Thursday 16 September 2021

NEWS 18 ने हिंदी ने BBC और The Mirar के हवाले से लिखा है...?

एस एम फ़रीद भारतीय 
द मिरर की रिपोर्ट के मुताबिक, अफगानिस्तान में एक बार फिर तालिबान के क्रूर सजा के तरीके देखने को मिल सकते हैं. इसमें पत्थर से कूचने, हाथ और पैर काट देना और सरेआम फांसी पर लटकाना शामिल है. ये सभी तरीके फिर से अफगानिस्तान में लौट सकते हैं. देश में अभी सत्ता पर काबिज सरकार कभी भी गिर सकती है. देश के राष्ट्रपति अशरफ घानी देश छोड़कर जा चुके हैं. मीडिया से बातचीत करते हुए एक तालिबानी ने बताया कि अब वो अफगानिस्तान से नहीं लौटेंगे. साथ ही जो भी उनके काम में अड़ंगा लगाएगा, उसे खौफनाक सजा दी जाएगी.

शरिया कानून के तहत देंगे सजा BBC से बातचीत करते हुए तालिबानी सुहैल शाहीन ने बताया कि देश में अब शरिया कानून माना जाएगा. यही इस्लाम का असली कानून है. इसमें जो भी बातें लिखी गई है, उसे मानना जरुरी है. अगर कोई इसे ना माने तो उसे सजा भी कानून में लिखी बातों के हिसाब से दी जाएगी. हालांकि, शाहीन ने बताया कि तालिबान लड़कियों को शिक्षा देने पर जोर देगा. साथ ही उन्हें काम करने की भी आजादी होगी.

महिलाओं के लिए बदतर होंगे हालात जहां तालिबानी आतंकी बच्चियों और महिलाओं को हक़ देने की बात कह रहे हैं, वहीं BBC ने ग्राउंड रिपोर्टिंग में पता किया है कि वहां तालिबानियों ने महिलाओं को घर से अकेले ना निकलने, और बैंक में काम करने वाली महिलाओं को नौकरी छोड़ने का आदेश दिया है. अफगानिस्तान में 1996 तक तालिबानियों का राज था. उस समय किसी को तालिबान क्रूर सजा देकर मौत के घाट उतार देता था. अब एक बार फिर हालात वैसे ही बनते जा रहे हैं.

इन ख़बरों और रिपोर्टों के बाद कई सवाल पैदा हो जाते हैं, पहला ये कि अफ़ग़ानिस्तान अकेला मुल्क नहीं है जो दुनियां मैं पहला शरई कानून लागू किया हो, कई और भी मुल्क हैं जहां शरई कानून सख़्ती से लागू किये जाते हैं, जैसे सऊदी अरब और सऊदी अरब के कानून की वजह से शरई कानून को अरबी कानून कहा जाता है, जबकि है वहां भी शरई कानून ही.

बलिया (भाषा)। अपने विवादित बयानों के लिये अक्सर चर्चा में रहने वाले भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ ने शरई कानूनों में अदालतों के जरिये दखलंदाजी पर आपत्ति दर्ज कराने वाले ऑल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड पर तीखा हमला किया है, योगी आदित्यनाथ ने कहा कि ऐसा कहने वालों को शरीयत कानून से चलने वाले देश में चले जाना चाहिये.

उन्होंने कहा कि अदालतों के जरिये शरीयत में हस्तक्षेप के आरोप वाला बोर्ड का बयान दरअसल न्यायालय की अवमानना के दायरे में आता है, मालूम हो कि ऑल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने आरोप लगाया था कि अदालतों के जरिये मुस्लिम पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप किया जा रहा है और वह केंद्र से अपील करता है कि शरई कानून का अस्तित्व बनाये रखने के पिछली सरकारों के रुख पर कायम रहा जाए.

बोर्ड के सदस्य जफरयाब जीलानी ने बोर्ड की कार्यकारिणी समिति की बैठक के बाद आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में कहा था कि अदालतों के जरिये पर्सनल लॉ में दखलंदाजी की जा रही है, उच्चतम न्यायालय में हाल में तलाक के एक मामले समेत कई प्रकरण आये हैं, उन्होंने कहा था कि बोर्ड की सरकार से अपील है कि शरीयत में किसी तरह का हस्तक्षेप ना हो.

शरीयत जिसे शरीया कानून, इस्लामी कानून या अरबी कानून भी कहा जाता है, इस कानून की परिभाषा दो स्रोतों से होती है, पहली इस्लाम का पन्थग्रन्थ क़ुरआन है और दूसरा इस्लाम के पैग़म्बर मुहम्मद सल्ललाहो अलेयहि वसल्लम द्वारा दी गई मिसालें हैं (जिन्हें सुन्नाह कहा जाता है), इस्लामी कानून को बनाने के लिए इन दो स्रोतों को ध्यान से देखकर नियम बनाए जाते हैं, इस कानून बनाने की प्रक्रिया को 'फ़िक़्ह' कहा जाता है, शरीयत में बहुत से विषयों पर मत है, जैसे कि स्वास्थ्य, खानपान, पूजा विधि, व्रत विधि, विवाह, जुर्म, राजनीति, अर्थव्यवस्था इत्यादि.

फ़िक़्ह इस्लामी धर्मशास्त्र (मज़हबी तौर-तरीके) को कहा जाता है, फ़िक़्ह मुसलमानों के लिये इस्लामी जीवन के हर पहलू पर अपना असर रखता है, जबकि शरियत उस समुच्चय निति को कहते हैं, जो इस्लामी कानूनी, परंपराओं और इस्लामी व्यक्तिगत और नैतिक आचरणों पर आधारित होती है.

मुसलमान यह तो मानते हैं कि शरीयत अल्लाह का कानून है लेकिन उनमें इस बात को लेकर बहुत अन्तर है कि यह कानून कैसे परिभाषित और लागू होना चाहिए, सुन्नी समुदाय में चार भिन्न फ़िक़्ह के नजरिये हैं और शिया समुदाय में दो, अलग देशों, समुदायों और संस्कृतियों में भी शरीयत को अलग-अलग ढँगों से समझा जाता है, शरीयत के अनुसार न्याय करने वाले पारम्परिक न्यायाधीशों को 'काज़ी' कहा जाता है, कुछ स्थानों पर 'इमाम' भी न्यायाधीशों का काम करते हैं लेकिन अन्य जगहों पर उनका काम केवल अध्ययन करना-कराना और पान्थिक नेता होना है, इस्लाम के अनुयायियों के लिए शरीयत इस्लामी समाज में रहने के तौर-तरीकों, नियमों के रूप में कानून की भूमिका निभाता है, पूरा इस्लामी समाज इसी शरीयत कानून या शरीयत कानून के अनुसार से चलता है.

इस्लामी न्यायशास्त्र का इतिहास "प्रथानुसार आठ अवधियों में विभाजित" किया गया है.

11 हिजरी में मुहम्मद सलल्ललाहो अलेयहि वसल्लम की वफ़ात के साथ समाप्त होने वाली पहली अवधि, दूसरी अवधि में "निजी व्याख्याओं द्वारा वर्णित" सहाबा द्वारा कैनन, 50 हिज़्री तक चली, 50 हिजरी से प्रारंभिक दूसरी हिजरी शताब्दी तक एक प्रतिस्पर्धा थी पश्चिमी अरबिया में "न्यायशास्त्र के प्रति परंपरावादी रुझान" और ईराक में "न्यायशास्त्र के प्रति तर्कवादी रुझान", प्रारंभिक द्वितीय से मध्य-चौथी सदी जब शिया और सुन्नी आठ "सबसे महत्वपूर्ण" न्यायशास्र के स्कूल प्रकट हुए, चौथी के मध्य शताब्दी से लेकर सातवीं के मध्य हिजरी तक इस्लामी न्यायशास्त्र "मुख्य न्यायिक स्कूलों के अंदर विस्तारण" तक ही सीमित था, मध्य-सातवीं हिजरी (1258 ई) से 293 हिजरी / 1876 ई में "अंधेरे युग" बगदाद के पतन के बाद इस्लामी न्यायशास्त्र अधिक फैला, 1293 हिजरी (1876 सीई) में तुर्कों ने हनफ़ी न्यायशास्त्र को संहिताबद्ध किया.

महत्वता के क्रम में फ़िक़्ह के मुख्य स्रोत हैं, क़ुरआन, सहीह हदीसें, इज्मा, अर्थात् एक ख़ास पीढ़ी (जनरेशन) के अधिकृत मुसलमानों से मिलकर सामूहिक तर्क और सहमति, और इस्लामिक विद्वानों द्वारा इसकी व्याख्या,
क़ियास, यानी समानताएं जो तैनात की गई हैं अगर इस मुद्दे पर इज्मा या ऐतिहासिक सामूहिक तर्क उपलब्ध नहीं है.

क़ुरआन कई मुद्दों पर स्पष्ट निर्देश देता है जैसे कि अनिवार्य दैनिक प्रार्थना (नमाज़) से पहले शुद्धिकरण अनुष्ठान (वुज़ू) कैसे करें, लेकिन अन्य मुद्दों पर, कुछ मुसलमानों का मानना हैं कि अकेले क़ुरआन ही चीजें स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं, उदाहरण के लिए, क़ुरआन के अनुसार— रमज़ान के महीने के दौरान, दैनिक प्रार्थनाएं (नमाज़ ) और उपवास (सौम ) में संलग्न (मुलवविस) होने की ज़रूरत है लेकिन मुसलमानों का मानना ​​है कि इन कर्तव्यों का पालन करने के तरीके के बारे में उन्हें और हिदायत की आवश्यकता है, इन मुद्दों के बारे में स्पष्टीकरण पैग़ंबर मुहम्मद की परंपराओं में पाया जा सकता है, इसलिए अधिकांश मामलों में दलीलें क़ुरआन और सून्नत (शरियत ) का आधार हैं.

इस्लाम के प्रारंभिक काल में कुछ विषय बिना मिसाल के हैं उन मामलों में, मुसलमान न्यायविद (फ़ुक़ाहा ) अन्य तरीकों से निष्कर्ष पर पहुंचने का प्रयास करते हैं, सुन्नी न्यायविद समुदाय की ऐतिहासिक सहमति (इज्मा ) का प्रयोग करते हैं, आधुनिक युग में अधिकांश न्यायविद भी सादृश्य (क़ियास ) और नए विषयों के नफ़ा और नुक़सान की तुलना (इस्तिसलाह ) का उपयोग करते हैं, इन अतिरिक्त उपकरणों की सहायता से निष्कर्ष आने पर शरिया के हिसाब से कानूनों की एक व्यापक सरणी बनती है और इसे फ़िक़्ह कहा जाता है.

इस प्रकार, शरीयत के सामने, फिक़्ह को पवित्र नहीं माना जाता है, और 'विचार-प्रक्रिया के विद्यालयों' के तफ़सीलात पर अन्य निष्कर्षों को पवित्रतापूर्ण रूप में बिना देखे ही असमान विचार हैं, अधिक विस्तृत मुद्दों में व्याख्या के यह विभाजन विचार-प्रक्रिया के विभिन्न स्कूलों में परिणामस्वरूप मिला है (मज़हब ) इस्लामी न्यायशास्त्र की यह व्यापक अवधारणा विभिन्न विषयों में कई कानूनों का स्रोत है जो रोजमर्रा की जिंदगी में मुसलमानों को निर्देशित करता है.

शरियत की निति को नींव बना कर न्यायशास्त्र के अध्य्यन को फ़िक़्ह या फ़िक़ह कहते हैं। फ़िक़्ह के मामले में इस्लामी विद्वानों की अलग अलग व्याख्याओं (तजवीज़) के कारण इस्लाम में न्यायशास्त्र कई भागों में बट गया और कई अलग अलग न्यायशास्त्र से संबंधित विचारधारओं का जन्म हुआ। इन्हें मज़हब कहते हैं, सुन्नी इस्लाम में प्रमुख मज़हब माना जाता है.

हनफी मज़हब– इसके अनुयायी दक्षिण एशिया और मध्य एशिया में हैं, मालिकी मज़हब–इसके अनुयायी पश्चिम अफ्रीका और अरब के कुछ हिस्सों में हैं, शाफई मज़हब– इसके अनुयायी अफ्रीका पूर्वी अफ्रीका, अरब के कुछ हिस्सों और दक्षिण पूर्व एशिया में हैं, हंबली मज़हब– इसके अनुयायी सऊदी अरब में हैं, अधिकतम मुसलमानों का मानना है कि चारों मज़हब बुनियादी तौर पर सही हैं और इनमें जो मतभेद हैं वह न्यायशास्त्र (फ़िक़्ह) की बारीक व्याख्याओं को लेकर है.

इस लेख मैं ये समझने और समझाने की कोशिश की गई है कि ईसाई और यहूदियों को नफ़रत आम मुस्लिमों से नहीं है, आम से मुराद है आधुनिक मुस्लिम, बल्कि उनको नफ़रत है मुस्लिम आलिमों के साथ इस्लामी कानून को सख़्ती से लागू करने वाले इस्लामी विद्वानों से, क्यूं ये नहीं चाहते कि दुनियां पूरी ईमानदारी और भाई चारे से काम करे, ये चाहते हैं कि चोरी करने वाला चोरी करे और हम उसको गैंग बनाकर काम करने की इजाज़त दे, अब पूंछों इनसे चोरी, डकैती, लूट, बलात्कार, हत्या और धोखा आदि देना जुर्म है या नहीं, सवाल का जवाब बिल्कुल जुर्म है और इन सभी जुर्मों पर कानून मौजूद हैं.

जब आप अपने कानून को लागू कर सकते हैं तब जो कानून ईश्वर ने अपनी आख़िरी किताब क़ुरआन मैं बताया है उसपर अमल क्यूं नहीं करते, क्यूं नये कानूनों की आड़ मैं जुर्मों को बढ़ावा देकर इंसाफ़ का नाटक करते हो, शरई कानून एक सज़ा के साथ बाकी को जुर्म करने से रोकने वाला डर ही तो है, यही वजह है जहां शरई कानून लागू हैं वहां जुर्म कम हैं.

अब हमारे भारत की ही मिसाल ले लो बलात्कार को लेकर कितने धरने प्रदर्शन हुए यहां तक कि मौजूदा सरकार उसी बलात्कार को मुद्दा बनाकर सत्ता पर काबिज़ हुई और आज जो कल विपक्ष मैं रहकर बलात्कार पर सख़्त कानून बनाने की बात किया करते थे आज उनपर बलात्कारियों का मददगार कहा जाता है, कल ता विपक्ष आज सत्ता मैं है और कल के सत्ताधीश विपक्ष मैं, ये सब एक खेल है, क्यूंकि पश्चिम वालों ने इस्लाम और इस्लामी कानून के इंसाफ़ के बीच मानवाधिकार को लाकर खड़ा कर दिया है, ये लोकतंत्र की दुहाई तो देते हैं मगर लोकतंत्र कैसा होना चाहिए इसपर कभी ग़ौर नहीं करते, यानि अपने बचाओ मैं कानून को ये लोकतंत्र कहते हैं.


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