा तोहफा दिया है.
अशफाक सैफी ने कहा कि भाजपा ने एक छोटे से कार्यकर्ता को इतनी बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है, मैं पूरी ईमानदारी और मेहनत से अल्पसंख्यक वर्ग के हितों की योजनाओं को मूर्त रूप देने का काम करूंगा. मैं अल्पसंख्यक वर्ग के विकास के लिए रोजगार, शिक्षा के लिए काम करूंगा, क्योंकि मुस्लिम समुदाय शिक्षा के स्तर में काफी पीछे है. इसके अलावा मुस्लिम हितों की रक्षा करना हमारी जिम्मेदारी है.
आपको बता दें कि बोहरा शिया और सुन्नी दोनों होते हैं, दाऊदी बोहरा शियाओं से समानता रखते हैं, वहीं सुन्नी बोहरा हनफ़ी इस्लामिक कानून को मानते हैं, भारत में 20 लाख से ज्यादा बोहरा समुदाय की आबादी है, दाऊदी बोहरा समुदाय की विरासत फ़ातिमी इमामों से जुड़ी है, जो अपने को मुहम्मद सअव (570-632) का वंशज मानते हैं, यह समुदाय मुख्य रूप से इमामों के प्रति ही अपना अक़ीदा (श्रद्धा) रखता है.
दाऊदी बोहराओं के 21वें और अंतिम इमाम तैयब अबुल कासिम थे, उनके बाद 1132 से आध्यात्मिक गुरुओं की परंपरा शुरू हो गई, जो दाई-अल-मुतलक सैयदना कहलाते हैं, दाई-अल-मुतलक का मतलब होता है-सुपर अथॉरिटी यानी सर्वोच्च सत्ता, जिसके निजाम में कोई भी भीतरी या बाहरी शक्ति दखल नहीं दे सकती या जिसके आदेश-निर्देश को कहीं भी चुनौती नहीं दी जा सकती, सरकार या अदालत के समक्ष भी नहीं, ये अहम बात है.
सैफ़ी बोहरा समाज के सैय्यदना आम धर्मगुरुओं के मुकाबले सैयदना का अपने समुदाय में एक अलग ही रुतबा है, एक तरह से वे अपने समुदाय के शासक हैं, मुंबई में अपने भव्य और विशाल आवास सैफ़ी महल में अपने विशाल कुनबे के साथ रहते हुए वे हर आधुनिक भौतिक सुविधाओं का तो उपयोग करते हैं, लेकिन अपने सामुदायिक अनुयायियों पर शासन करने के उनके तौर तरीके मध्ययुगीन राजाओं-नवाबों की तरह हैं, उनकी नियुक्ति भी योग्यता के आधार पर या लोकतांत्रिक तरीके से नहीं, बल्कि वंशवादी व्यवस्था के तहत होती है, जो कि इस्लामी उसूलों के अनुरूप नहीं हैं.
बोहरा' गुजराती शब्द 'वहौराउ' अर्थात 'व्यापार' का अपभ्रंश है, यह समुदाय मुस्ताली मत का हिस्सा है, जो 11वीं शताब्दी में उत्तरी मिस्र से धर्म प्रचारकों के माध्यम से भारत में आया था, दाऊदी बोहरा समुदाय को आम तौर पर पढ़ा-लिखा, मेहनती, कारोबारी और समृद्ध होने के साथ ही आधुनिक जीवनशैली वाला है लेकिन साथ ही धर्मभीरू समुदाय माना जाता है, अपनी इसी धर्मभीरुता के चलते वह अपने धर्मगुरू के प्रति पूरी तरह समर्पित रहते हुए उनके हर उचित-अनुचित आदेशों का निष्ठापूर्वक पालन करता है.
देश-विदेश में जहां-जहां भी बोहरा धर्मावलंबी बसे हैं, वहां सैयदना की ओर से अपने दूत नियुक्त किए जाते हैं, जिन्हें आमिल कहा जाता है, ये आमिल ही सैयदना के फरमान को अपने समुदाय के लोगों तक पहुंचाते हैं और उस पर अमल भी कराते हैं, स्थानीय स्तर पर सामाजिक और धार्मिक गतिविधियों पर भी इन आमिलों का ही नियंत्रण रहता है, एक निश्चित अवधि के बाद इन आमिलों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर तबादला भी होता रहता है.
बोहरा सैफ़ी धर्मगुरू सैयदना की बनाई हुई व्यवस्था के मुताबिक बोहरा समुदाय में हर सामाजिक, धार्मिक, पारिवारिक और व्यावसायिक कार्य के लिए सैयदना की रज़ा (अनुमति) अनिवार्य होती है और यह अनुमति हासिल करने के लिए निर्धारित शुल्क चुकाना होता है। शादी-ब्याह, बच्चे का नामकरण, विदेश यात्रा, हज, नए कारोबार की शुरुआत, मृतक परिजन का अंतिम संस्कार आदि सभी कुछ सैयदना की अनुमति से और निर्धारित शुल्क चुकाने के बाद ही संभव हो पाता है। यही नहीं, सैयदना के दीदार करने और उनका हाथ अपने सिर पर रखवाने और उनके हाथ चूमने (बोसा लेने) का भी काफी बडा शुल्क सैयदना के अनुयायियों को चुकाना होता है. इसके अलावा समाज के प्रत्येक व्यक्ति को अपनी वार्षिक आमदनी का एक निश्चित हिस्सा दान के रूप में देना होता है। आमिलों के माध्यम से इकट्ठा किया गया यह सारा पैसा सैयदना के खजाने में जमा होता है.
सैफ़ी बोहरा बेहिसाब दौलत के मालिक हैं सैयदना दाई-अल-मुतलक यानी सैयदना दाऊदी बोहरों के सर्वोच्च आध्यात्मिक धर्मगुरू ही नहीं बल्कि समुदाय के तमाम सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक और पारमार्थिक ट्रस्टों के मुख्य ट्रस्टी भी होते हैं, इन्हीं ट्रस्टों के ज़रिए समुदाय की तमाम मस्जिदों, मुसाफिरखानों, शैक्षणिक संस्थानों, अस्पतालों, दरगाहों और कब्रिस्तानों का प्रबंधन और नियंत्रण होता है, इन ट्रस्टों की कुल संपत्ति करीब अस्सी हजार करोड़ रुपए से अधिक की बताई जाती है.
सैफ़ी बोहरा समाज के सुधारवादी आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं का कहना है कि इन ट्रस्टों के आय-व्यय तथा समाज के लोगों से अलग-अलग तरीके जुटाए गए धन का कोई लोकतांत्रिक लेखा-जोखा समाज के लोगों के सामने पेश नहीं किया जाता, जबकि सैयदना के समर्थकों का दावा है कि इस पैसे का इस्तेमाल शैक्षणिक संस्थानों और अस्पतालों के संचालन तथा अन्य पारमार्थिक कार्यों में खर्च किया जाता है.
सैयदना की बनाई हुई व्यवस्था का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति या उसके परिवार की बराअत (सामाजिक बहिष्कार) का फ़रमान सैयदना की ओर से जारी कर दिया जाता है, सैयदना के आदेश के मुताबिक समाज से बहिष्कृत व्यक्ति या परिवार से समाज का कोई भी व्यक्ति किसी भी स्तर पर संबंध नहीं रख सकता, बहिष्कृत व्यक्ति अपने परिवार में या समाज में न तो किसी शादी में शरीक हो सकता है और न ही किसी मय्यत (शवयात्रा) में, बहिष्कृत परिवार में अगर किसी की मृत्यु हो जाए तो उसके शव को बोहरा समुदाय के कब्रिस्तान में दफनाने भी नहीं दिया जाता.
भारत में दाऊदी बोहरा सैफ़ी मुख्यत: गुजरात में सूरत, अहमदाबाद, बडोदरा, जामनगर, राजकोट, नवसारी, दाहोद, गोधरा, महाराष्ट्र में मुंबई, पुणे, नागपुर औरंगाबाद, राजस्थान में उदयपुर, भीलवाड़ा, मध्य प्रदेश में इंदौर, बुरहानपुर, उज्जैन, शाजापुर के अलावा कोलकाता, चेन्नई, बेंगलुरू, और हैदराबाद जैसे महानगरों में भी बसे हैं, पाकिस्तान के सिंध प्रांत के अलावा ब्रिटेन, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, दुबई, मिस्र, इराक, यमन व सऊदी अरब में भी उनकी खासी तादाद है.
मौजूदा सैय्यदना के परिवार के सदस्यों ने ही उनके सैय्यदना बनने को बॉम्बे हाई कोर्ट में चुनौती दे रखी है. मौजूदा सैय्यदना मुफ़द्दल सैफ़ुद्दीन के पिता डॉ. मोहम्मद बुरहानुद्दीन 52वें सैय्यदना थे. परंपरा के मुताबिक़ उन्हें ही अपना उत्तराधिकारी तय करना था लेकिन 2012 में अचानक गंभीर रूप से बीमार होकर कोमा में चले जाने की वजह से वे अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति नहीं कर पाए थे, लेकिन उन्होंने अपने छोटे भाई खुजेमा क़ुतुबुद्दीन को माजूम यानी अपना नायब बहुत पहले ही नियुक्त कर दिया था.
खुजेमा क़ुतुबुद्दीन के छोटे बेटे अब्दुल अली के मुताबिक़ डॉ. मोहम्मद बुरहानुद्दीन ने 1965 में सैय्यदना का पद संभालने के महज़ 28 दिन बाद ही अपने भाई खुजेमा क़ुतुबुद्दीन को अपना माजूम नियुक्त कर दिया था. बताया जाता है कि अगर सैय्यदना औपचारिक तौर अपने उत्तराधिकारी के नाम का ऐलान किए बग़ैर ही इंतक़ाल फ़रमा जाते हैं तो ऐसी स्थिति में उनके माजूम को ही अगला सैय्यदना मान लिया जाता है लेकिन फ़रवरी 2014 में 52वें सैय्यदना डॉ. बुरहानुद्दीन की मौत के बाद ऐसा नहीं हुआ. उनके बेटे मुफ़द्दल सैफ़ुद्दीन ने अपने चाचा के दावे को नज़रअंदाज़ कर अपने पिता का उत्तराधिकार संभालते हुए ख़ुद को 53वां सैय्यदना घोषित कर दिया.
पिछले कुछ वर्षों से नये सैफ़ी नाम (जो शेख से सैफ़ी ने) के वजूद मैं आने पर सैय्यदना के आदेश पर समाज के प्रत्येक व्यक्ति (नवजात बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक) का परिचय पत्र तैयार किया जाने लगा है. आधार कार्ड की तर्ज़ पर कंप्यूटर से बनाए जाने वाले इस आईटीएस (इदारतुल तारीफ़ अल शख्सी) कार्ड के ज़रिए ही हर व्यक्ति समाज की मस्जिद, जमाअतख़ाना, मुसाफिरख़ाना, क़ब्रिस्तान आदि स्थानों पर प्रवेश कर सकता है.
इस कार्ड के ज़रिए एक तरह से समाज के हर व्यक्ति की हर सामाजिक गतिविधि की निगरानी की व्यवस्था की गई है. जिस किसी भी व्यक्ति की कोई भी गतिविधि धर्मगुरू वर्ग की कसौटी पर ज़रा भी संदेहास्पद पाई जाती है, उसका आईटीएस कार्ड ब्लाक कर दिया जाता है. कार्ड ब्लॉक हो जाने पर उस व्यक्ति का समाज की मस्जिद, जमाअतख़ाना, मुसाफ़िरख़ाना क़ब्रिस्तान आदि जगहों पर प्रवेश स्वत: ही निषिद्ध हो जाता है.
सैय्यदना की ओर से यह किसी व्यक्ति के सामाजिक बहिष्कार की आधुनिक व्यवस्था ईजाद की गई. उदयपुर, मुंबई, पुणे, सूरत, गोधरा आदि शहरों में सैकडों बोहरा परिवार इस समय सामाजिक बहिष्कार के शिकार हैं.
1539 के बाद जब भारत में इस समुदाय का विस्तार हो गया तो ये लोग अपना मुख्यालय यमन से भारत के सिद्धपुर (गुजरात) में ले आए. 1588 में 30वें सैय्यदना की मृत्यु के बाद उनके वंशज दाऊद बिन कुतुब शाह और सुलेमान शाह के बीच सैय्यदना की पदवी और गद्दी पर दावेदारी को लेकर मतभेद हो गया, जिससे दो मत क़ायम हो गए और दोनों के अनुयायियों में भी विभाजन हो गया.
दाऊद बिन कुतुब शाह को मानने वाले दाऊदी बोहरा और सुलेमान को मानने वाले सुलेमानी बोहरा कहलाने लगे, सुलेमानी बोहरा संख्या में दाऊदी बोहरों के मुक़ाबले बेहद कम थे और उनके प्रमुख धर्मगुरू ने कुछ समय बाद अपना मुख्यालय यमन में क़ायम कर लिया और दाऊदी बोहरों के धर्मगुरू का मुख्यालय मुंबई में क़ायम हो गया.
बताया जाता है कि दाऊदी बोहरों के 46वें धर्मगुरू के समय इस समुदाय में भी विभाजन हुआ तथा दो अन्य शाखाएं क़ायम हो गईं. इस समय भारत में बोहरा समुदाय की कुल आबादी लगभग 20 लाख है, जिसमें 12 लाख से ज्यादा दाऊदी बोहरा हैं, तथा शेष आठ लाख में अन्य शाखाओं के बोहरा शामिल हैं.
दो मतों में विभाजित होने के बावजूद दाऊदी और सुलेमानी बोहरों के धार्मिक सिद्धांतों में कोई ख़ास बुनियादी फ़र्क़ नहीं है. दोनों समुदाय सूफियों और मज़ारों पर ख़ास आस्था रखते हैं.
सुलेमानी जिन्हें सुन्नी बोहरा भी कहा जाता हैं, हनफी इस्लामिक क़ानून पर अमल करते हैं, जबकि दाऊदी बोहरा समुदाय इस्माइली शिया समुदाय का उप-समुदाय हैं और दाईम-उल-इस्लाम के क़ायदों को अमल में लाता है.
सैफ़ी नाम इन्ही बोहराओं का कारोबारी नाम है और ये अपने को अब अपनी पहचान के साथ जीना सिखाने की एक कामयाब कोशिश कर रहे हैं, एक वो सैफ़ी समाज है जो अपने हज़ारों साल के वजूद को मिटाकर 1975 मै सैफ़ी बना और आज तक अपने नाम को ऊंचा करने की लड़ाई लड़ रहा है, इस सैफ़ी समाज मै आज सैंकड़ों राष्ट्रीय अध्यक्ष पैदा हो चुके हैं, सभी अपने को एक दूसरे से ऊंचा ये कहते हुए मानते हैं कि हम अपने समाज मैं एकता पैदा करना चाहते हैं, कैसी एकता सब सभी के सामने है...
कोई सवाल हो तो शालीनता के साथ करें...!
पढ़ने के लिए शुक्रिया
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