इन दिनों बहुत से लोग इस सवाल का जवाब जानना चाहते हैं कि क्या हज की नीयत से बैतुल्लाह का पैदल सफ़र करना सही है जबकि आज सफ़र की बहुत सारी सहूलियात मौजूद हैं...?
अगर हम इस सवाल का जवाब अहादीस रसूल ﷺ में तलाश करते हैं तो इस सिलसिले में कई अहादीस मिलती हैं जिनमें मज़कूर है कि अह्द रिसालत में बाज़ सहाबी और सहाबिया ने बैतुल्लाह शरीफ़ तक पैदल चल कर हज करने की नज़र मानी थी लेकिन जब यह ख़बर आप ﷺ तक पहुंची तो आप ﷺ ने उन्हें पैदल सफ़र करने से मना किया और सवारी इस्तिमाल करने का हुक्म दिया. इन अहादीस में से दो तीन का यहां ज़िक्र किया जाता है.
1- अनस (र०) कहते हैं कि एक औरत ने नज़र मानी कि वह बैतुल्लाह तक (पैदल) चल कर जाएगी. नबी अकरम ﷺ से इस सिलसिले में सवाल किया गया तो आपने फ़रमाया: बेशक अल्लाह ताला उसके (पैदल) चलने से बेपरवाह है. उसे हुक्म दो कि वह सवार हो कर जाये. (तिर्मिज़ी ह० 1536)
2- अनस (र०) कहते हैं कि नबी अकरम ﷺ एक बूढ़े के क़रीब से गुज़रे जो अपने दो बेटों के सहारे (हज के लिए) चल रहा था. आप ﷺ ने पूछा कि इनका क्या मामला है? लोगों ने कहा: अल्लाह के रसूल ﷺ उन्होंने (पैदल) चलने की नज़र मानी है. आप ﷺ ने फ़रमाया: अल्लाह उसके अपनी जान को अज़ाब देने से बेपरवाह है. फिर आप ﷺ ने उसको सवार होने का हुक्म दिया. (तिर्मिज़ी ह० 1537)
3- उक़बा बिन आमिर (र०) कहते हैं कि उन्होंने नबी अकरम ﷺ से कहा कि मेरी बहन ने बैतुल्लाह पैदल जाने की नज़र मानी तो रसूल अल्लाह ﷺ ने फ़रमाया: बेशक अल्लाह तुम्हारी बहन के बैतुल्लाह पैदल चलने से कुछ नहीं करेगा. (अबू दावूद ह० 3304)
ऊपर वाले मसअले को समझने के लिए ये तीन अहादीस ही काफ़ी हैं , इन अहादीस की रोशनी में हमें सबसे पहली और अहम तरीन बात ये मालूम होती हैकि सवारी और सहूलत होते हुए किसी को दूर दराज़ मक़ामात से बैतुल्लाह का पैदल सफ़र नहीं करना चाहिये. अगर कोई ऐसा करता है तो वो रसूल ﷺ के हुक्म की मुखालिफत करता है.
दूसरी बात यह है कि जो लोग ये समझते हैं बैतुल्लाह का पैदल सफ़र करना इबादत है और इस पर ज़्यादा अज्र मिलता है तो उन्हें मालूम होना चाहीए कि ये ख़्याल ग़लत है और अल्लाह-तआला इस अमल से बेनियाज़ है.
तीसरी बात यह है कि सवारी होते हुए बैतुल्लाह का पैदल सफ़र करना जिस्म को तकलीफ़ और मुश्किल में डालना है जिससे इस्लाम ने हमें मना किया है और अल्लाह ऐसे तकलीफ़ वाले अमल से बेनियाज़ है.
चौथी बात यह है कि बैतुल्लाह का मशक़्क़त भरा पैदल सफ़र, ख़ुसूसन इस ज़माने में इन्सान इसलिए करता है कि उसे हज का ज़्यादा सवाब मिले (बाज़ लोग शौहरत के लिए भी करते हैं) जबकि हमें रसूल अल्लाह ﷺ ने ख़बर दे दी कि ऐसा करने में कोई सवाब नहीं मिलेगा. और अगर मक़सद शौहरत हो तो फिर हज वबाल जान है.
जो अल्लाह और इस के रसूल ﷺ से मुहब्बत करता है और अपने हज को हज्ज-ए-मबरूर बनाना चाहता है वो आप ﷺ की तरह हज का फ़रीज़ा अंजाम देगा. बल्कि आप ﷺ ने हमें हुक्म भी दिया है कि तुम मुझसे हज का तरीक़ा सीखो. चुनांचे हज़रत जाबिर (र०) बयान करते हैं कि मैंने नबी ﷺ को देखा कि आप क़ुर्बानी के दिन अपनी सवारी पर (सवार हो कर) कंकरीयां मार रहे थे और फर्मा रहे थे तुम्हें चाहिए कि तुम अपने हज के तरीक़े सीख लो, मैं नहीं जानता शायद इस हज के बाद में (दुबारा) हज न कर सकूं. (मुस्लिम ह० 3137)
रसूल अल्लाह ﷺ ने मदीना से मक्का का सफ़र भी सवारी पर किया था. बल्कि आपने हज की अदायगी भी सवारी पर ही की थी जैसा कि ऊपर वाली हदीस में भी ज़िक्र है.
यहां यह बात भी समझ लें कि इबादत का मक़सूद हरगिज़ इन्सानी बदन को तकलीफ़ पहुंचाना नहीं है, चाहे नमाज़ हो, रोज़ा हो या हज. हाँ अगर इबादात को अंजाम देने में मशक़्क़त बर्दाश्त करनी पड़ती है जैसे तवाफ़ करते हुए, सई करते हुए वगैरह, तो इन्सान को इस तकलीफ़ पर अज्र मिलेगा. लेकिन अगर कोई ख़ुद से तकलीफ़ मोल ले तो इस पर अज्र नहीं है.
इस बात को समझने के लिए एक और हदीस मुलाहिज़ा फ़रमाएं. अबदुल्लाह बिन अब्बास (र०) कहते हैं कि नबी अकरम ﷺ ख़ुतबा दे रहे थे कि इसी दौरान आपकी नज़र एक ऐसे शख़्स पर पड़ी जो धूप में खड़ा था. आपने उसके मुताल्लिक़ पूछा, तो लोगों ने बताया यह अबू इसराईल है. उसने नज़र मानी है कि वह खड़ा रहेगा बैठेगा नहीं, ना साया में आएगा, ना बात करेगा, और रोज़ा रखेगा. आप ﷺ ने फ़रमाया: इसे हुक्म दो कि वह बात करे, साया में आए और बैठे और अपना रोज़ा पूरा करे. (अबू दावूद ह० 3300)
ख़ुलासा कलाम यह है कि सवारी छोड़कर किसी मुसलमान के लिए दरुस्त नहीं है कि वह अपने मुल्क से पैदल मक्का मुकर्रमा का सफ़र करे और हज का फ़रीज़ा अंजाम दे. इस अमल से हम सबके प्यारे हबीब मुहम्मद ﷺ ने मना फ़रमाया है. इसलिए हम आप ﷺ की सुन्नत पर अमल करते हुए आसानी का रास्ता इख़तियार करें जैसा कि आप ﷺ उम्मत के लिए हमेशा दो मामलों में आसानी का रास्ता इख़्तियार फ़रमाते और उम्मत को मशक़्क़त से बचाते थे.
यहाँ इब्ने माजा की एक रिवायत से ग़लत फ़हमी न पैदा हो कि रसूल ﷺ और असहाब-ए-रसूल ﷺ ने मदीना से मक्का का पैदल सफ़र किया. दरअसल यह हदीस ज़ईफ़ है.
अबू सईद ख़ुदरी (र०) कहते हैं कि नबी अकरम ﷺ और आपके सहाबा ने मदीना से मक्का पैदल चल कर हज किया, और आप ﷺ ने फ़रमाया: अपने तहबंद अपनी कमर में बांध लो, और आप ﷺ ऐसी चाल चले जिसमें दौड़ मिली हुई थी. (इब्ने माजा ह० 3119)
हक़ीक़त यह है कि नबी ﷺ ने अपनी सवारी क़सवा पर सफ़र किया. हाँ बाज़ सहाबा सवारी न होने की वजह से पैदल भी हज में शरीक थे. यही मफ़हूम सूरा हज की सत्ताईसवीं आयत का है कि जिसके पास सवारी होगी वो सवार हो कर आएँगे और जिसके पास सवारी नहीं होगी वो पैदल आएँगे. जबकि आज सवारी का मसला नहीं है इसलिए जान जोखम में डालने की बजाय सहूलत का रास्ता इख़्तियार किया जाये. अल्लाहु आलम
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