Thursday, 16 June 2022

"यदि कोई गांधी-नेहरू परिवार से राजनीति में सक्रिय होता तो, बाबरी मस्जिद नहीं गिरी होती" राहुल गांधी...?

एस एम फ़रीद भारतीय 
दोस्तों आज हम आपको बता रहे हैं राहुल गांधी यानि आयरन लेडी कही जाने वाली पूर्व प्रधानमंत्री स्व इंदिरा गांधी जी के पोते और स्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के पुत्र व दो बार प्रधानमंत्री पद को ठुकरा चुकी श्रीमति सोनिया गांधी के पुत्र राहुल गांधी के बारे मैं, ऊपर जो हैडलाइन है वो कड़वा सच है, जिसमें राहुल ने मांफ़ी मांगने के अंदाज़ मैं दिल से कहा, मगर अफ़सोस छोटे दल की राजनीति करने के साथ संघ के लिए काम करने वालों ने इस आवाज़ को दबा दिया, जिसमें कहा था कि "यदि कोई गांधी-नेहरू परिवार से राजनीति में सक्रिय होता तो, बाबरी मस्जिद नहीं गिरी होती" साथ ही वो मुसलमान भी हिस्सा बने इस साज़िश का जो सिर्फ़ सांसद या विधायक बनना चाहते थे क़ौम के रहनुमा या लीडर नहीं...?

जब राहुल गांधी ने कहा कि "यदि कोई गांधी-नेहरू परिवार से राजनीति में सक्रिय होता तो, बाबरी मस्जिद नहीं गिरी होती" ये सच कहा था...?

"एक धक्का और दो, बाबरी तोड़ दो...", अयोध्या का आसमान चीरते ये नारे, सैकड़ों साल पुरानी मस्जिद पर चोट करतीं कुदालों की ठक-ठक, सरकारी दफ़्तरों में चोंगे पर रखे हुए फोनों का लगातार घरघराना और ऊंचे स्वर में जय श्री राम के उद्घोष, ये सब हो रहा था.

जब मस्जिद को शहीद किया गया तब अरब देशों से जो दबाव बना और उस वक़्त के प्रधानमंत्री ने तब ये खुला वादा किया था हम मस्जिद को ठीक वैसा ही बनाकर देंगे.

इससे पहले जब बाबरी मस्जिद तोड़ी जा रही थी, उस समय के केंद्रीय मंत्री माखनलाल फ़ोतेदार ने नरसिम्हा राव को फ़ोन कर तुरंत कुछ करने का अनुरोध किया था.

माखनलाल फ़ोतेदार अपनी आत्मकथा 'द चिनार लीव्स' में लिखते हैं, "मैंने प्रधानमंत्री से अनुरोध किया कि वो वायुसेना से कहें कि वो फ़ैज़ाबाद में तैनात चेतक हैलिकॉप्टरों से अयोध्या में मौजूद कारसेवकों को तितर-बितर करने के लिए आंसू गैस के गोले चलवांए. राव ने कहा, 'मैं ऐसा कैसे कर सकता हूँ?' मैंने कहा इस तरह की आपात परिस्थितियों में केंद्र सरकार के पास जो भी फ़ैसला ज़रूरी हो लेने की सारी ताकत मौजूद हैं. मैंने उनसे विनती की, 'राव साहब कम से कम एक गुंबद तो बचा लीजिए. ताकि बाद में हम उसे एक शीशे के केबिन में रख सकें और भारत के लोगों को बता सकें कि बाबरी मस्जिद को बचाने की हमने अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश की. प्रधानमंत्री चुप रहे और लंबे ठहराव के बाद बोले, फ़ोतेदारजी मैं आपको दोबारा फ़ोन करता हूं.''

फ़ोतेदार आगे लिखते हैं, "मैं प्रधानमंत्री की अकर्मण्यता से बहुत ज़्यादा निराश और दुखी हुआ. मैंने राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा को फ़ोन कर उनसे मिलने का समय मांगा. उन्होंने मुझे शाम साढ़े पांच बजे आने के लिए कहा. जब मैं उनसे मिलने के लिए अपने घर से निकलने लगा, तो मेरे पास प्रधानमंत्री का फ़ोन आया कि शाम 6 बजे कैबिनेट की बैठक रखी गई है. मैं फिर भी राष्ट्रपति से मिलने गया. जब मैं वहां पहुंचा, तो उन्होंने मुझे देखकर बच्चों की तरह रोना शुरू कर दिया और बोले, 'पीवी ने ये किया क्या है?' मैंने राष्ट्रपति से कहा कि वो देश को टेलीविज़न और रेडियो पर संबोधित करें. वो इसके लिए राज़ी भी हो गए, लेकिन उनके सूचना अधिकारी ने बताया कि इसके लिए उन्हें प्रधानमंत्री से अनुमति लेनी होगी और मुझे बहुत शक है कि वो ये अनुमति देंगे."

माखनलाल फ़ोतेदार लिखते हैं, "मैं मंत्रिमंडल की बैठक में 15 या 20 मिनट देर से पहुंचा. वहां हर एक को चुप देखकर मैंने कटाक्ष किया, 'सबकी बोलती क्यों बंद है?' इस पर माधवराव सिंधिया बोले, 'फ़ोतेदारजी आप को पता नहीं कि बाबरी मस्जिद गिरा दी गई है?' मैंने प्रधानमंत्री की तरफ़ देख कर पूछा, 'राव साहब क्या ये सही है?' प्रधानमंत्री मुझसे आंखें नहीं मिला पाए. उनके बजाए कैबिनेट सचिव ने जवाब दिया कि ये सही है. मैंने सारे कैबिनेट मंत्रियों के सामने राव से कहा कि इसके लिए सीधे वो ज़िम्मेदार हैं. प्रधानमंत्री ने एक शब्द भी नहीं कहा."

वहीं कुलदीप नय्यर ने अपनी आत्मकथा 'बियॉन्ड द लाइंस में' लिखा है, "मुझे जानकारी है कि राव की बाबरी मस्जिद विध्वंस में भूमिका थी. जब कारसेवक मस्जिद को गिरा रहे थे, तब वो अपने निवास पर पूजा में बैठे हुए थे. वो वहां से तभी उठे जब मस्जिद का आख़िरी पत्थर हटा दिया गया."

लेकिन नरसिम्हा राव पर बहुचर्चित किताब 'हाफ़ लायन' लिखने वाले विनय सीतापति इस मामले में नरसिम्हा राव को क्लीन चिट देते हैं.

साथ ही विनय सीतापति कहते हैं कि उनका शोध बताता है कि ये बात ग़लत है कि बाबरी मस्जिद गिराए जाने के समय नरसिम्हा राव सो रहे थे या पूजा कर रहे थे. नरेश चंद्रा और गृह सचिव माधव गोडबोले इस बात की पुष्टि करते हैं कि वो उनसे लगातार संपर्क में थे और एक-एक मिनट की सूचना ले रहे थे.

लेकिन राव की निकटवर्ती रहीं पत्रकार कल्याणी शंकर का मानना है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस में नरसिम्हा राव की भूमिका को ज़्यादा से ज़्यादा एक राजनीतिक मिसकैलकुलेशन कहा जा सकता है.

"आडवाणी और वाजपेई ने उन्हें विश्वास दिलाया कि कुछ होगा नहीं. सुप्रीम कोर्ट ने भी केंद्र को रिसीवरशिप लेने से मना कर दिया. ये राज्य का अधिकार है कि वो वहां पर सुरक्षाबलों को भेजे या नहीं. कल्याण सिंह ने वहां सुरक्षा बल भेजने ही नहीं दिए."

तब मशहूर पत्रकार रेहान फ़ज़ल ने मशहूर पत्रकार सईद नक़वी से पूछा कि क्या इस मामले में नरसिम्हा राव की भूमिका को ज़्यादा से ज़्यादा एक राजनीतिक 'मिस-कैलकुलेशन' या 'एरर ऑफ़ जजमेंट' कहा जाए?

नक़वी का जवाब था, "क्या राव के साथ-साथ उनके गृह मंत्री भी इसका शिकार थे? और शाम को भारत सरकार के बड़े अधिकारी अपने माथे पर तिलक लगाकर घूम रहे थे मानो इस घटना को सेलिब्रेट कर रहे हों, इसको आप क्या कहेंगे?"

मुखर्जी की राव को खरीखोटी
प्रणव मुखर्जी आगे लिखते हैं, "बाद में जब नरसिम्हा राव से मेरी अकेले में मुलाकात हुई, तो मैंने उन्हें ख़ूब सुनाई. मैंने कहा, क्या आपके अगल-बगल कोई नहीं था जिसने आपको आने वाले ख़तरों के बारे में आगाह नहीं किया? क्या आप बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किए जाने पर होने वाली वैश्विक प्रतिक्रियाओं का अंदाज़ा नहीं लगा पाए? कम से कम अब तो मुसलमानों की आहत भावनाओं को शांत करने के लिए कोई ठोस कदम उठाइए. जब मैंने ये कहा तो हमेशा की तरह उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं दिखाई दिया. लेकिन मैंने कई दशकों से उनके साथ काम किया और उनको जाना है. मुझे उनका चेहरा पढ़ने की ज़रूरत नहीं थी. मैं उनके दुख और निराशा को साफ़ महसूस कर पा रहा था."

लेकिन इस पूरे प्रकरण में अर्जुन सिंह की भूमिका भी सवालों के घेरे में रही.

माखनलाल फ़ोतेदार ने अपनी आत्मकथा 'चिनार लीव्स' में लिखा, "अर्जुन सिंह को बहुत अच्छी तरह पता था कि 6 दिसंबर को कुछ बड़ा होने जा रहा था, लेकिन वो तब भी राजधानी छोड़कर पंजाब चले गए. बाद में उन्होंने कहा कि ये उनका पहले से तय कार्यक्रम था. मेरा मानना है कि 6 दिसंबर, 1992 को कैबिनेट बैठक में उनकी अनुपस्थिति और बाद में मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा देने की उनकी झिझक ने उनका राजनीतिक रूप से उनका बहुत नुकसान किया. हालांकि, वो मेरे नज़दीकी बने रहे, लेकिन मुझे मालूम था कि उनमें चुनौतियों को स्वीकार करने का माद्दा नहीं था. अर्जुन सिंह की विमुखता और पूरे मंत्रिमंडल ख़ासतौर से उत्तरी राज्यों के नेताओं की चुप्पी ने 'हिंदी हार्टलैंड' में कांग्रेस को मुसलमानों से इतना दूर कर दिया कि वो पूरे 8 सालों तक केंद्र की सत्ता से बाहर रही."

ये सब बीबीसी ने प्रकाशित किया था, आज भी मौजूद है..., इसी पर राहुल ने कहा था अगर गांधी परिवार का कोई प्रधानमंत्री होता तब देश शर्मसार ना होता, राहुल की बेबाकी ही उनकी राजनैतिक दुश्मन है, मगर वो समझ कर भी नासमझ बने रहते हैं.
राहुल गांधी का जन्म 19 जून 1970 को नई दिल्ली में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और पूर्व काँग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी के यहां हुआ था। वह अपने माता-पिता की दो संतानों में बड़े हैं और प्रियंका गांधी वढेरा के बड़े भाई हैं। राहुल गांधी की दादी इंदिरा गांधी भारत की पूर्व प्रधानमंत्री थीं।

राहुल गांधी की प्रारंभिक शिक्षा दिल्ली के सेंट कोलंबस स्कूल में की और इसके बाद वो प्रसिद्ध दून विद्यालय में पढ़ने चले गये जहां उनके पिता ने भी विद्यार्जन किया था। सन 1981-83 तक सुरक्षा कारणों के कारण राहुल गांधी को अपनी पढ़ाई घर से ही करनी पड़ी। राहुल ने हार्वर्ड विश्वविद्यालय के रोलिंस कॉलेज फ्लोरिडा से सन 1994 में कला स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद सन 1995 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के ट्रिनिटी कॉलेज से एम.फिल. की उपाधि प्राप्त की।

शुरूआती कैरियर
स्नातक स्तर तक की पढ़ाई कर चुकने के बाद राहुल गांधी ने प्रबंधन गुरु माइकल पोर्टर की प्रबंधन परामर्श कंपनी मॉनीटर ग्रुप के साथ 3 साल तक काम किया। इस दौरान उनकी कंपनी और सहकर्मी इस बात से पूरी तरह से अनभिज्ञ थे कि वे किसके साथ काम कर रहे हैं क्योंकि वह ाहुल यहां एक छद्म नाम रॉल विंसी के नाम से इस कम्पनी में नियोजित थे। राहुल गाँधी के आलोचक उनके इस कदम को उनके भारतीय होने से उपजी उनकी हीन-भावना मानते हैं जब कि काँग्रेसजन उनके इस कदम को उनकी सुरक्षा से जोड़ कर देखते हैं। सन 2002 के अंत में वह मुंबई में स्थित अभियांत्रिकी और प्रौद्योगिकी से संबंधित एक कम्पनी 'आउटसोर्सिंग कंपनी बैकअप्स सर्विसेस प्राइवेट लिमिटेड' के निदेशक-मंडल के सदस्य बन गये।

राजनीतिक कैरियर
2003 में, राहुल गांधी के राष्ट्रीय राजनीति में आने के बारे में बड़े पैमाने पर मीडिया में अटकलबाजी का बाज़ार गर्म था, जिसकी उन्होंने तब कोई पुष्टि नहीं की। वह सार्वजनिक समारोहों और कांग्रेस की बैठकों में बस अपनी माँ के साथ दिखाई दिए। एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट श्रृंखला देखने के लिए सद्भावना यात्रा पर अपनी बहन प्रियंका गाँधी के साथ पाकिस्तान भी गए।

जनवरी 2004 में राजनीति उनके और उनकी बहन के संभावित प्रवेश के बारे में अटकलें बढ़ीं जब उन्होंने अपने पिता के पूर्व निर्वाचन क्षेत्र अमेठी का दौरा किया, जहाँ से उस समय उनकी माँ सांसद थीं। उन्होंने यह कह कर कि "मैं राजनीति के विरुद्ध नहीं हूँ। मैंने यह तय नहीं किया है कि मैं राजनीति में कब प्रवेश करूँगा और वास्तव में, करूँगा भी या नहीं।" एक स्पष्ट प्रतिक्रिया देने से मनाकर दिया था। 

मार्च 2004 में, मई 2004 का चुनाव लड़ने की घोषणा के साथ उन्होंने भारतीय राजनीति में प्रवेश की घोषणा की, वह अपने पिता के पूर्व निर्वाचन क्षेत्र उत्तर प्रदेश के अमेठी से लोकसभा चुनाव के लिए खड़े हुए, जो भारत की संसद का निचला सदन है। इससे पहले, उनके चाचा संजय गांधी ने, जो एक विमान दुर्घटना के शिकार हुए थे, ने संसद में इसी क्षेत्र का नेतृत्व किया था। तब इस लोकसभा सीट पर उनकी माँ थी, जब तक वह पड़ोस के निर्वाचन-क्षेत्र रायबरेली स्थानान्तरित नहीं हुई थी। उस समय इनकी पार्टी ने राज्य की 80 में से महज़ 10 लोकसभा सीट ही जीतीं थीं और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का हाल बुरा था। 

इससे राजनीतिक टीकाकारों को थोड़ा आश्चर्य भी हुआ जिन्होंने राहुल की बहन प्रियंका गाँधी में करिश्मा कर सकने और सफल होने की संभावना देखी थी। पर तब पार्टी के अधिकारियों के पास मीडिया के लिए उनका बायोडेटा तैयार नहीं था। ये अटकलें लगाई गयीं कि भारत के सबसे मशहूर राजनीतिक परिवारों में से एक देश की युवा आबादी के बीच इस युवा सदस्य की उपस्थिति कांग्रेस पार्टी के राजनीतिक भाग्य को पुनर्जीवन देगी। विदेशी मीडिया के साथ अपने पहले इंटरव्यू में, उन्होंने स्वयं को 'देश को जोड़ने वाली शख्सियत' के रूप में पेश किया और भारत की "विभाजनकारी" राजनीति की निंदा की, यह कहते हुए कि वह जातीय और धार्मिक तनाव को कम करने की कोशिश करेंगे। उनकी उम्मीदवारी का स्थानीय जनता ने उत्साह के साथ स्वागत किया, जिनका इस क्षेत्र में इस गाँधी-परिवार से एक लंबा संबंध था।

वह चुनाव विशाल बहुमत से जीते, वोटों में 1,00,000 के अंतर के साथ इन्होंने अपने चुनाव क्षेत्र को परिवार का गढ़ बनाए रखा, जब कांग्रेस ने सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को अप्रत्याशित रूप से हराया। उनका अभियान उनकी छोटी बहन, प्रियंका गाँधी द्वारा संचालित किया गया था, 2006 तक उन्होंने कोई अन्य पद ग्रहण नहीं किया और मुख्य निर्वाचन क्षेत्र के मुद्दों और उत्तर प्रदेश की राजनीति पर ध्यान केंद्रित किया और भारतीय और अंतरराष्ट्रीय प्रेस में व्यापक रूप से अटकलें थी कि सोनिया गांधी भविष्य में उन्हें एक राष्ट्रीय स्तर का कांग्रेस नेता बनाने के लिए तैयार कर रही हैं, जो बात बाद में सच साबित हुई।

जनवरी 2006 में, हैदराबाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक सम्मेलन में, पार्टी के हजारों सदस्यों ने गांधी को पार्टी में एक और महत्वपूर्ण नेतृत्व की भूमिका के लिए प्रोत्साहित किया और प्रतिनिधियों के संबोधन की मांग की। उन्होंने कहा, "मैं इसकी सराहना करता हूँ और मैं आपकी भावनाओं और समर्थन के लिए आभारी हूँ. मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं आपको निराश नहीं करूँगा" लेकिन उनसे इस बारे में धैर्य रखने को कहा और पार्टी में तुरंत एक उच्च पद लेने से मना कर दिया।

गांधी और उनकी बहन ने 2006 में रायबरेली में पुनः सत्तारूढ़ होने के लिए उनकी माँ सोनिया गाँधी का चुनाव अभियान हाथ में लिया, जो आसानी से 4,00,000 मतों से अधिक अंतर के साथ जीती थीं।

2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के लिए एक उच्च स्तरीय कांग्रेस अभियान में उन्होंने प्रमुख भूमिका अदा की ; हालाँकि कांग्रेस ने 8.53% मतदान के साथ केवल 22 सीटें ही जीतीं। इस चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को बहुमत मिला, जो पिछड़ी जाति के भारतीयों का प्रतिनिधित्व करती है।

राहुल गांधी को 24 सितंबर 2007 में पार्टी-संगठन के एक फेर-बदल में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति का महासचिव नियुक्त किया गया था। उसी फेर-बदल में, उन्हें युवा कांग्रेस और भारतीय राष्ट्रीय छात्र संघ का कार्यभार भी दिया गया था.

एक युवा नेता के रूप में खुद को साबित करने के उनके प्रयास में नवम्बर 2008 में उन्होंने नई दिल्ली में अपने 12, तुगलक लेन स्थित निवास में कम से कम 40 लोगों को ध्यानपूर्वक चुनने के लिए साक्षात्कार आयोजित किया, जो भारतीय युवा कांग्रेस (IYC) के वैचारिक-दस्ते के हरावल बनेंगे, जब से वह सितम्बर 2007 में महासचिव नियुक्त हुए हैं तब से इस संगठन को परिणत करने के इच्छुक हैं।

2009 के लोकसभा चुनावों में, उन्होंने उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी को 3,33,000 वोटों के अन्तर से पराजित करके अपना अमेठी निर्वाचक क्षेत्र बनाए रखा। इन चुनावों में कांग्रेस ने कुल 80 लोकसभा सीटों में से 21 जीतकर उत्तर प्रदेश में खुद को पुनर्जीवित किया और इस बदलाव का श्रेय भी राहुल गांधी को ही दिया गया है। छह सप्ताह में देश भर में उन्होंने 125 रैलियों में भाषण दिया था।

पार्टी-वृत्त में राहुल गांधी 'आर जी' के नाम से जाने जाते हैं।

जब 2006 के आखिर में न्यूज़वीक ने इल्जाम लगाया की उन्होंने हार्वर्ड और कैंब्रिज में अपनी डिग्री पूरी नहीं की थी या मॉनिटर ग्रुप में काम नहीं किया था, तब राहुल गांधी के कानूनी मामलों की टीम ने जवाब में एक कानूनी नोटिस भेजा, जिसके बाद वे जल्दी से मुकर गए या पहले के बयानों का योग्य किया।

राहुल गांधी ने 1971 में पाकिस्तान के टूटने को, अपने परिवार की "सफलताओं" में गिना.इस बयान ने भारत में कई राजनीतिक दलों से साथ ही विदेश कार्यालय के प्रवक्ता सहित पाकिस्तान के उल्लेखनीय लोगों से आलोचना को आमंत्रित किया, प्रसिद्ध इतिहासकार इरफान हबीब ने कहा की यह टिप्पणी "..बांग्लादेश आंदोलन का अपमान था।

2007 में उत्तर प्रदेश के चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने कहा की "यदि कोई गांधी-नेहरू परिवार से राजनीति में सक्रिय होता तो, बाबरी मस्जिद नहीं गिरी होती".इसे पी वी नरसिंह राव पर हमले के रूप में व्याख्या किया गया था, जो 1992 में मस्जिद के विध्वंस के दौरान प्रधानमंत्री थे। गांधी के बयान ने भाजपा, समाजवादी पार्टी और वाम के कुछ सदस्यों के साथ विवाद शुरू कर दिया, दोनों "हिन्दू विरोधी" और "मुस्लिम विरोधी" के रूप में उन्हें उपाधि देकर स्वतंत्रता सेनानियों और नेहरू-गांधी परिवार पर उनकी टिप्पणियों की BJP के नेता वेंकैया नायडू द्वारा आलोचना की गई है, जिन्होंने पुछा की "क्या गांधी परिवार आपातकाल लगाने की जिम्मेदारी लेगा?"

2008 के आखिर में, राहुल गांधी पर लगी एक स्पष्ट रोक से उनकी शक्ति का पता चला। मुख्यमंत्री सुश्री मायावती ने गांधी को चंद्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय में छात्रों को संबोधित करने के लिए सभागार का उपयोग करने से रोक दिया। बाद में, राज्य के राज्यपाल श्री टी.वी.राजेश्वर (जो कुलाधिपति भी थे) ने विश्वविद्यालय के कुलपति वी.के.सूरी को हटा दि या। टी.वी.राजेश्वर गांधी परिवार के समर्थक और श्री सूरी के नियोक्ता थे। इस घटना को शिक्षा की राजनीति के साक्ष्य के रूप में उद्धृत किया गया और अजित निनान द्वारा टाइम्स ऑफ इंडिया में एक व्यंग्यचित्र में लिखा गया: "वंश संबंधित प्रश्न का उत्तर राहुल जी के पैदल सैनिकों द्वारा दिया जा रहा है।"

सेंट स्टीफेंस कॉलेज में उनका दाखिला विवादास्पद था क्योंकि एक प्रतिस्पर्धात्मक पिस्तौल निशानेबाज़ के रूप में उन्हें उनकी क्षमताओं के आधार पर कॉलेज में भर्ती किया गया था, जो विवादित था। उन्होंने शिक्षा के एक वर्ष के बाद 1990 में उस कॉलेज को छोड़ दिया था.

उनका बयान कि अपने कॉलेज सेंट स्टीफंस में उनके एक वर्ष के निवास के दौरान, कक्षा में सवाल पूछने वाले छात्रों को "छोटा समझा जाता था", इस पर कॉलेज प्रशासन की तरफ से एक तीव्र प्रतिक्रिया हुई। कॉलेज-प्रबंधन ने कहा कि जब वह सेंट स्टीफेंस कॉलेज में पढ़ाई कर रहे थे, तब सवाल पूछना कक्षा में अच्छा नहीं माना जाता था और ज्यादा सवाल पूछना तो और भी नीचा माना जाता था। महाविद्यालय के शिक्षकों ने कहा कि राहुल गांधी का बयान ज्यादा से ज्यादा "उनका व्यक्तिगत अनुभव" हो सकता है। सेंट स्टीफेंस में शैक्षिक वातावरण की सामान्यत: ऐसा नहीं है.

जनवरी 2009 में ब्रिटेन के विदेश सचिव डेविड मिलीबैंड के साथ, उत्तर प्रदेश में उनके संसदीय निर्वाचन क्षेत्र में, अमेठी के निकट एक गाँव में, उनकी "गरीबी पर्यटन यात्रा" की गंभीर आलोचना की गई थी। इसके अतिरिक्त,मिलीबैंड द्वारा आतंकवाद और पाकिस्तान पर दी गयी सलाह और श्री प्रणब मुखर्जी तथा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ निजी मुलाकातों में उनके द्वारा किया गया आचरण इनकी "सबसे बड़ी कूटनीतिक भूल" मानी गयी.

जुलाई २०१७ में भारत और चीन के बीच चल रहे डॉकलाम विवाद के बीच राहुल गांधी का चीनी राजदूत से गुपचुप मिलना भी विवाद का विषय बन गया था.

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