एस एम फ़रीद भारतीय
गांधी १९१५ में दक्षिण अफ्रीका से भारत में रहने के लिए लौट आए, उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशनों पर अपने विचार व्यक्त किए, लेकिन उनके विचार भारत के मुख्य मुद्दों, राजनीति तथा उस समय के कांग्रेस दल के प्रमुख भारतीय नेता गोपाल कृष्ण गोखले पर ही आधारित थे जो एक सम्मानित नेता थे.
सबसे पहले गान्धी जी ने प्रवासी वकील के रूप में दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय के लोगों के नागरिक अधिकारों के लिये संघर्ष हेतु सत्याग्रह करना आरम्भ किया। 1915 में उनकी भारत वापसी हुई, उसके बाद उन्होंने यहाँ के किसानों, श्रमिकों और नगरीय श्रमिकों को अत्यधिक भूमि कर और भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाने के लिये एकजुट किया, 1921 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बागडोर संभालने के बाद उन्होंने देशभर में दरिद्रता से मुक्ति दिलाने, महिलाओं के अधिकारों का विस्तार, धार्मिक एवं जातीय एकता का निर्माण व आत्मनिर्भरता के लिये अस्पृश्यता के विरोध में अनेकों कार्यक्रम चलाये। इन सबमें
विदेशी राज से मुक्ति दिलाने वाला स्वराज की प्राप्ति वाला कार्यक्रम ही प्रमुख था.
गाँधी जी ने ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों पर लगाये गये लवण कर के विरोध में 1930 में नमक सत्याग्रह और इसके बाद 1942 में अंग्रेजो भारत छोड़ो आन्दोलन से विशेष विख्याति प्राप्त की, दक्षिण अफ्रीका और भारत में विभिन्न अवसरों पर कई वर्षों तक उन्हें कारागृह में भी रहना पड़ा, गांधी जी ने सभी परिस्थितियों में अहिंसा और सत्य का पालन किया और सभी को इनका पालन करने के लिये वकालत भी की, उन्होंने साबरमती आश्रम में अपना जीवन बिताया और परम्परागत भारतीय पोशाक धोती व सूत से बनी शाल पहनी जिसे वे स्वयं चरखे पर सूत कातकर हाथ से बनाते थे, उन्होंने सादा शाकाहारी भोजन खाया और आत्मशुद्धि के लिये लम्बे-लम्बे उपवास रखे.
सावरकर पर शोध करने वाले निरंजन तकले बताते हैं, "1910 में नासिक के ज़िला कलेक्टर जैकसन की हत्या के आरोप में पहले सावरकर के भाई को गिरफ़्तार किया गया था."
"सावरकर पर आरोप था कि उन्होंने लंदन से अपने भाई को एक पिस्टल भेजी थी, जिसका हत्या में इस्तेमाल किया गया था. 'एसएस मौर्य' नाम के पानी के जहाज़ से उन्हें भारत लाया जा रहा था. जब वो जहाज़ फ़ाँस के मार्से बंदरगाह पर 'एंकर' हुआ तो सावरकर जहाज़ के शौचालय के 'पोर्ट होल' से बीच समुद्र में कूद गए."
अपने राजनीतिक विचारों के लिए सावरकर को पुणे के फरग्यूसन कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया था. साल 1910 में उन्हें नासिक के कलेक्टर की हत्या में संलिप्त होने के आरोप में लंदन में गिरफ़्तार कर लिया गया था.
सावरकर की जीवनी 'ब्रेवहार्ट सावरकर' लिखने वाले आशुतोष देशमुख इसके आगे की कहानी बताते हैं. वो कहते हैं, "सावरकर ने जानबूझ कर अपना नाइट गाउन पहन रखा था. शौचालय में शीशे लगे हुए थे ताकि अंदर गए क़ैदी पर नज़र रखी जा सके. सावरकर ने अपना गाउन उतार कर उससे शीशे को ढ़क दिया."
"उन्होंने पहले से ही शौचालय के 'पोर्ट होल' को नाप लिया था और उन्हें अंदाज़ा था कि वो उसके ज़रिए बाहर निकल सकते हैं. उन्होंने अपने दुबले-पतले शरीर को पोर्ट-होल से नीचे उतारा और बीच समुद्र में कूद गए."
देशमुख आगे लिखते हैं, "तैरने के दौरान सावरकर को चोट लगी और उनका ख़ून बहने लगा. सुरक्षाकर्मी भी समुद्र में कूद गए और तैर कर उनका पीछा करने लगे."
"सावरकर करीब 15 मिनट तैर कर तट पर पहुंच गए. तट रपटीला था. पहली बार तो वो फिसले लेकिन दूसरे प्रयास में वो ज़मीन पर पहुंच गए. वो तेज़ी से दौड़ने लगे और एक मिनट में उन्होंने करीब 450 मीटर का फ़ासला तय किया." "उनके दोनों तरफ़ ट्रामें और कारें दौड़ रही थीं. सावरकर क़रीब क़रीब नंगे थे. तभी उन्हें एक पुलिसवाला दिखाई दिया. वो उसके पास जा कर अंग्रेज़ी में बोले, 'मुझे राजनीतिक शरण के लिए मैजिस्ट्रेट के पास ले चलो.' तभी उनके पीछे दौड़ रहे सुरक्षाकर्मी चिल्लाए, 'चोर! चोर! पकड़ो उसे.' सावरकर ने बहुत प्रतिरोध किया, लेकिन कई लोगों ने मिल कर उन्हें पकड़ ही लिया."
इस तरह सावरकर की कुछ मिनटों की आज़ादी ख़त्म हो गई और अगले 25 सालों तक वो किसी न किसी रूप में अंग्रेज़ों के क़ैदी रहे, उन्हें 25-25 साल की दो अलग-अलग सजाएं सुनाई गईं और सज़ा काटने के लिए भारत से दूर अंडमान यानी 'काला पानी' भेज दिया गया, उन्हें 698 कमरों की सेल्युलर जेल में 13.5 गुणा 7.5 फ़ीट की कोठरी नंबर 52 में रखा गया, वहाँ के जेल जीवन का ज़िक्र करते हुए आशुतोष देशमुख, वीर सावरकर की जीवनी में लिखते हैं, "अंडमान में सरकारी अफ़सर बग्घी में चलते थे और राजनीतिक कैदी इन बग्घियों को खींचा करते थे."
"वहाँ ढंग की सड़कें नहीं होती थीं और इलाक़ा भी पहाड़ी होता था. जब क़ैदी बग्घियों को नहीं खींच पाते थे तो उनको गालियाँ दी जाती थीं और उनकी पिटाई होती थी. परेशान करने वाले कैदियों को कई दिनों तक पनियल सूप दिया जाता था." "उनके अलावा उन्हें कुनैन पीने के लिए भी मजबूर किया जाता था. इससे उन्हें चक्कर आते थे. कुछ लोग उल्टियाँ कर देते थे और कुछ को बहुत दर्द रहता था." लेकिन यहाँ से सावरकर की दूसरी ज़िन्दगी शुरू होती है. सेल्युलर जेल में उनके काटे 9 साल 10 महीनों ने अंग्रेज़ों के प्रति सावरकर के विरोध को बढ़ाने के बजाय समाप्त कर दिया.
बीबीसी को निरंजन तकले बताते हैं, "मैं सावरकर की ज़िंदगी को कई भागों में देखता हूँ. उनकी ज़िदगी का पहला हिस्सा रोमांटिक क्रांतिकारी का था, जिसमें उन्होंने 1857 की लड़ाई पर किताब लिखी थी. इसमें उन्होंने बहुत अच्छे शब्दों में धर्मनिरपेक्षता की वकालत की थी."
"गिरफ़्तार होने के बाद असलियत से उनका सामना हुआ. 11 जुलाई 1911 को सावरकर अंडमान पहुंचे और 29 अगस्त को उन्होंने अपना पहला माफ़ीनामा लिखा, वहाँ पहुंचने के डेढ़ महीने के अंदर. इसके बाद 9 सालों में उन्होंने 6 बार अंग्रेज़ों को माफ़ी पत्र दिए."
"जेल के रिकॉर्ड बताते हैं कि वहाँ हर महीने तीन या चार कैदियों को फाँसी दी जाती थी. फाँसी देने का स्थान उनके कमरे के बिल्कुल नीचे था. हो सकता है इसका सावरकर पर असर पड़ा हो. कुछ हलकों में कहा गया कि जेलर बैरी ने सावरकर को कई रियायतें दीं."
"एक और कैदी बरिंद्र घोष ने बाद में लिखा कि सावरकर बंधु हम लोगों को जेलर के ख़िलाफ़ आंदोलन करने के लिए गुपचुप तौर से भड़काते थे. लेकिन जब हम उनसे कहते कि खुल कर हमारे साथ आइए, तो वो पीछे हो जाते थे. उनको कोई भी मुश्किल काम करने के लिए नहीं दिया गया था."
निरंजन तकले कहते हैं, "हर 15 दिन पर वहाँ कैदी का वज़न लिया जाता था. जब सावरकर सेल्युलर जेल पहुंचे तो उनका वज़न 112 पाउंड था. सवा दो साल बाद जब उन्होंने सर रेजिनॉल्ड क्रेडॉक को अपना चौथा माफ़ीनामा दिया, तो उनका वज़न 126 पाउंड था. इस तरह उनका 14 पाउंड वज़न बढ़ा था जेल में रहने के दौरान."
"अपने ऊपर दया करने की गुहार करते हुए उन्होंने सरकार से ख़ुद को भारत की किसी जेल में भेजे जाने की प्रार्थना की थी. इसके बदले में वो किसी भी हैसियत में सरकार के लिए काम करने के लिए तैयार थे."
"सावरकर ने ये भी कहा था कि अंग्रेज़ों द्वारा उठाए गए गए कदमों से उनकी संवैधानिक व्यवस्था में आस्था पैदा हुई है और उन्होंने अब हिंसा का रास्ता छोड़ दिया है. शायद इसी का परिणाम था कि काला पानी की सज़ा काटते हुए सावरकर को 30 और 31 मई, 1919 को अपनी पत्नी और छोटे भाई से मिलने की इजाज़त दी गई थी."
बाद में सावरकर ने खुद और उनके समर्थकों ने अंग्रेज़ों से माफ़ी माँगने को इस आधार पर सही ठहराया था कि ये उनकी रणनीति का हिस्सा था, जिसकी वजह से उन्हें कुछ रियायतें मिल सकती थीं.
सावरकर ने अपनी आत्मकथा में लिखा था, "अगर मैंने जेल में हड़ताल की होती तो मुझसे भारत पत्र भेजने का अधिकार छीन लिया जाता."
भगत सिंह के पास भी माफ़ी माँगने का विकल्प था, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. तब सावरकर के पास ऐसा करने की क्या मजबूरी थी? वरिष्ठ पत्रकार और इंदिरा गांधी सेंटर ऑफ़ आर्ट्स के प्रमुख राम बहादुर राय कहते हैं, "भगत सिंह और सावरकर में बहुत मौलिक अंतर है. भगत सिंह ने जब बम फेंकने का फ़ैसला किया, उसी दिन उन्होंने तय कर लिया था कि उन्हें फाँसी का फंदा चाहिए. दूसरी तरफ़ वीर सावरकर एक चतुर क्रांतिकारी थे."
"उनकी कोशिश रहती थी कि भूमिगत रह करके उन्हें काम करने का जितना मौका मिले, उतना अच्छा है. मेरा मानना ये है कि सावरकर इस पचड़े में नहीं पड़े की उनके माफ़ी मांगने पर लोग क्या कहेंगे. उनकी सोच ये थी कि अगर वो जेल के बाहर रहेंगे तो वो जो करना चाहेंगे, वो कर सकेंगे."
अंडमान से वापस आने के बाद सावरकर ने एक पुस्तक लिखी 'हिंदुत्व - हू इज़ हिंदू?' जिसमें उन्होंने पहली बार हिंदुत्व को एक राजनीतिक विचारधारा के तौर पर इस्तेमाल किया.
निलंजन मुखोपाध्याय बताते हैं, "हिंदुत्व को वो एक राजनीतिक घोषणापत्र के तौर पर इस्तेमाल करते थे. हिंदुत्व की परिभाषा देते हुए वो कहते हैं कि इस देश का इंसान मूलत: हिंदू है. इस देश का नागरिक वही हो सकता है जिसकी पितृ भूमि, मातृ भूमि और पुण्य भूमि यही हो."
"पितृ और मातृ भूमि तो किसी की हो सकती है, लेकिन पुण्य भूमि तो सिर्फ़ हिंदुओं, सिखों, बौद्ध और जैनियों की हो हो सकती है, मुसलमानों और ईसाइयों की तो ये पुण्यभूमि नहीं है. इस परिभाषा के अनुसार मुसलमान और ईसाई तो इस देश के नागरिक कभी हो ही नहीं सकते."
"एक सूरत में वो हो सकते हैं अगर वो हिंदू बन जाएं. वो इस विरोधाभास को कभी नही समझा पाए कि आप हिंदू रहते हुए भी अपने विश्वास या धर्म को मानते रहें."
साल 1924 में सावरकर को पुणे की यरवाड़ा जेल से दो शर्तों के आधार पर छोड़ा गया. एक तो वो किसी राजनैतिक गतिविधि में हिस्सा नहीं लेंगे और दूसरे वो रत्नागिरि के ज़िला कलेक्टर की अनुमति लिए बिना ज़िले से बाहर नहीं जाएंगे.
निरंजन तकले बताते हैं, "सावरकर ने वायसराय लिनलिथगो के साथ लिखित समझौता किया था कि उन दोनों का समान उद्देश्य है गाँधी, कांग्रेस और मुसलमानों का विरोध करना है."
"अंग्रेज़ उनको पेंशन दिया करते थे, साठ रुपये महीना. वो अंग्रेज़ों की कौन सी ऐसी सेवा करते थे, जिसके लिए उनको पेंशन मिलती थी ? वो इस तरह की पेंशन पाने वाले अकेले शख़्स थे."
अतिवादी विचारों के बावजूद निजी ज़िदगी में वो अच्छी चीज़ों के शौकीन थे. वो चॉकलेट्स और 'जिन्टान' ब्रैंड की विहस्की पसंद करते थे.
उनके जीवनीकार आशुतोष देशमुख लिखते हैं, "सावरकर 5 फ़ीट 2 इंच लंबे थे. अंडमान की जेल में रहने के बाद वो गंजे हो गए थे. उन्हें तंबाकू सूँघने की आदत पड़ गई थी. अंडमान की जेल कोठरी में वो तंबाकू की जगह जेल की दीवारों पर लिखा चूना खुरच कर सूँघा करते थे, जिससे उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ा."
"लेकिन इससे उनकी नाक खुल जाती थी. उन्होंने सिगरेट और सिगार पीने की भी कोशिश की, लेकिन वो उन्हें रास नहीं आया. वो कभी-कभी शराब भी पीते थे. नाश्ते में वो दो उबले अंडे खाते थे और दिन में कई प्याले चाय पीते थे. उनको मसालेदार खाना पसंद था, ख़ासतौर से मछली."
"वो अलफ़ांसो आम, आइसक्रीम और चॉकलेट के भी बहुत शौकीन थे. वो हमेशा एक जैसी पोशाक पहनते थे... गोल काली टोपी, धोती या पैंट, कोट, कोट की जेब में एक छोटा हथियार, इत्र की एक शीशी, एक हाथ में छाता और दूसरे हाथ में मुड़ा हुआ अख़बार!"
सावरकर की छवि को उस समय बहुत धक्का लगा जब 1949 में गांधी हत्याकांड में शामिल होने के लिए आठ लोगों के साथ उन्हें भी गिरफ़्तार कर लिया गया.
लेकिन ठोस सबूतों के अभाव में वो बरी हो गए.
नीलांजन मुखोपाध्याय बताते हैं, "पूरे संघ परिवार को बहुत समय लग गया गाँधी हत्याकाँड के दाग़ को हटाने में. सावरकर इस मामले में जेल गए, फिर छूटे और 1966 तक ज़िदा रहे लेकिन उन्हें उसके बाद स्वीकार्यता नहीं मिली."
"यहाँ तक कि आरएसएस ने भी उनसे पल्ला झाड़ लिया. वो हमेशा हाशिए पर ही पड़े रहे, क्यों कि उनसे गांधी हत्या की शक की सुई कभी नहीं हटी ही नहीं. कपूर आयोग की रिपोर्ट में भी साफ़ कहा गया कि उन्हें इस बात का यकीन नहीं है कि सावरकर की जानकारी के बिना गांधी हत्याकांड हो सकता था."
सावरकर के जीवन के आख़िरी दो दशक राजनीतिक एकाकीपन और अपयश में बीते.
उनके एक और जीवनीकार धनंजय कीर उनकी जीवनी 'सावरकर एंड हिज़ टाइम्स' में लिखते हैं कि लाल किले में चल रहे मुक़दमें में जज ने जैसे ही उन्हें बरी किया और नथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फाँसी की सज़ा सुनाई, कुछ अभियुक्त सावरकर के पैर पर गिर पड़े और उन्होंने मिल कर नारा लगाया,
हिंदू - हिंदी - हिदुस्तान,
कभी न होगा पाकिस्तान...!
देश के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के वीर सावरकर पर बुधवार को दिए गए बयान 'सावरकर ने खुद नहीं, बल्कि गांधी जी के कहने पर दया याचिका लगाई थी' के बाद पक्ष विपक्ष के बीच तकरार जारी है. इसी बीच गुरुवार को महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी ने एक नया खुलासा किया है. तुषार गांधी ने आरोप लगाते हुए कहा कि राजनाथ सिंह पूरा सच नहीं बता रहे हैं. उन्होंने आगे कहा कि वास्तव में सावरकर की शख्सियत महान नहीं बल्कि अंग्रेजों से माफ़ी मांगने वाले शख्स की है. सावरकर अंग्रेजी की पेंशन पर जीवन यापन करते थे, तो महान कैसे हो सकते हैं. ऐसे में तुषार गांधी के इस बयान ने मामले में छिड़े विवाद में एक नया चैप्टर जोड़ दिया है.
ऐसे में आजतक के मंच पर सावरकर के पोते रंजीत सावरकर और महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी का आमना-सामना हुआ, जिसमें तुषार के दिए बयान समेत कई मामलों पर बहस हुई.
तुषार ने बहस में रंजीत सावरकर के बयान 'माफ़ी नहीं मांगी' पर कहा कि उनको जो पसंद हो वो नाम दें, लेकिन यह माफ़ी नामा ही कहा जाएगा. तुषार ने सवालिया अंदाज में कहा कि महात्मा गांधी से पहले माफ़ी मांगने का जो सिलसिला शुरू हुआ था वो किस महात्मा के कहने पर मांगी थी? इस पर रंजीत ने कुछ दस्तावेज दिखाते हुए कहा कि गांधी ने कहा है तो कहा है इस पर गांधी समर्थकों और तुषार गांधी को यह बात मान लेने में दिक्कत क्या है.
रंजीत सावरकर ने तुषार गांधी को खुली चुनौती देते हुए कहा कि आप मेरे सामने आइये और साबित कीजिये कि सावरकर ने माफ़ी मांगी है. और अगर यह साबित होता है तो मैं आपके चरण स्पर्श करूंगा और मैं यह साबित करूंगा कि ऐसा नहीं हुआ है.
इससे पहले रंजीत सावरकर ने बताया कि 1920 में गांधी ने सावरकर के भाई को याचिका दायर करने के लिए पत्र लिखा था और उसके बाद याचिका लगाई गई थी. उन्होंने कहा, 'सावरकर ने 1913 के बाद कई याचिकाएं लगाई थीं जो सभी कैदियों की रिहाई के लिए थी. इसमें उन्होंने ये भी कहा था कि अगर मेरी रिहाई अन्य कैदियों की रिहाई में आड़े आ रही है तो उन्हें रिहा कर देना चाहिए.'
उन्होंने दावा करते हुए कहा कि सावरकर ने अपने किसी भी लेटर में अंग्रेजों से माफी नहीं मांगी थी और न ही खेद जताया था. बस ये याचिकाएं दायर की थीं, जिन्हें अंग्रेजों ने दया याचिका नाम दे दिया था.
देश में हिन्दुत्व के जनक कहे जाने वाले विनायक दामोदर सावरकर को भाजपा जहां राष्ट्रवादी मानती हैं वहीं कांग्रेस उन्हें राष्ट्रवादी मानने से इनकार करती रही है। इस बारे में कांग्रेस ने दावा किया था कि सावरकर को दो राष्ट्र सिद्धांत से कोई आपत्ति नहीं थी। सावरकर का एक रिकॉर्ड कांग्रेस ने शेयर किया, जिसमें सावरकर ने कहा है, “दो-राष्ट्र सिद्धांत पर श्री जिन्ना के साथ मेरा कोई झगड़ा नहीं है। हम, हिंदू, अपने आप में एक राष्ट्र हैं और यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हिंदू और मुसलमान दो राष्ट्र हैं।” यानी सावरकर भी हिन्दू- मुसलमान के बीच फूट डालो और दो देश बनाकर राज करो सिद्धांत के सहायक रहे हैं, जबकि संघ और उसके समर्थक इससे इनकार करते रहे हैं। सावरकर पर इतिहासकार भी बंटे हुए हैं।
प्रकाशन विभाग से साल 1975 में प्रकाशित आरसी मजूमदार की किताब ‘पीनल सेटलमेंट्स इन द अंडमान्स’ के मुताबिक साल 1911 में जब सावरकर को क्रांतिकारी गतिविधियों के चलते काला पानी की सजा सुनाई गई थी और अंडमान-निकोबार के सेलुलर जेल में भेजा गया था, तब सावरकर ने सजा शुरू होने के कुछ महीने बाद ही अंग्रेजी हुकूमत से रिहाई की गुहार लगाई थी। शुरू में सावरकर ने 1911 में अंग्रेजी सरकार को चिट्ठी लिखी, बाद में सावरकर ने जेल सुप्रीटेंडेंट के जरिए 1913 और 1921 में याचिका दाखिल की थी। अपनी याचिका में सावरकर ने साफ तौर पर लिखा था कि मुझे रिहा कर दिया गया तो मैं भारत की आजादी की लड़ाई छोड़ दूंगा और उपनिवेशवादी सरकार (अंग्रेजी हुकूमत) के प्रति वफादार रहूंगा.
वहीं सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज और प्रेस काउंसिल के पूर्व अध्यक्ष जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने भी सावरकर पर अपने विचार प्रकट किए हैं, उन्होंने लिखा है, सावरकर 1910 ईस्वी तक ही राष्ट्रवादी थे। यह वह दौर था जब वो गिरफ्तार किए गए थे और काला पानी की सजा पाई थी। बतौर काटजू, जेल में 10 साल गुजारने के बाद अंग्रेजों की तरफ से सावरकर को प्रस्ताव मिला था कि वो सरकार के सहयोगी बन जाएं जिसे सावरकर ने स्वीकार कर लिया था। उन्होंने लिखा है कि सेलुलर जेल से छूटने के बाद क्रांतिकारी सावरकर हिन्दू साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने के काम में जुट गए थे.
बता दें कि हाल के दिनों में वीर सावरकर को लेकर राजनीतिक पार्टियां आमने-सामने हैं। शिव सेना चीफ उद्धव ठाकरे ने कहा है कि अगर सावरकर इस देश के प्रधामंत्री होते तो पाकिस्तान का जन्म नहीं होता। इसके साथ ही उद्धव ठाकरे ने वीर सावरकर को भारत रत्न देने की मांग की है। इसके जवाब में कांग्रेस ने पुराना ऐतिहासिक दस्तावेज शेयर कर निशाना साधा है और कहा है कि यह नहीं भूलना चाहिए कि सावरकर ने ही अंग्रेजों को माफीनामे की चिट्ठी लिखी थी.
वीडी सावरकर ने 1913 में एक याचिका दाख़िल की जिसमें उन्होंने अपने साथ हो रहे तमाम सलूक का ज़िक्र किया और अंत में लिखा, ‘हुजूर, मैं आपको फिर से याद दिलाना चाहता हूं कि आप दयालुता दिखाते हुए सज़ा माफ़ी की मेरी 1911 में भेजी गई याचिका पर पुनर्विचार करें और इसे भारत सरकार को फॉरवर्ड करने की अनुशंसा करें. भारतीय राजनीति के ताज़ा घटनाक्रमों और सबको साथ लेकर चलने की सरकार की नीतियों ने संविधानवादी रास्ते को एक बार फिर खोल दिया है. अब भारत और मानवता की भलाई चाहने वाला कोई भी व्यक्ति, अंधा होकर उन कांटों से भरी राहों पर नहीं चलेगा, जैसा कि 1906-07 की नाउम्मीदी और उत्तेजना से भरे वातावरण ने हमें शांति और तरक्की के रास्ते से भटका दिया था.’
अपनी याचिका में सावरकर लिखते हैं, ‘अगर सरकार अपनी असीम भलमनसाहत और दयालुता में मुझे रिहा करती है, मैं आपको यक़ीन दिलाता हूं कि मैं संविधानवादी विकास का सबसे कट्टर समर्थक रहूंगा और अंग्रेज़ी सरकार के प्रति वफ़ादार रहूंगा, जो कि विकास की सबसे पहली शर्त है. जब तक हम जेल में हैं, तब तक महामहिम के सैकड़ों-हजारें वफ़ादार प्रजा के घरों में असली हर्ष और सुख नहीं आ सकता, क्योंकि ख़ून के रिश्ते से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता. अगर हमें रिहा कर दिया जाता है, तो लोग ख़ुशी और कृतज्ञता के साथ सरकार के पक्ष में, जो सज़ा देने और बदला लेने से ज़्यादा माफ़ करना और सुधारना जानती है, नारे लगाएंगे.’
वहीं
याचिका के अगले हिस्से में वे और भारतीयों को भी सरकार के पक्ष में लाने का वादा करते हुए लिखते हैं, ‘इससे भी बढ़कर संविधानवादी रास्ते में मेरा धर्म-परिवर्तन भारत और भारत से बाहर रह रहे उन सभी भटके हुए नौजवानों को सही रास्ते पर लाएगा, जो कभी मुझे अपने पथ-प्रदर्शक के तौर पर देखते थे. मैं भारत सरकार जैसा चाहे, उस रूप में सेवा करने के लिए तैयार हूं, क्योंकि जैसे मेरा यह रूपांतरण अंतरात्मा की पुकार है, उसी तरह से मेरा भविष्य का व्यवहार भी होगा. मुझे जेल में रखने से आपको होने वाला फ़ायदा मुझे जेल से रिहा करने से होने वाले होने वाले फ़ायदे की तुलना में कुछ भी नहीं है. जो ताक़तवर है, वही दयालु हो सकता है और एक होनहार पुत्र सरकार के दरवाज़े के अलावा और कहां लौट सकता है. आशा है, हुजूर मेरी याचनाओं पर दयालुता से विचार करेंगे.’
सावरकर ने गांधी जी से पहले किसके कहने पर माफी मांगी थी, ये अभी भी एक शोध का विषय है, हालांकि वीर सावरकर के भाई ने महात्मा गांधी से इस सिलसिले में मदद जरूर मांगी थी, इसका जिक्र चर्चित लेखक विक्रम संपत की किताब, सावरकर- एक भूले बिसरे अतीत की गूंज में भी किया गया है, विक्रम संपत लिखते हैं- सावरकर के भाई नारायण राव ने 18 जनवरी 1920 के अपने पहले पत्र में शाही माफी के तहत अपने भाइयों की रिहाई कराने के संबंध में गांधी जी से सलाह और मदद की मांग की थी.
नारायण राव ने लिखा था- कल मुझे सरकार की तरफ से सूचना मिली कि रिहा किए गए लोगों में सावरकर बंधुओं का नाम नहीं है, साफ है कि सरकार उन्हें रिहा नहीं कर रही है, कृपया आप मुझे बताएं कि ऐसे मामले में क्या करना चाहिए...?
जबकि वो पहले ही अंडमान में 10 साल की कठोर सजा काट चुके हैं, उनका स्वास्थ्य भी गिर रहा है, उनका वजन भी 118 से घटकर 95-100 किलो रह गया है, उन्हें अस्पताल का खाना दिया जा रहा है लेकिन उनकी सेहत में कोई सुधार होता नहीं दिख रहा है, मुझे उम्मीद है कि आप इस मामले में क्या कर सकते हैं, इससे अवगत करवाएंगे...?
तब सावरकर के भाई के मदद मांगने वाले इस लेटर का जवाब गांधी जी ने करीब एक सप्ताह बाद यानी 25 जनवरी 1920 को देते हुए गांधी जी ने लिखा था- आपको सलाह देना मुझे कठिन लग रहा है, फिर भी मेरी राय है कि आप एक संक्षिप्त याचिका तैयार कराएं जिसमें मामले से जुड़े तथ्यों का जिक्र हो कि आपके भाइयों द्वारा किया गया अपराध पूरी तरह राजनीतिक था, जैसा कि मैंने आपसे पिछले एक पत्र में कहा था मैं इस मामले को अपने स्तर पर भी उठा रहा हूं.
खैर ये तथ्य है कि सावरकर की दया याचिका को लेकर महात्मा गांधी ने अपनी सलाह जरूर दी थी, लेकिन सावरकर की दया याचिका मंजूर होने में भी क्या महात्मा गांधी की कोई भूमिका थी...? अभी फिलहाल तो इसका जिक्र किसी किताब में नहीं मिलता है...?
बेशक महात्मा गांधी की सलाह पर मतभेद हो सकते हैं, लेकिन इस तथ्य पर कोई विवाद नहीं है कि सावरकर की छह दया याचिकाओं के बाद अंग्रेजों ने उन्हें वर्ष 2021 में अंडमान से रिहा करने के बाद पुणे की येरवडा जेल में उन्हें तीन वर्ष तक रखा था. वर्ष 1923 में जेल में रहते हुए सावरकर ने एक किताब लिखी... Hindutva: Who Is...?
उसके बाद वर्ष 1937 में नजरबंदी हटने के बाद वो हिंदू महासभा के प्रेसीडेंट बने. वर्ष 1948 में नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या की. इस हत्या का आरोप सावरकर पर भी लगा लेकिन पर्याप्त सबूत नहीं होने की वजह से उन्हें रिहा कर दिया गया. ये भी तथ्य है कि सावरकर कभी भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनसंघ के सदस्य नहीं रहे, लेकिन संघ और बीजेपी ने सावरकर को अपने आदर्श पुरुषों में शामिल किया.
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